दरअसल : फालके अवार्ड से सम्मानित विनोद खन्ना
फालके अवार्ड से सम्मानित विनोद खन्ना
-अजय ब्रह्मात्मज
मनमोहन
देसाई की फिल्म 'अमर अकबर एंथोनी' की रिलीज के समय
अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। दोनों के प्रशंसक अपने
प्रिय अभिनेताओं के समर्थन में सिनेमाघर में सिटी और तालियां बजाया
करते थे। मुझे याद है दरभंगा के उमा सिनेमाघर में लगी इस फिल्म को देखने के
लिए मारामारी थी। टिकट खिड़की पर एक-दूसरे पर चढ़ते और फांदते लोगों की भीड़
देख कर मन घबरा गया था। मैं अपनी साइकिल मोड़ने ही वाला था कि शरद दिख गया। टिकट लहरा कर उसने पास बुलाया। चिरौरी करने पर वह एक टिकट देने के
लिए राजी हो गया। दरअसल,वह पॉपुलर फिल्मों के एक्स्ट्रा टिकट खरीद कर ब्लैक कर कुछ
कमाई कर लेता था। फिल्म शुरू होने पर हम एक-दूसरे के मुकाबले में बैठ
गए। वह अमिताभ बच्चन का प्रशंसक था और मैं विनोद खन्ना का.... दोनों भिड़ गए। फिल्म
के एक सीन में अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना के बीच लड़ाई होती है। वह
अमिताभ बच्चन की जीत की घोषणा कर चुका था और मैं नहीं चाहता था कि
विनोद खन्ना हारें। मनमोहन देसाई ने हमारे जैसे सभी प्रशंसक दर्शकों का
ख्याल रखा और दोनों को एक साथ चित कर दिया। मल्टीस्टारर फिल्मों के उस दौर
में निर्देशक ऐसी युक्तियों से किसी भी प्रशंसक दर्शक को दुखी नहीं करते थे।
बहरहाल,हम अभिनेता
विनोद खन्ना की बात करें। हिंदी
फिल्मों के आला अभिनेता विनोद खन्ना अपने
करियर के एक पड़ाव पर आकर ग्लैमर और
प्रसिद्धि की दुनिया से विरक्त हो गए
थे।
बात बहुत पुरानी है...उनकी
माँ का निधन हुआ था। अंतिम संस्कार के लिए श्मशान गए विनोद खन्ना तब बेहद दुखी और क़तर हुए जब किसी प्रशंसक शोक के उस माहौल में
उंडे संवाद सुनाने के लिए कहा।
उन्होंने तब उस प्रशंसक की बात मान ली
थी,लेकिन उन्हें
अपनी लोकप्रियता की तुच्छता समझ में आ
गयी थी। इसके साथ ही पवित्र मन के विनोद खन्ना उस दौर
में चल रही छल-कपट और साजिशों से खिन्न रहने लगे थे। अमिताभ बच्चन उनके निकटतम प्रतिद्वंदी
थे। ऐसा कहते हैं कि
उनसे जूझ पाने में वह खुद को असमर्थ
महसूस कर रहे थे। निराशा और खिन्नता
के इस वक़्त में महेश भट्ट ने उनका परिचय
आचार्य रजनीश से करवा दिया। विनोद
खन्ना को राहत मिली और अध्यात्म्िाक
सुकून के लिए उन्होंने एक दिन फिल्म
इंडस्ट्री छोड़ने का फैसला कर लिया। तब
उन्होंने कहा था कि मैं अपने
विरोधियों की तरह साजिशें नहीं रच सकता।
वे संकीर्ण,खतरनाक और चालबाज़ हैं।
विनोद खन्ना ने किसी का नाम नहीं लिया
था,फिर भी सब स्पष्ट था। यह भी विडंबना है की जिस महेश भट्ट ने विनोद खन्ना
का परिचय आचार्य रजनीश से करवाया वे स्वयं उनकी माला कमोड में फ्लश कर
फिल्मों में लौट आये। विनोद खन्ना रजनीश के साथ अमेरिका गए। मोहभंग
के बाद जब वे फ़िल्मी दुनिया में लौटे तो समय बदल चुका था। उन्हें फ़िल्में तो
मिलीं,लेकिन पुराणी लोकप्रियता हासिल नहीं हो सकी। फिर वे राजनीति में गए।
इस बार दादा साहेब फाल्के अवार्ड से विनोद खन्ना सम्मानित हुए। सिनेमा के क्षेत्र में यह देश का सबसे बड़ा सम्मान है,जो किसी भी कलाकार,फिल्मकार या फिल्म माधयम से जुड़े किसी व्यक्ति के योगदान के
लिए दिया जाता है। निस्संदेह विनोद खन्ना हिंदी फिल्मों के
लोकप्रिय अभिनेता रहे। उन्होंने कई दशकों तक दर्शकों का मनोरंजन किया। यह सवाल
ज़रूर उठा कि उन्हें ही क्यों?
कई वरिष्ठ कलाकार और फ़िल्मकार इस अवार्ड
की योग्यता रखते हैं। इस तरह के सवाल हर साल उठाते हैं। बहुभाषी भारत देश की हर
भाषा में ऐसे फ़िल्मकार हैं,जिनके योगदान को रेखांकित करने की ज़रुरत है। अभी तक यह अवार्ड हर साल किसी एक व्यक्ति को ही दिया जाता है। अगर इस
अवार्ड की संख्या बढ़ाई जाये तो दिवंगत और सक्रिय पुराधाओं का सम्मान हो
पायेगा। बेहतर तो यही होगा कि यह जीवित व्यक्तियों को दिया जाये। मरणोपरांत
अवार्ड से अलंकृत करने में दिक्कत नहीं है। इसे जारी रखा जा सकता है। एक
दिवंगत और एक जीवित की दो श्रेणियां बनायीं जा सकती हैं और योग्य कलाकारों
को सम्मानित किया जा सकता है।
Comments