फिल्म समीक्षा : अक्टूबर

फिल्म समीक्षा : अक्टूबर
- अजय ब्रह्मात्मज
अव्यक्त प्रेम की मासूम फिल्म


मुस्कुराहट सी खिली रहती है आँखों में कहीं
और पलकों पे उजाले से झुके रहते हैं
होंठ कुछ कहते नहीं, काँपते होंठों पे मगर
कितने ख़ामोश से अफ़साने रुके रहते हैं
गुलज़ार के इस गीत का मर्म 'अक्टूबर ' देखते हुए गहराई से समझ आता है।  अस्पताल में जब डॉ घोष दस कहने पर शिउली की पुतलियां बाएं और दाएं घूमती हैं तो कोमल भावनाओं की लहर उठती है। दिल भीग जाता है। कंठ में हलचल होती है। आँखें नम हो जाती हैं। 
शूजीत सरकार और जूही चतुर्वेदी की जोड़ी हर नई फिल्म मैं हमारे सामाजिक जीवन कि एक नई झांकी लेकर  है।  इस बार उन्होंने दिल्ली की पृष्ठभूमि में एक अद्भुत प्रेम कहानी रची है।  हम मान बैठे हैं कि  आज की पीढ़ी प्रेम और  प्रेमजन्य संबंधों के प्रति संवेदनशील नहीं है।  वह रिश्तो को निभाने के प्रति गंभीर नहीं रहटी।  उसके अप्रोच और व्यवहार में तात्कालिकता रहती है।  जीवन की आपाधापी में ोग प्रेम भाव के लिए ठहरती नहीं है।  इसकी वजह से पारस्परिक संबंध बनने से पहले ही दरकने और टूटने लगते हैं। इन दिनों व्यक्ति कामयाबी की निजी महत्वाकांक्षा में लीं है। प्रेम के द्वैत भाव  पनपने के लिए आवश्यक स्नेह,त्याग और एहसास खो सा गया है।  'अक्टूबर' का नायक दानिश और नायिका शिउली जड़ जमा रही ऐसी धारणाओं के विपरीत अपने अव्यक्त प्रेम से हमें छूते  हैं।
हिंदी फिल्मों में प्रेम के लाखों रंग दिखे हैं। 'ऑक्टूबर एक नया रंग है।  यह आज की पीढ़ी के अंतस में बैठी भावनाओं को उभारती और सही परिप्रेक्ष्य देती है।  दानिश(डैन) एक बेफिक्र और लापरवाह युवक है। होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई ख़त्म कर वह एक रेस्तरां खोलना चाहता है। पढ़ाई से संबंधित किसी काम में उसका मन नहीं लगता। वह हर वक़्त चिढ़ा रहता है। वह अपने सहपाठियों से भी मित्रवत नहीं है। शिउली से उसकी सामान्य मुलाक़ातें हैं। शिउली अचानक एक दुर्घटना की शिकार होती है। डैन को पता चलता है कि दुर्घटना के ठीक पहले शिउली ने उसके बारे में पूछा था 'व्हेयर इज डैन?' इस एक प्रश्न का जवाब देने के लिए उतावला डैन अचेत शिउली के करीब आता है।  'होंठ कुछ कहते नहीं' लेकिन 'खामोश अफसाना' मुखर होने लगता है। प्रेम के कोमल और निर्मल भाव की यह अनोखी फिल्म है। उपभोक्तावाद,भौतिकता और मतलबी आचार-व्यवहार को नकारती यह फिल्म आज के युवकों के दिलों की अतल गहराइयों में हिलोड मारती भावनाओं को सतह पर ला देती है।  यकीं कर यह फिल्म देख कर आप अधिक शुद्ध और निर्मल हो जायेंगे। 

जूही चतुर्वेदी ने दिल्ली की पृष्ठभूमि में अक्टूबर का महीना लिया है। कुहासे के बीच जब नज़र दूर तक नहीं देख पाती ,मगर आवाज़ धुंध को भेदती हुई कानों तक पहुँचती है। इस शहर में करियर की मारामारी के बीच युवकों का एक समूह एक होटल में पढ़ाई के साथ अपने-अपने जीवन से भी जूझ रहा है। इसी दरम्यान एक दुर्घटना से मोड़ आता है जो किरदारों को मरोड़ देता है। उनके दुसरे रूप और रंग दिखने लगते हैं। ऐसा लगता है कि जूही अपने किरदारों के संग चली हैं। उनकी स्क्रिप्ट में फ़िल्मी चालाकियां नहीं रहतीं और न ही वह घिसे-पिटे भाव और दृश्यों को आजमाती हैं।  उनकी फिल्म कलाकारों के लिए चुनौती रहती होगी क्योंकि वह अपरिचित प्रतिक्रियाओं से उन्हें दूर ले जाती हैं। नतीजा यह होता है की लोकप्रिय कलाकार अलग और नयी भाव-भंगिमाओं में नज़र आते हैं।  इस फिल्म में वरुण धवन अभी तक के करियर के एक अलग आयाम में दिखते हैं। मुझे उनकी आवाज़ और उच्चारण से समस्या है,फिर भी दानिश  की मासूमियत वह चेहरे पर ले आते हैं। उनकी चाल-ढाल भी बदली हुई है। हिंदी फिल्मों का यह हीरो नियमित ओवरबोर्ड अदाओं में नहीं है। जि तेन्द्र ने जैसे गुलज़ार के निर्देशन में 'परिचय' और 'किनारा' जैसी फ़िल्में की थीं,ठीक वैसे ही वरुण धवन की 'अक्टूबर' है। 

शिउली की माँ की भूमिका निभा रही अभिनेत्री गीतांजलि राव अपने संयमित और भावपूर्ण अभिनय से किरदार की ओज को सामने ले आती हैं। अन्य सहयोगी कलाकारों को भी मानवीय किरदार मिले हैं। उनहोंने  मनुष्य होने की अच्छाइयों को जाहिर किया है।  अच्छी बात है कि कोई भी किरदार निगेटिव नहीं है।
अवधि - 115  मिनट
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