हिंदी टाकीज 2(14) : सेक्टर 12 ई के पहलाज निहलानी, सिनेमा और ठोंगा वाला चिनिया बादाम - अनुप्रिया वर्मा
पत्रकारिता का" पी "भी नहीं आया है। मगर पी फॉर पेशे से पत्रकार होने का
ऑक्युपेशनल दर्जा अवश्य प्राप्त। दस साल प्रिंट मीडिया में खूब पैत्रा देखा
दिखाया। इन दिनों डिजिटल पत्रकारिता में शो ऑफ जारी है। प्रिंट रिपोर्टर
से सो कॉल्ड इंटरनेट प्रोफ़ेशनल तक के इस सफर में इन दिनों जिंदगी या तो
ट्रोल हो रही है या स्क्रॉल हो रही है। सिनेमा थियेटर से अपना प्यार इश्क़
मोहब्बत उस वक़्त औकाद में जब आमिर ने साल में एक फिल्में करने का विद्या
कसम नहीं खाया था। बचपन में सबसे ज्यादा फिलम देखी आमिर की। मगर असली प्यार
सपने बॉय अरविंद स्वामी से हुआ। दिल्ली, रांची होते हुए पिछले 8 सालों से
11महीने कांट्रैक्ट वाले शहर यानी मुंबई में अय्याशी। पी आर वाली फिल्म
पत्रकारिता के दौर की चश्मदीद गवाह । फिलहाल करेंट स्टेटस इतना ही....
सेक्टर 12 ई के पहलाज निहलानी,
सिनेमा
और ठोंगा वाला चिनिया बादाम
-
- अनुप्रिया
वर्मा
‘लाइफ इन मेट्रो’ हमेशा
अजीज फिल्म रहेगी। मुंबई में मेरा पहला प्रीमियर इसी फिल्म का था। दो
दिनों के लिए मुंबई आयी थी। एक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक ने कहा रुको तो प्रीमियर
दिखा दूंगा...पुणे फिल्म इंस्टीटयूट से अपने मित्र अमित जो अब जीवन का मितवा
भी है, उसके साथ आयी थी। रांची लौटने से पहले मुंबई रुक गयी थी। टिकट मिले। पीवीआर
जुहू में प्रीमियर था। बता दूं कि वह वाकई
फिल्मों की प्रीमियर वाला दौर था...जब
सारे कास्ट क्रू के साथ फिल्मों की
भव्य स्क्रीनिंग होती थी। टिकट हाथ में थे,लेकिन सामने एस्कलेटर
सीढ़ियां थी। कदम
सहम गए थे। मुंबई ने पहली बार डराया था। रांची में
तब तक ऐसी सीढ़ियां नहीं आयी
थीं। हिम्मत करके भी मैं नहीं चढ़ पा रही
थी। अमित ऊपर जा चुका था। मैं बार-बार
पैर बढ़ा कर पीछे खींच ले रही थी कि तभी
पीछे से आवाज आयी, अरे मैडम चलिये,
कुछ नहीं होगा। मैं हूं न। उन्होंने हाथ
दिया और मैं आंख बंद कर सीधा ऊपर।
आंखें खोलीं तो देखा इरफान खान थे।
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा मैडम कुछ
नहीं होता... मुंबई में बस एक हाथ मिले
तो आगे ही बढ़ियेगा। मुझे नहीं मालूम
उन्होंने यह क्यों कहा था...मगर उनके वे
शब्द हमेशा याद रह गये...आज जब
रिवाइंड होकर देखती हूं तो 9 सालों में मुंबई ने
इतना प्यार दे दिया कि वहीं इरफान जिनसे ठीक से आंखें नहीं मिला पायी थी। अब उनसे आंखों
में आंखें डाल कर खूब बातें कर लेती हूं। सवाल पूछ लेती हूं।
अब जबकि पिछले नौ सालों से हर गुरुवार फिल्में देखना रुटीन में शामिल हो चुका है। इसके
बावजूद आज भी अपने होम टाउन में अपने फिल्मी समीक्षक और मोहल्ले के पहलाज
निहलानी अजय भईया, पिंकू भईया...सेक्टर 12
ई की आंटियां और दीदियां और सहेलियों
संग पांच रुपये के चिनिया बादाम वाले ठोंगे के साथ गप्पे लड़ाते हुए
स्टॉल में बैठ कर भी लगभग सारी रिलीज फिल्मों का सिनेमा हॉल में मजा लेने
का वह चस्का जुबां से नहीं गया।
राजा हिंदुस्तानी की किसिंग सीन, दलाल फिल्म का चढ़ गया ऊपर रे गाने सुनने से मनाही...और भी बहुत कुछ आगे लिख डाला
है... ये उन दिनों की बात है...जब सिनेमा का मतलब सिर्फ खांस नहीं था।
सेक्टर 12 ई का सिनेमा, सेंसर और ठोंगा वाला चिनिया बादाम...
क्या अजय फिल्म कैसा लगा? ठीक है आंटी। तो नेहा
लोग को ले जा सकते कि नहीं। हां
आंटी ले जाइए। अजय भईया । हमारे
सेक्टर के पहलाज निहलानी थे। मतलब
सेंसर बोर्ड। और क्रिटिक
भी। मजाल है कि कोई नई फिल्म का गाना चित्रहार में सुने हों और दूसरे दिन अजय
भईया के पास उसका कैसेट ना मिले। फर्स्ट डे फर्स्ट शो वाला जुमला पहली
बार उनसे ही सुना था, क्योंकि विदाउट फेल हर फ्राइडे वह हर नई रिलीज फिल्म
देखते ही देखते थे। प्लाजा सिनेमा था अपने बोकारो में। एक देवी सिनेमा हॉल
भी था। और ठीक उसके बगल में था जीतेन्द्र सिनेमा हॉल। देवी में सारी हाई
फाई फिल्में लगती थीं। बाद में जाने कि ए ग्रेड सिनेमा हॉल और बी ग्रेड सिनेमा
हॉल भी होता है। जीतेन्द्र और देवी आजू-बाजू में थे। उस वक़्त याद है। लोग
बोलते थे कि देवी श्रीदेवी ने बनवाया है और जीतेन्द्र जीतेन्द्र हीरो के
नाम पर है। दोनों में खूब कंपिटिशन होता था
कि किस ने कौन सी फिल्म लगाई। और
सिने- "मां" कसम इसको ऐसे सच मानते थे कि जैसे गीता पर किसी ने हाथ रख कर कसम खिलवाई हो। पूरा फोकस इस पर होता था कि इस
बार श्रीदेवी जीतेन्द्र को हराई कि जीतेन्द्र श्रीदेवी को।
हां
तो हम यह बता रहे थे कि मां को फिल्मों का शौक था। पापा को भी था। अच्छी बात यह थी कि
वे दोनों उस दौर में भी सिनेमा
में फिल्म देखने जाया करते थे। जब सिनेमा हॉल में फिल्म देखना तीर मार
लेने से कम नहीं होता था। अब जबकि सिनेमा ही रोजी रोटी है। उस वक़्त जबकि
मैंने थियेटर में लगभग 50से भी अधिक फिल्म देख ली थी। मेरी सहेलियों में से कुछ ने तो
अभी तक हॉल में नारियल भी नहीं फोड़ा था। मतलब थियेटर का चेहरा भी नहीं देखा था। लेकिन
शुक्रिया मां और पापा का जिन्होंने कुछेक फिल्में देखने से मनाही की।
मगर फिल्में थियेटर में दिखाने से परहेज नहीं किया। इसे पाप नहीं समझा। आलम
तो यह था कि ‘यादें’ आई थी। संडे को टिकट नहीं मिले थे तो पापा ने बाकायदा
हम सारी बहनें, मेरी छोटी मम्मी की तीन और हम तीन। कुल छह बहनों ने पापा के
कहने पर स्कूल एबसेंट किया और सोमवार को आफ्टर नून शो देखा। चूंकि मां-पापा
फिल्म देख आए थे और उन्हें फिल्म देखने के बाद लगा कि बेटियों को ये
फिल्म पापा के साथ देखनी ही चाहिए। फिल्म नाकामयाब रही हो। मगर हमारी
फैमिली के लिए...छह बहनों के लिए वह फिल्म यादगार रही। इस फिल्म का गीत था ना...बातें
भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं।।
मां-पापा तो ऐसे
शौकीन कि जानवर अक्षय की फिल्म थियेटर खाली।
लेकिन मां को वो मेरे सपनों के राजकुमार
गाने के लिए वो फिल्म देखनी ही थी। फिर
हम देखने को तो वो फिल्म भी गए थे
अभिषेक ऐश्वर्य वाली। बात वहीं थी मां
को ढाई अक्षर प्रेम के गाने भा गए
थे।
फिल्मों में पापा से अधिक मां के लगाव
के दो बड़े कारण थे, जो मां बताती
थी। उनके होम टाउन के थियेटर जो
कि घर और कॉलेज से पास हुआ करता था। मगर
सात भाइयों के बीच इकलौती बहन पर ऐसा
पहरा कि एक बार जूली दोस्तों के साथ
देखने की प्लानिंग भी की थी,
लेकिन पकड़ी गई थी। सो, जेहन में मां के ये
बात रही कि जब वह अपनी मर्जी की मालकिन बनेंगी, जो कि मेरे पापा और
दादी ने बनने भी दिया। उन्हें आजादी दी थी उस वक़्त वह इस शौक को पूरा
करेगी। दूसरी वजह यह थीं कि मां के बड़े पापा के बेटे उन दिनों मुंबई आ चुके
थे और फिल्म समीक्षक के रूप में भी वह बड़ा नाम बन चुके थे। अब तो फिल्म
पत्रकार के रूप में भारत में हस्ताक्षर बन चुके हैं। वह फिल्मों पर खूब लिखा
करते थे। उनके रिव्यू, इंटरव्यू मां चटोरी की तरह चाट जाती थीं। जेहन में सिनेमा को लेकर सम्मान उनकी वजह से भी था कि सिनेमा कोई गंदी बात नहीं।
उस वक़्त जहां तक मैं
रिवाइंड करके देखती हूं। मोहल्ले की आंटियां अधिक वीसीआर में फिल्म देखना पसंद
करती थीं। मोहल्ले के भईया लोग ही अधिक जाते थे। तो होता ये था कि अजय
भईया जो कि ए क्या बी क्या सी क्या ए से जेड हर फिल्म देखते। फिर सेंसर बोर्ड की तरह राय देते कि फिल्म हम लड़कियों
के जाने लायक है कि नहीं। हम तीन बहनें ही थी न। फिर दूसरा राउंड सेंसर का
मां-पापा के साथ होता। वो लोग जाकर पहले देखते फिर हमलोग नेक्सट राउंड में
जाते थे। हम हैं राही प्यार के,
जो जीता वही सिकंदर, दिल है कि मानता नहीं...संजोग
है कि अभी जब ये लिख रही हूं तो ध्यान जा रहा कि शुरूआती दौर में
मेरा थियेटर से नाता तो आमिर की फिल्मों से जुड़ा। दामिनी का वो गाना बिन
साजन झूला झुलूं फेवरेट था। इस गाने में भी आमिर थे। लेकिन आमिर फिर भी
कभी मेरे फेवरेट नहीं बने। नेहा दी को पसंद थे। हां, आमिर की ‘राजा
हिन्दुस्तानी’ मां पापा ने
अकेले देखी थी। बाद में हमें लेकर भी
नहीं गए।
हम वीसीआर में बाद में देखे थे। उस वक़्त
खाली इतना समझ आया था कि कुछ है जो देखना नहीं है। बाद में पता चला था
कि करिश्मा और आमिर के किस की वजह से हॉल जाने से मनाही हुई थी। चूंकि
वीसीपी पे तो फिल्टर होके आती थी फिल्में।
लेकिन एक कंफेशन सेक्टर में ही
एक दीदी थीं, उन्होंने अनसेंसर वाली टेप मंगा कर आखिर कार सारी लड़कियों को
किसिंग सीन दिखा दिया। किसिंग सीन से याद आया। तब तक मिथुन काफी फेमस थे
सेक्टर में...मगर वह फिल्म आयी दलाल और उसका गाना चढ़ गया ऊपर रे...झूठ
नहीं बोलूंगी जुबां पर चढ़ गया था। खूब गाती थी और मां-पापा से खूब डांट खाती थी। फिल्म तो देखने नहीं ही मिली थी। इस गाने को गुनगुनाने से भी मनाही थी।
बहरहाल,
आमिर के बाद सलमान खान से थियेटर
में पहली मुलाकात ‘हम आपके हैं कौन’ से हुई तो शाहरुख से ‘दिलवाले
दुल्हनियां ले जाएंगे’ में भेंट हुई थी। हमलोग जब ऐसी फैमिली फिल्म आती थी तो पूरा मोहल्ला उठ कर जैसे किसी मार्च पर हों... पैदल
निकल जाते थे। कभी ऑटो लिया। तो कभी गप्पे मारते निकल जाते थे। मजे
से पांच रुपए के चिनिया बादाम के ठोंगे पकड़ाए जाते थे सभी बच्चों को , और चुपचाप से लाइन से बिठा दिए जाते थे। बालकनी नहीं मिली। डीसी ना मिली ना सही।
सिंह आंटी थीं।
सभी आंटी में सबसे हिम्मत वाली। बोलती थीं भेज दीजिए सबको। तो पिंकू भईया की जिम्मेदारी टिकट की होती और सिंह आंटी गार्डियन बन कर
ले जाती थीं। सिन्हा आंटी और परिवार,
वर्मा परिवार यानी हम । और सिंह आंटी
परिवार चल देते थे। इश्क देखने गए थे। बाप रे याद है मुझे। एक बार टिकट
नहीं मिला था। सबका चेहरा उतार गया था। क्योंकि रास्ते भर हमलोग मिस्टर लोवा लावा
गाते जा रहे थे। और अजय भईया ने भी तो समीक्षा दी थी कि सुपरहिट है। खूब
कॉमेडी है। जाइए आंटी। फुल फैमिली जाइए। ऐसे में वहां पहुंचे और टिकट नहीं
मिले तो निराशा होना तो लाजिमी था।।लेकिन पिंकू भैया दस का बीस कर आए
थे। मसलन कहीं से ब्लैक में टिकट ले आए थे। दस की जगह बीस का टिकट मिला।
लेकिन स्टॉल में जगह मिली। आगे से एकदम फ्रंट में कुर्सियां लगीं। एक तरफ
पिंकू भईया एक तरफ
सिंह आंटी। बीच में पूरी पलटन बैठ गईं। खूब एंजॉय किया। फिल्म के सीन, वो टूथपेस्ट वाला, डेचू देचु वाला, राम राम मरा मरा , सारे डांसिंग स्टेप्स कई दिन तक मोहल्ले की प्ले लिस्ट में शामिल रहे। सरस्वती
पूजा में भी खूब ठुमके लगे थे इस फिल्म के गानों पर। यहां भी एक और
फिल्म आमिर की ही थियेटर में। मगर फिर भी वह मेरे पसंदीदा स्टार नहीं बने...
अच्छा तो ये भी बात गौरतलब
है कि ये वो दौर नहीं था जब आमिर साल में एक फिल्म करने की सौगंध खाने
लगे थे। और यह वह दौर भी नहीं था जब लोग उन्हें परफेक्शनिस्ट वाले
टैग से नवाज चुके थे। (वैसे बताती चलूं कि फिल्म ‘दिल चाहता है’ देखी होगी
आपने तो एक सीन है, जहां अक्षय आमिर से कहते हैं कि साला आ ही गया...
आमिर जवाब में कहते हां क्या करूं परफेक्ट हूं न तो परफेक्ट वक़्त पर ही आ
गया...कुछ ऐसा ही संवाद था
तो लगान और गदर एक साथ
रिलीज हुई। फिर एक और फिल्म आमिर की... मीटिंग हुई मोहल्ले में। गदर कि
लगान। तय हुआ कि लगान..मतलब यहां भी बाजी मारे आमिर ही। हालांकि फिर भी वह मेरे फेवरेट नहीं बने...दीदियों के और
मोहल्ले की आंटियों के थे। खान वॉर का पहला वर्जन तो वहीं देखा था। सिम्मी,खुशबू दीदी, मोनी, डॉली दी, टिक्की दी सलमान की पार्टी,
निशि दी,
नीरज भईया, ऋतु दी शाहरुख पार्टी। नेहा दीदी को और मम्मी को आमिर खूब पसंद थे।
बहरहाल, जीतेंद्र में गदर लगी थी। लगान लगी थी देवी में। लगान के टिकट
मिले नहीं। न ह्वाइट में न ब्लैक
मे। सो,
तय हुआ कि चलो गदर ही देख आये। देवी से जीतेंद्र शिफ्ट हुए। मगर वहां अलग ही गदर मची थी। 2 से पांच का शो था। सिंहा आंटी एंड परिवार और वर्मा परिवार जुगाड़ में लगा था।
बमशक्कत हमें टिकट तो मिली। लेकिन अचानक लाठी चार्ज हुई। पापा ने किसी
कारणवश बाल मुड़वा रखे थे। वह कहीं दिखे नहीं और वहां मौजूद पुलिस बाल मुड़वाये
लोगों के सिर पर ही लाठी चला रही थी। हम सिनेमा हॉल में क्या जाते। सबकी जान
अटकी पड़ी थी। जैसे-तैसे अंदर पहुंच तो गये। नजर टिकी थी कि पापा आ जायें।
पापा आये। उन्हें सकुशल देख कर जान में जान आयी। मां मगर घबरा गयी थी।
बोली वापस चलते हैं। पापा बोले। दिक्कत से मिली हैं टिकटें। अब देख लो। सीढ़ी
के पास ही बैठे थे हमलोग कि हंगामा हुआ तो चुपचाप निकल लेंगे। दरअसल, भारत-पाकिस्तान को लेकर बोले गये संवाद बार-बार पहले शो देख चुके लोग दोहराते
हुए बाहर निकल रहे थें....मुझे याद है पाकिस्तान मुर्दाबाद के खूब नारे
लग रहे थे। प्रशासन को अनुमान होगा कि परेशानी हो सकती। सो, वे तैनात थे और ऐसे नारेबाजी के लिए मना कर रहे थे। यह शायद पहली फिल्म थी, जिसमें मां फिल्म नहीं कहीं और थीं। शोर था कि लगान के सामने नहीं टिकेगी। लेकिन
सच कहूं तो बोकारो के लिए वही 100
करोड़ क्लब की पहली फिल्म थी। चूंकि
जितनी भीड़ गदर में आ रही थी। लगान में बाकी के दिनों में भीड़ घटने लगी थी।
सनी पाजी अचानक से हमारे मोहल्ले में भी स्टार बन चुके थे। गदर के गाने लगान
से अधिक बजने लगे थे। घर घर में। वैसा गदर मचा कर, एक दूसरे के ऊपर लद
कर टिकट लेकर थियेटर में देखी वह पहली और शायद आखिरी ऐसी फिल्म रही होगी, जिसमें भीड़ बेकाबू हुई थी। इन सबके बावजूद अब तक मेरे फेवरेट हीरो का राज
मेरे दिल पर नहीं हुआ था। हां,
काजोल जूही करिश्मा खूब अच्छी लगने लगी
थी। हीरो पसंद नहीं आते थे।
फिर एक रोज इतवार के दिन रोजा देखी।
थियेटर में नहीं टीवी पर। उसमें हीरो की बदमाशियां खूब अच्छी लगी... मस्ती
अच्छी लगी और उस दिन से मूंछों वाले लड़के अच्छे लगने लगे...दिल जाकर कहीं
रुका। हां, अब मिला जाकर मुझे मेरा ड्रीम हीरो। अरविंद स्वामी...बाद में
उनकी सारी फिल्में देखी। सलमान,
शाहरुख,
आमिर के उस वक्त कैलेंडर आते थे। अरविंद
के नहीं आते थे। पोस्टर भी नहीं मिलते थे। दुख होता था। मगर एक
दोस्त ने बर्थ डे पर अरविंद के पोस्टर की तलाश करके न जाने कहां से दिया। मां
के संदूक में आज भी सपने वाले सौदागर अरविंद की वह तस्वीर सुरक्षित है।
फिल्म पत्रकारिता शुरू होने
के पांच सालों बाद अरविंद से मिली। उन्हें बताया गया कि ये लड़की आपकी फैन
है। आप इसके चाइल्डहुड क्रश हैं। उन्हें यकीन नहीं हुआ। उन्होंने टेस्ट लिया। अच्छा रोजा की रिलीज तारीख बताओ।
जवाब सही दिया। फिर छेड़ते हुए पूछा शादी हो गयी क्या... मैंने कहा हां...तो
बोले, वरना अभी कर लेता...उफ्फ रोजा की वह बदमाशियों वाला राजकुमार आज
मेरे सामने था।और लगा कि एक पल के लिए ही सही मैं मधु के किरदार में चली
गयी... अपने इंटरव्यू खत्म होने के बाद भी मैं उस दिन बाकी इंटरव्यूज के
दौरान भी ठहरी रही। ताकि अरविंद स्वामी को जी भर निहार लेने का मौका मिले...
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