हमने बहाने से छुपके ज़माने से तेरी हर इक अदा से दिल को लगाया : सुदीप्ति
- सुदीप्ति
इतवार की कोई सुबह ऐसे भी होगी, सोचा न
था! थोड़ी नींद अभी बची हुई थी, कुछ अलसाया हुआ सा मन था. और फोन पर ठंडी सी खबर मिली-- “श्रीदेवी नहीं रहीं. रात दिल के दौरे से देहांत हो गया.” सहसा यकीन नहीं हुआ. कौन श्री? सच्ची? ऐसा कैसे? पलकों के कोर अनायास गीले हो गये. रोना किसी अपने के जाने पर आता है और श्री से अपना जो नाता था वह करीब उनतीस साल पुराना, खासा ‘अपना’, था. वो मेरे सपनों की रानी थी. हँसिए मत. कहीं नहीं लिखा हुआ है कि लड़कियों के सपनों के राजकुमार ही होते हैं. श्री के लिए ‘थी’ लिखना अभी भी आँसू लाने वाला है. बरसों तक उसकी एक-एक छवि को संजोया हुआ वक़्त आँखों के सामने से गुज़रा जा रहा है. बड़े होने के बाद ‘फैन’ होने की भावात्मक मूर्खताओं से जब काफी दूर हो गई तब भी श्री के लिए बहसों में पड़ी और उसको लेकर एक नोस्टाल्जिया बना रहा. प्रमोद सिंह जी जब सिनेमा वाली सीरिज फेसबुक पर चला रहे थे तो श्री के लिए फरमाइश खास हमारी थी. ऐसे कैसे चली गई वो? ऐसे कैसे! एकदम अचानक! जैसे रेल में बैठी रेशमी चली गई और सोमू बावला हुआ उसे देखता रहा... ठीक उसी तरह हम शून्य में देखते रहे… अजीब सुबह हुई थी!
लौटती हूँ पुराने दिनों में. श्रीदेवी की पहली फिल्म कौन-सी देखी? पहली फिल्म आँखों से देखी नहीं, कानों से सुनी थी; बिलकुल देखने जैसी. ये उन दिनों की बात है जब बस इतवार को एक फीचर फिल्म इकलौते चैनल दूरदर्शन पर आता था और हमारे जैसे ग्रामीण और कस्बाई पृष्ठभूमि वालों को वह भी देखने को नहीं मिलता था; क्योंकि टीवी पर सुबह चलने वाले रामायण या महाभारत के सामूहिक दर्शन में बैटरी ख़त्म हो जाया करती थी. कई बार बची हुई को अगले दिन आने वाले मैच के लिए बचाया जाता था, तब भी शाम की फिल्म कुर्बान करनी होती थी. उन दिनों मेरे ननिहाल के गाँव में इतनी देर भी बिजली नहीं रहती थी कि टीवी देखने वाली बैटरी चार्ज हो सके. स्कूल जाते वक़्त मैं ही बैटरी को साइकिल के कैरियर पर बाँध कस्बे के मशहूर ‘प्रेम बैटरी वाले’ के यहाँ ले जाती थी और दूसरे दिन चार्ज हो जाने पर ले भी आती थी. पर फिल्म देखना तब सबकी प्राथमिकता में नहीं था. उन दिनों शादियों में नाच के बदले वीडियो दिखाने का नया-नया चलन शुरू हुआ था. तब लोग शादियों में रात भर बारात में रुकते थे. बारातियों के मनोरंजन के लिए नाच या वीडियो बांधना जरुरी था. ज्यादातर लोग विडियो का इन्तजाम ही करते थे क्योंकि नाच महंगा था और लड़कियों वाला ऑर्केस्ट्रा तो गिने-चुने अमीर लोगों के ही बस की बात थी. उन दिनों इज्जतदार घरों की लडकियाँ बाज़ार भी नहीं जाती थीं फिर बारात में जाकर नाच या वीडियो देखना तो असंभव सम्भावना थी. तब भी रात में तो नहीं लेकिन मरजाद वाली बरातों में दोपहर को हमने भी भाग और लुक-छिपकर नाच या वीडियो देखने का यह कांड किया है. आखिर न करो तो बचपन की शैतानियों का मतलब क्या? दो जगह हम गर्व से वीसीआर वाले वीडियो का दर्शन करते थे. पहला अगर नानी ने खुश होकर किसी मौके पर अपने दुआर पर चलवा दिया और दूसरा दशहरा में सप्तमी, अष्टमी और नवमी में किसी एक या दो दिन जब दुर्गापूजा के पंडाल में चला हो. लगातार एक के बाद एक, तीन फ़िल्में देखते हुए भोर हो जाती लेकिन उस दिन नींद गायब रहती. मगर बात यहाँ मेरी नहीं, श्री की है.
श्री की पहली फिल्म ‘नगीना’ थी, जो मैंने रीता (हमारी ठकुराइन यानी नाउन की बेटी, जो हमारे घर में काम भी करती थी) की जुबानी दृश्य-दर-दृश्य सुनकर देखी. उस फिल्म को वह पिछली रात घर से छुप एक बारात में जाकर देख कर आई थी. बहुत बाद में जब ‘नगीना’ अपनी आँखों से टीवी के परदे पर देखी तब उसके खींचे शब्द-चित्र सामने चलते दृश्यों के साथ कानों में गूंजते रहे. रीता ने सच में एक-एक दृश्य हुबहू चित्रित किया था. बचपन में उसके बताये जिस दृश्य पर मैं मुग्ध थी वह था मनुष्य से नागिन बनते हुए श्री के आँखों का रंग बदलना. उसी ने अचंभित हो बताया था कि कैसे श्री की आँखें मनुष्य से साँप वाले में बदलती थीं. उसने यह भी बताया कि सुना है, इसको फिल्माने में जो रोशनी श्री की आँखों पर डाली जाती थी उससे उनकी आँखें ख़राब हो रखी हैं. एक आठ साल की लड़की के लिए ये कहानी हैरतअंगेज करने वाली थी. बिन देखे उस नायिका के लिए दीवानगी पैदा हो गई जो अपने काम के लिए अपनी आँखों को भी खतरे में डाल सकती थी. फिर फिल्म में उसने हीरो को बचाया न कि हीरो ने उसे, यह और दमदार बात थी. बाद में जाना कि ‘आखिरी रास्ता’ और ‘खुदा गवाह’ के बीच लम्बे समय तक उन्होंने यह तय कर लिया था कि अमिताभ के साथ काम नहीं करना क्योंकि उनकी फिल्मों में ‘सिर्फ वही’ होते हैं. नहीं मालूम कि ऐसी बातें कितनी सच थीं और कितनी अफवाह मात्र, लेकिन उस उम्र में उनकी इन सब बातों ने मेरी नज़र में उन्हें किसी हीरो से ज्यादा आकर्षक और चाहने लायक बनाया.
... और फिर पहली फिल्म जो देखी, वह थी ‘चाँदनी’. कहीं छुप कर नहीं. हमारे घर पर वीसीआर और वीडियो मंगाया गया था. मामा-मामी की शादी का कैसेट देखना था और उसी के साथ मौसी की पसंद थी ‘चाँदनी’ की. श्रीदेवी की वह पहली फिल्म मैंने देखी थी. सफ़ेद ड्रेसेज में नाचती, खिलखिलाती और दिल्ली की गलियों में घूमती श्रीदेवी जहन में बस गई. किसे भला चाँदनी वाली श्री से प्यार नहीं होगा? उसके बाद स्कूल की ओर से क्विज़ कम्पटीशन में शामिल होने के लिए पटना जाना हुआ. उस पटना यात्रा में मैं अपने एक चाचा जी के घर रह गई. लगभग महीने भर के लिए. वहां मुझसे थोड़ी ही बड़ी मेरी दो बहनें थीं. उनके यहाँ घर पर ही वीसीआर था और पटना में लाइट की कमी तो थी नहीं. तो उन्होंने श्री की बिलकुल नयी फिल्म ‘चालबाज़’ दिखाई. वह उसी दिसंबर में रिलीज हुई थी. कहते हैं, डबल रोल से बॉलीवुड में आत्मरति की पराकाष्ठा सिद्ध हो जाती है. डबल रोल उस दौर में लगभग सभी अभिनेताओं और कुछेक अभिनेत्रियों को मिले. आप मुझे बायस्ड कह सकते हैं लेकिन मुझे तो दिलीप कुमार और हेमामालिनी भी डबल रोल में ऐसे फ्लोलेस, बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के नहीं लगे जैसी श्रीदेवी इस फिल्म में लगी थीं. उनको अंजू से मंजू या मंजू से अंजू बदलने में सिर्फ हाव-भाव और आवाज़ का अंदाज़ बदलना होता था. लोग कहते हैं कि उसी फिल्म से वे सुपरस्टार बनी. मुझे तो सदा से लगती हैं. अपनी फिल्मों में नायकों को ओवर शैडो करती उनकी छवियाँ सुपरस्टार की उनकी स्थिति को और मजबूत ही करती हैं.
‘लम्हे’ मुझे किसी ने नहीं दिखाई. मैंने लम्हे के ऊपर एक चित्रकथा या कॉमिक बुक रेलवे स्टेशन वाली बुक डिपो से खरीदा था. ‘लम्हे’ के लिए सभी कहते रहे कि भारतीय समाज ने पिता और पुत्री जैसे उम्र वाले या वैसे ही दिखते रिश्ते में उपजे प्रेम नहीं स्वीकार किया पर मुझे उस फिल्म से कितना लगाव हो गया यह लिख कर बताया नहीं जा सकता है. मानवीय संबंधों के एक नए पहलू को यह फिल्म उभारती है. बड़ी उम्र की स्त्री से प्रेम बतौर समाज हमने अभी तक ठीक से स्वीकार नहीं किया है. इस फिल्म में ‘मोरनी बागा मा’ गाने वाली खूब सुन्दर पर अपने से बड़ी पल्लवी से वीरेन प्रताप सिंह को प्रेम हो जाता है जबकि वह उनसे नहीं करती है. अपने टूटे दिल के साथ नायक अकेला रहता है, प्रेमिका न हो पाई स्त्री को याद करते हुए उसी के प्रेम में. वह प्रेम कब ओबसेशन या अहंकार बन गया उसकी बात न करें, क्योंकि फिर से दोहरी भूमिका वाली श्री ही इस फिल्म की जान है. पूजा और पल्लवी की भूमिका में श्री इस फिल्म में एक ग्रेसफुल स्त्री से लेकर चुलबुली किशोरी तक क्या खूब लगी हैं. यह हिट भले न हुई पर हिंदी की बेहतरीन रोमैंटिक फिल्मों में एक हमेशा रहेगी. मुझे तो याद भी नहीं कि मैं पल्लवी के प्रेम में ज्यादा थी या पूजा के. सबसे अधिक याद है वह दृश्य जब अतीत के सच को जान कर बौखलाई एक युवती कहती है, ‘मेरी माँ आपसे नहीं, मेरे पिता से प्रेम करती थी.’ हम अपने माता-पिता को लेकर कैसे भावुक होते हैं न? वे किसी और से प्रेम कर सकते थे या हैं, यह हमें हिला देता है.
अक्सर हम पढ़ते हैं कि फलां हीरो ने अपने से बीस साल या पच्चीस साल छोटी लड़की के साथ काम किया. पर अक्सर हीरोइन उम्र के ऐसे पड़ाव पर पीछे धकेल दी जाती हैं. ऐसी गिनी-चुनी ही अभिनेत्रियाँ हिंदी सिनेमा में होंगी जो अपने से कम उम्र के उभरते नायकों के साथ फ़िल्में करने का मौका पाती हैं और उसका हौसला भी रखती हैं. श्री उनमें से एक थीं. शाहरुख़ और सलमान के साथ आई उनकी फ़िल्में नहीं चलीं, लेकिन उस दौर में यह करना ही बड़ी बात थी. यही सब-कुछ मुझे उनका दीवाना बनाता गया.
अपने स्कूली जीवन में मैं किसी और की ऐसी फैन नहीं हुई थी जैसी श्री और सचिन की. दोनों के लिए पत्रिकाएं खरीदने में मेरा बड़ों से मिला हुआ सारा पैसा चला जाता था. तब हम कस्बाई स्कूल-स्टूडेंट्स को पॉकेट मनी नहीं मिला करती थी. इधर-उधर कहीं आने-जाने या रिश्तेदारी में कभी दस-बीस रुपये जो मिलते थे वही जमा-पूंजी हुआ करता थी. उस पैसे को मैंने मायापुरी, स्क्रीन-स्टार से लेकर फिल्मफेयर के हर उस अंक को खरीदने में खर्च किया जिसमें श्री कवर पर होती थीं या उन पर कोई फीचर होता था. जब पैसे ख़त्म हो जाते और कोई नया अंक दिखता तो नानी और मौसी से चिरौरी के दिन शुरू हो जाते. उन तमाम सालों (90 से 95) में श्रीदेवी की तस्वीरों से सजे पन्नों के लालच में मैंने नागराज वाली कॉमिक्स तक खरीदना बंद कर दिया. वह पचास पैसे के भाड़े पर पढ़ लेती रही और घरवालों की डांट खाते हुए भी फ़िल्मी पत्रिकाएं खरीदना ज़ारी रहा.
डांट वाली एक घटना तो बहुत अच्छे से याद है. आठवीं में रही होंउंगी. स्कूल से घर आने पर बड़े मामा मिले. दिल्ली रहते थे और छुट्टियों में आए थे. उनके साथ बहुत कम वक्त बिताने के कारण मैं बहुत डरती थी. मंझले और छोटे मामा के साथ रहने के कारण उनसे अभिभावकों वाला कोई भय नहीं था पर बड़े मामा डराने वाले न होकर भी दूरी की वजह से बन जात थे. स्कूल से आते ही उन्होंने कहा-- लाओ तुम्हारा बैग देखें. वैसे तो बैग दिखाने में कुछ नहीं था और गार्जियन लोग तब यदा-कदा ऐसे औचक निरीक्षण करते ही थे. हम किसी तरह के प्रेम-व्रेम के झमेलों में थे नहीं, इसलिए कोई डर भी नहीं था. फिर याद आया. उसी दिन लिया हुआ ‘मायापुरी’ का नया अंक बस्ते में छिपाकर ऐसे रखा था कि तस्वीर ख़राब न हो. इस बात के स्मरण से मेरा मुँह उतर गया. बस्ते से सारी चीजें निकालते ही मामा ने पत्रिका देखी, डांट लगायी और हैरानी से कहा कि फ़िल्मी मैगज़ीन तुम क्या करोगी और लेकर चलते बने. कई दिनों तक बेबी मौसी की मिन्नतें करने पर मामा के जाने के बाद ही वह मुझे मिला. सच पूछिए तो सारे हंगामे में मुझे मामा के सामने अपने रेप्युटेशन की नहीं, बल्कि श्री की तस्वीर की फिक्र थी!
मुझे समझ नहीं आता कि किशोर उम्र के उन हार्मोनल बदलाव के लिए प्रसिद्ध सालों में मुझे कोई अभिनेता इस तरह क्यों नहीं पसंद आया? उस पूरे दौर में मुझे श्री को छोड़ किसी के लिए कोई दीवानगी नहीं हुई. नौ-दस की उम्र से लेकर काफी बाद तक मैं उनसे सम्मोहित रही. दसवीं के बाद पटना पढ़ने जाने पर भी छुट्टियों में आने के बाद मेरा एक मुख्य काम अपनी उन पत्रिकाओं का साज-संभाल होता था. कुछेक सालों के बाद नानी ने उन्हें कबाड़ी में बेच देने का फैसला किया और तब मैंने जतन से एक-एक तस्वीर काट कर रखी. काफी सालों तक वे नानी घर की मेरी एक अलमारी में रखी भी रहीं, लेकिन जेएनयू आने के बाद वापस जाना ही कम हो गया तो वे तस्वीरें वैसी खास नहीं रह गईं. एक बात इस बीच और हुई. जब उन्होंने बोनी कपूर से शादी कर ली तब मेरा मोह थोड़ा कम हो गया. नहीं, इसका मतलब यह नहीं कि आकर्षण उनकी सुन्दरता या सेंसुअलिटी का था. मुझे वह बेहद ग्रेसफुल और पूर्ण स्त्री जैसी लगती थीं. शादी किस से करें यह उनका निर्णय होना था पर मुझे उनका चयन पसंद नहीं आया. तभी उनसे जो मोह था वह ‘जुदाई’ फिल्म के बाद कम होने लगा. एक बार फिर ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ के बाद कस कर उभरा. अब मुझे समझ आया कि मसला शादी का नहीं था. मुझे परंपरागत श्री की छवि ही पसंद थी. वही जो अपने बूते किसी फिल्म को निभा ले जाए, जो अपने रास्ते खुद तय करे, जो एक सशक्त औरत होने का सबूत अपनी फिल्मों में देती रही. शायद निजी ज़िन्दगी में अपनी फ़िल्मी छवि को उन्होंने ध्वस्त किया जिससे मेरा मोहभंग हुआ, मगर फिर भी श्री के लिए मेरा दीवानापन रहेगा.
श्रीदेवी का मतलब मेरे लिए एक पूर्ण स्त्री की छवि का रहा है. हमेशा अवचेतन में यही रहा कि ऐसे होना चाहिए. एक ही वक़्त में उनकी शालीनता और सेंसुअलिटी, गंभीरता और कॉमिक टाइमिंग, भोलापन और चतुराई, बला की सुन्दरता और सहजता-- जाने किन-किन विरोधाभासों से भरी वो अपने अधूरेपन में पूर्ण लगती थीं. वह ऐसी अभिनेत्री थीं जो परदे पर सच में वही दिखतीं जो उन्हें बनाया जा रहा था. ‘सदमा’ से लेकर ‘मॉम’ तक देखिए, वह श्री नहीं हैं. वो कथा-नायिका हैं. उनकी यही बात उन्हें अलहदा बनाती है. ‘हवा-हवाई’ से लेकर ‘मेरा नाम चिनचिन’ तक उनकी छवियों को देख लगता ही नहीं कि एक संजीदा और गंभीर भूमिका में वो कभी फिट हो सकेंगी. फिर आप जब उस पर ऐतबार कर बैठते हैं तो ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘चंद्रमुखी’ जैसा चयन कर बैठती हैं. आपको शिफॉन की नीली साड़ी में ‘काटे नहीं कटते दिन ये रात’ वाली श्री याद आ रही हैं? मुझे ‘जांबाज़’ वाली लाल और सफ़ेद शिफॉन में लिपटी ‘हर किसी को नहीं मिलता यहाँ प्यार ज़िन्दगी में’ गाती हुई. ‘जाबांज’ फिल्म में भी वो असमय चले जाने वाली भूमिका में हैं. देखिएगा इस गाने की पृष्ठभूमि में समन्दर की उछाल मारती लहरें हैं. आज लग रहा है, उसी अनंत सागर में वो समा गई हों जैसे! जीते-जी उन्हें भरपूर प्यार मिला और जाने के बाद लोग उन्हें ऐसे याद कर रहे हैं कि कहने को जी चाहता है-- वो वाकई किस्मत वाली हैं...
‘थीं’ लिखने का मन नहीं...
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