फिल्म समीक्षा : सोनू के टीटू की स्वीटी
फिल्म समीक्षा : सोनू के टीटू की स्वीटी
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों में निर्देशक और अभिनेता की जोड़ी
ने कमाल किए हैं। परस्पर भरोसे से कुछ बेहतरीन फिल्में आई हैं। लव रंजन और
कार्तिक आर्यन की जोड़ी ने ‘प्यार का पंचनामा’(1-2),आकाशवाणी और अब ‘सोनू के टीटू
की स्वीटी’ जैसी फिल्में दी हैं। इन फिल्मों को क्लासिक के दर्जे में नहीं डाल
सकते,लेकिन ये कल्ट ब्रांड की फिल्में हैं। अकेले लव रंजन ही ऐसी फिल्में बना
रहे हैं। दरअसल,इस तरह की फिल्मों के लिए बात और स्वभाव में देसी होना जरूरी है।
अगर आप अपने समय और समाज में पगे होंगे,तभी ऐसी फिल्में लेकर आ सकते हैं। इन फिल्मों
में कोई बड़ी बात नही कही गई है। रोजमर्रा की बातों का ही ऐसे नजरिए और एटीट्यूड
के साथ पेश किया गया है कि किरदारों में आज के युवक दिखते हैं। लव रंजन की फिल्में
मुख्य रूप से लड़कों के नजरिए से पेश की जाती हैं। उनकी लड़कियां कतई कमजोर
नहीं होतीं,लेकिन लड़कों के ज्यादा दृश्यों और प्रसंगों की वजह से दरकिनार होती
नजर आती हैं। गौर करें तो लव
रंजन के किरदार शहरी और महानगरीय दिखते हैं,लेकिन उनकी मानसिकता उत्तर भारत के
कस्बाई किरदारों की होती है। अपनी फिल्मों को रोचक और मनोरंजक बनाने के लिए लव
रंजन कॉस्मोपोलिटन युक्तियां जुटान में
आगे रहते हैं। ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ ही देखें तो पाएंगे कि इसमें करण जौहर के
रसीले कारनामे भी मौजूद हैं। फिर भी यह देसी पेशकश है। छोटे शहरों के युवा समूह के
संबंधों की कशमकश है।
शहरों में ऐसी दोस्ती नहीं होती। सेनू और टीटू
नर्सरी के दोस्त हैं। 13 की उम्र में मां के निधन के बाद सोनू टीअू के परिवार का
हिस्सा हो गया है। कह सकते हैं कि दोनों जुड़वां भाइयों की ही तरह हैं। टीटू का
परिवार और उसके परिजन ही सोनू के सगे हैं। सोनू थोड़ा व्यवहारिक है। वह टीटू की
उलझनें कम करता है। खास कर प्रेम संबंधों में टीटू को चोट और ठोकरों से बचता है।
प्रेम में असफल रहने के बाद टीटू अरेंज मैरिज करने के नलए तैयार हो जाता है। उसे
स्वीटी पसंद आ जाती है। स्वीटी परफेक्ट,उदार और हंसमुख लड़की है। चंद मुलाकातों
में ही वह टीटू समेत उसके परिजनों का दिल जीत लेती है। स्वीटी की यह जल्दीबाजी
ही सोनू को अखर जाती है। उसे संदेह होता है। वह टीटू और शेष परिवार के सामने यह
सवाल रखता है कि भला कोई लड़की ऐसी हो सकती है? कुछ दृश्यों के
बाद सेनू और स्वीटी परस्पर नापसंदगी जाहिर हो जाती है। इन दोनों के बीच फंसा
टीटू दोस्ती और लड़की के बीच पेंड़ुलम सा डोलता रहता है।
किरदारों के बीच के रिश्तों में कुछ व्यवहार
सहज लगते हैं,लेकिन दादा घसीटा से टीटू और सोनू के रिश्ते का खुलापन स्वाभाविक
नहीं लगता। क्या मेरठ जैसे शहर में दाद और पोते के बीच लड़की,शराब और अन्य
मर्दाना हंसी-मजाक चलते हैं? लेखक-निर्देशक ने
यह अतिछूट ली है। शादी के पहले टीटू के झार में स्वीटी का रातें बिताना भी सामान्य
नहीं है। दृश्यों की जरूरत के किसाब से कभी यह परिवार संयुक्त हो जाता है। कभी
सोनू और टीटू का हो जाता है। तो कभी दादा और उनके दोस्त सरीखे साले
का...बहरहाल,सोनू,टीटू और स्वीटी के बीच एक त्रिकोण बनता है। यह समद्विबाहु त्रिकोण
है,जिसका आधार टीटू है। सोनू और स्वीटी के बीच की लड़ाई वास्तव में स्पेस की
लड़ाई है। कस्बाई दोस्तियों में किसी एक की शादी होने पर दोस्त को इस संकट से गुजरना
पड़ता है। पत्नी के घर में आते ही दोस्त की जगह पहले जैसी नहीं रह जाती। इस फिल्म
में तो संकेतों में बताया गया है कि स्वीटी का मकसद भी है। वह सोनू को चैलेंज भी
करती है कि टीटू को उससे छीन लेगी और उसे लात पड़ेगी।
लव रंजन की फिल्म में
मजेदार और अप्रत्याशित ट्वीस्ट एंड टर्न हैं। लव रंजन और राहुल मोदी ने कहानी को
रोचक बनाए रखा है। उन्होंने छूट और उड़ान भी ली है,जिन्हें नजरअंदाज किया जा
सकता है। इस फिल्म को निर्देशक के मन के मुताबिक पेश करने में कार्तिक अार्यन,सनी
सिंह ऑर नुसरत भरूचा ने पूरा योगदान किया है। सहयोगी किरदारों के रूप में आए सभी
कलाकार अपनी भूमिकाओं से कुछ न कुछ जोड़ते हैं। नुसरत भरूचा और कार्तिक आर्यन की
भिड़ंत उनके किरदारों को अतिरिक्त आयाम और परफारमेंस के मौके देती है। कर्तिक इस
फिल्म में पारंपरिक नायक नहीं हैं। कई बार वे खल चरित्र के रूप में उभते हैं। उन्हें
खल और नेक की पतली रस्सी पर चलना है। उन्होंने अपने किरदार का बेसिक संतुलन बनाए
रखा है। उनकी खीझ और मुस्कराहट दोनों प्यारी लगती है।
इस फिल्म में सात
गीतकार और संगीतकार हैं। मेरठ और दिल्ली के बीच चल रही इस फिल्म में पंजाबी
तड़के का संगीत है। इन दिनों ज्यादातर हिंदी फिल्मों में पंजाबी बोलों का संगीत
लोकप्रिय हो रहा है। निर्माता-निर्देशक उन्हें जरूरी मानते हैा,लेकिन वह फिल्म
के मूल मिजाज को खंडित करता है।
अवधि – 140 मिनट
साढ़े तीन स्टार ***1/2
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