सिनेमालोक : बायोपिक नहीं है पैडमैन
सिनेमालोक
बायोपिक नहीं है पैडमैन
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले हफ्ते रिलीज हुई अक्षय कुमार की चर्चित फिल्म 'पैडमैन' अरुणाचलम
मुरुगनंतम के
जीवन और कार्य पर आधारित होने के बावजूद उनकी बायोपिक नहीं है। हालांकि रिलीज के पहले के प्रचार
में अरुणाचलम के निरंतत उल्लेख
और प्रचार अभियान व विशेष शो में उनकी भागीदारी से यह अहसास होता रहा कि यह फ़िल्म उनकी बायोपिक हो सकती है। प्रदर्शन
के बाद पता चला कि यह मध्यप्रदेश
के मालवा इलाके लक्ष्मीकांत चौहान की कहानी है। फ़िल्म के सारे प्रसंग अरुणाचलम के जीवन से लेकर लक्ष्मीकांत पर
आरोपित कर दिए गए हैं। इस प्रयोग
या प्रयास के बारे में सही जानकारी निर्देशक आर बाल्की या निर्माता और मूल लेखिका ट्विंकल खन्ना दे सकती हैं। इतना
स्पष्ट है कि अरुणाचलम की सहमति
और सहयोग के बावजूद फ़िल्म तमिलनाडु के कोयम्बटूर के उस साहसी व्यक्ति की नहीं है,जिसने
सैनिटरी नैपकिन के सस्ते उत्पादन और बिक्री में क्रांति ला दी थी। मालवा के लक्ष्मीकांत की कहानी के रूप में
यह अरुणाचलम के महती योगदान
का निषेध कर देती है। फिल्में भी इतिहास रचती हैं। पांच-छह दशकों के बाद के दर्शकों के लिए 'पैडमैन' अरुणाचलम
की कहानी नहीं होगी।
रोचक होने के बावजूद निर्माता-निर्देशक ने अरुणाचलम की
कहानी को उनके परिवेश में
नहीं दिखाने का फैसला किया। क्रिएटिव चुनौतियों और दिक्कतों से बचने के लिए ऐसा किया होगा। हिंदी फिल्म के नायक के रूप में
दक्षिण भारतीयों को नायक
के रूप में दिखाने की परंपरा नहीं रही है। गिनी-चुनी प्रेम कहानियों और प्रहसनों में दक्षिण के नायक और चरित्र दिखे हैं।
मुझे याद नहीं कि दक्षिण
के किसी मशहूर या नामालूम चरित्र को लेकर कोई हिंदी फिल्म बनी हो। 'बाहुबली' को
इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वह अपवाद है। दक्षिण की अभिनेत्री सिल्क स्मिता से प्रेरित ' द डर्टी पिक्चर' की
नायिका को भी मुंबइया
रंग-ढंग में फल दिया गया था। दक्षिण भारत में ही अरुणाचलम के किरदार को रखने पर भाषा,वेशभूषा और परिवेश में में भी दक्षिण की खासियतों का ख्याल रखना पड़ता। मुमकिन है अक्षय कुमार को
अरुणाचलम के रूप में हम पसंद नहीं
करते। यूँ हिंदी फिल्मों के बायोपिक में चेहरे के मिलान पर ज़ोर नहीं दिया जाता।अगर दक्षिण के किसी एक्टर को लेकर फ़िल्म
बनती तो वैसी स्थिति में मुख्य
रूप से हिंदी दर्शकों के लिए बन रही इस फ़िल्म की स्वीकृति 'पैडमैन' जैसी
नहीं हो पाती। और फिर अरुणाचलम को उनके व्यक्तित्व के साथ उत्तर भारत में दिखाना असंगत होता। स्पष्ट रूप से इन कारणों की
वजह से निर्माता-निर्देशक
ने फ़िल्म की कथाभूमि को स्थानांतरित कर उत्तर भारतीय चरित्र भर दिए गए। उनके इस कार्य में स्वानंद
किरकिरे ने भरपूर मदद की। स्वानंद
इंदौर के हैं। उन्होंने 'पैडमैन' को स्थानीय रंग दिया।
'पान सिंह
तोमर' की
सफलता और सराहना के बाद हिंदी फिल्मों में बायोपिक का रुझान बढ़ा है। खासकर खिलाड़ियों के जीवन पर अनेक बायोपिक
आये। उनकी ज़िंदगी पर बनी फिल्मों
में विवाद की संभावनाएं कम रहती हैं। 'मैरी
काम','अज़हर', 'एम एस धोनी' और 'दंगल' जैसी बायोपिक में संबंधित खिलाड़ियों का समर्थन रहा। दर्शकों को ये फिल्में थोड़ी-बहुत पसंद आईं,लेकिन सवाल किए गए कि उनके जीवन और खेल के विवादास्पद पहलुओं को निर्देशको ने क्यों
पर्दे में रख दिया? दरअसल,सामान्य नायक अपनी उपलब्धियों के बावजूद बायोपिक
फिल्मों के विषय नहीं
बन पाते। सामान्य जीवन से निकले नायकों में केवल 'माझी' का उल्लेख
किया जा सकता है। अभी तक हिंदी के फिल्मकार सामान्य
नायकों के जीवन पर फिल्में
बनाने की कोशिशें नहीं कर रहे हैं। विकास बहल की 'सुपर
30' पटना
के चमत्कारी
शिक्षक आनंद कुमार के जीवन पर बन रही है। कुछ और फिल्मों की योजनाओं की खबरे आ रही हैं।
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