अनूराग कश्यप से बातचीत जनवरी 2018
आंज रिलीज हुई मुक्काबाज़
पर अनुराग कश्यप से हुई बातचीत। यह बातचीत इसी पुस्तक से ली गई है। अनुराग ने इस
पुस्तक में फिल्मों में आने को उत्सुक और इच्छुक प्रतिभाओं को हिदायतें और सलाह
दी हैं। आप सभी के लिए यह पतली पुस्तक उपयोगी और प्रेरक हो....
अनुराग कश्यप मुक्काबाज़ के बारे में
मुक्काबाज में राजनीति है –अनुराग कश्यप
-अजय ब्रह्मात्मज
- आप के करिअर की यात्रा में यह फिल्म कहां
ठहरती है?
0 मेरे लिए यह फिल्म बहुत मायने रखती है। यह एक
नई कोशिश है। बहुत सारी चीजों को बहुत ही सोच-समझ के फिल्म से दूर रखा है। मैा
चाहता हूं कि फिल्म लोगों तक पहुंचे। आम दर्शकों तक पहुंचे। उसकी पहुंच बढ़े।
सचेत रूप से यूए सर्टिफिकेट के हिसाब से फिल्म बनाई है। बहुत कुझ कहना भी चाहता
हूं। बहुत जरूरी है यह देखना कि अभी हमारा जो सामाजिक-राजनीतिक ढांचा बन गया है,उसमें
कोई भी कहीं भी किसी भी बात का बुरा मान जाता है। खड़ा हो जाता है। लड़ने लगता है।
हम जिन दायरों और बंधनों को भूल चुके थे। खुल कर फिल्में बना रहे थे। वापस उन
दायरों में डाल दिया गया है। जाति है,मजहब है और भी वर्ग और समुदाय हैं। हम ने खुद
को बांध लिया है। कहीं न कहीं हम अपनी सोच से किसी भाव के लिए दूसरों पर उंगली
उठाते हैं। उस विरोध को लकर हम अपने-अपने झ़ुड बना ले रहे हैं। वे सारी चीजें हैं।
फिर खेल को लेकर ढेर सारी बातें हैं। खेल और कला...यह फिल्म खेल पर है,लेकिन मैं
कला(सिनेमा,साहित्य आदि) को भी समेटूंगा। इन चीजों को नकार दिया गया है। इन्हें
तवज्जों नहीं दिया जा रहा है। यों व्यवहार हो रहा है,जैसे इनका कोई महत्व ही
नहीं है। कुछ हो जाता है। कोई जीत का आता है तो सभी उसका भरपूर फायदा उठाते हैं।
उसके पहले की र्जी में सरकारी और सामाजिक संस्थाएं गायब रहती हैं। ऐसी स्थिति में
हम कैसे किसी मुकाम पर पहुचेंगे? फिल्म बनाने का यह
भी कारण है।
- यह आपकी सबसे अधिक प्रभाव की राजनीति फिल्म
है। क्या शुरू से ही यह सोच रखा था?
0 राजनीति तो थी ही। खेल में भयंकर राजनीति होती
है। मेरी फिल्मों में किरदार होते हैं। उनके नाम होते हैं। वे किसी जगह से आते
हैं। अपने नाम और जगह की वजह से आज के समय में उसकी राजनीति पहचान और अपनी राजनीति
होगी। आकल तो आलू-प्याज और दाल के भाव में भी राजनीति है। पानी और पानी के बातल
में भी राजनीति है। राजनीति से आप मुंह नहीं चुरा सकते। देश की 70 से 80 प्रतिशत
जनता यह समझती है कि हमारा राजनीति से क्या लेना-देना? हमारी समस्या तो सर्वाइवल है। लेकिन राजनीति इस
तरह समाज के गश-गश में घुस चुकी है। हर आदमी जागरुक हो गया है। हम अपने साथ धर्म
और जाति को लकर चल रहे हैं। पहले की तरह यह सहज जिज्ञाा नहीं है। पता चलते ही आप
को जज किया जाता है। देश को लेकर हम कहां खड़े हैं? हम
अपनी देशभक्ति और राष्ट्रीयता को पहन कर चलने लगे हैं। दबाव बढ़ गया है। सभी ने
अपनी पहचान सीने पर टांक रखी है तो हमें लगता है कि हमें भी पहन कर चलना होगा।
सबसे ज्यादा भय तब लगता है,जब सिनेमाघर में ‘प्लीज स्टैाड इन तेसपेक्ट ऑफ
नेशनल एंथम’ का स्लाइड आता है।हम हड़बड़ कर खड़े होते हैं कि कहीं हम बैठे हुए न
दिख जाएं। हम झटके से उठते हैं। अब तो फिल्म के बीच में ‘जन गण मन’ आ जाए तो भी
लोग उठते हैं। अगल-बगल में देखते हैं। यह राष्ट्र के सम्मान में नहीं भय से हो
रहा है। यह अंदर से नहीं आ रहा है। ये चीजे विचलित करती हैं। उन्हें दिखाना और उन
पर कमेंट करना जरूरी है कि देखों क्या हो रहा है? सब कुछ
बेचा जा रहा है। धर्म,राष्ट्रीयता,देशभक्ति,जातिहर चीज बेची जा रही है।
- असप खुद को हमेशा अराजनीतिक कहते रहे हैं। आप
के दैनिक जीवन में राजनीति झ काव नहीं
दिखता है। फिर भी मैंने पाया है कि आप हमेशा सिस्टम के विरोध में नजर आते हैं...
0 सरकार और सिस्टम के साथ मेरी जद्दोजहद चलती
रहती है। अब सरकार किस पार्टी की है... इससे अधिक फर्क नहीं पड़ता। जिस भी पार्टी
की सरकार हो,उससे मेरी नागरिक के तौर पर अपेक्षाएं रहती हैं। अपेक्षा रहती है कि
बदलाव आएगा। हमरा जीवन आसान होगा। कुछ नया होगा। होता कुछ नहीं है। फिर लगता है कि
किसी भी पार्टी की सरकार हो,चीजें वैसी ही चलती रहती हैं। सेंसरशिप की वही लड़ाई
चलती आ रही है। हर बार बात होती है कि हम इसको बदजेंगे,लकिन वही ढाक के तीन पात।
मुझे 17 साल हो गए। कुछ भी तो नहीं बदला,बल्कि और बदतर हुआ है। एक पाइंट के बाद हर
चीज के लिए लड़ना पड़ता है।
- आप की फिल्मों में यथास्थिति का सपोट्र नहीं
दिखता। आप बलाव के लिए मुखर भले ही न हों,लेकिन धारणा और परिभाषा बदली सी दिखती
है। ‘मुक्काबाज़’ में भी यह है। इस बार मुखर हैं। आप सभी फांकों और विरोधाभासों
को दिखा-बता रहे हैं...
0 बात करना जरूरी हो गया है। उन विरोधाभासें और
फांकों का दिखाना जरूरी हो गया है कि उनमें क्या-क्या धंस रहा है। उनकी परछाई से
बढ़ता अंधेरा सभी के अंदर घर बना रहा है। खेल की बात करें तो खिलाड़ी जान लगा देते
हैं। और कुछ होता नहीं है। वे किसी न किसी राजनीति के शिकार होकर रह जाते हैं। ये
खिलाड़ी किस तबके के हैं। कुछ खेल उच्च् वर्गो तक सीमित है जैसे गोल्फ। वे अपने
पैसों से ही सब इंतजाम करते हैं। अगर कोई गोल्फ जीत कर आ जाए तो देश उसे भुनाने
लगता है। बाकी खेलों में हम जीत के मुकाम तक पहुंचाने में भी साथ नहीं देते। ऐसे
खेलों में तो नौकरी के लालच में लोग घुसते हैं। वे पढ़ाई में अच्दे नहीं होते। खल
के कोटा से नौकरी पाने की कोशिश करते हैं। खेल में पैशन का अभाव है। बाहर खेलने के
लिए खेलते हैं। वे खेल में आगे बढ़ते हैं। उन्हें पूरा सपोर्ट मिलता है। उन्हें
सुविधा दी जाती है। प्रोत्साहित किया जाता है। हमारे यहां भी सुविधाएं है,लेकिन
आप उन्हें हासिल नहीं कर सकते।
- ‘मुक्काबाज़’ में खेल का रूपक है। साथ में
प्रेमकहानी है। यह फिल्म कहीं न कहीं ‘गैाग्स ऑफ वासेपुर’ से अलग सामाजिक आयाम
पेश करती है। हर स्तर पर चीजें उद्घाटित् होती हैं।
0 फिल्म में एक किरदार ब्राह्मण होने के गुरूर
में है। बाकी ब्राह्मण नार्मल जिंदगी जी रहे हैं। एक दूसरा छोटी जाति का है। वह
नौकरी में ऊपर आ गया है तो वह भी गुरूर में है। उसे गुरूर है कि उुंची जाति का कोई
उसके अधीन काम कर रहा है। वह पुश्तैनी शोषण और दमन का हिसाब अपने अधीनस्थ से कर
लेना चाहता है। पिछले 20 सालों में सत्तर भारत में यह तेजी से हुआ है। यह एक सच्चाई
बन चुकी है। सभी अपनी जाति पकड़ कर बैठे हुए हैं। उससे आगे नहीं निकलना नहीं
चाहते। पहले भी जाति और गोत्र पूछते थे,लेकिन जिज्ञासा की वजह कुछ और होती थी।
’ अपनी फिल्म की कास्टिंग के बारे में बताएं?
0 विनीत तो पहले से थे। उनकी वजह से ही फिल्म
बनी। कास्टिंग करते समय मैंने यह खयाल रखा कि उन्हीं कलाकारों को लें,जिनके संबंध
उत्तरप्रदेश से हों। वहां की जमीन से जुड़ाव हो। जिम्मी शेरगिल उत्तरप्रदेश की
पैदाईश है। उनकी पढ़ाई-लिखाई लखनऊ में हुई है। फिल्म में बहुत बारीक चीजे हैं।
जिन्हें उधर के ही कलाकार समझ सकते थे। अगर वे किरदारों को समझ लेंगे तो वह फिल्म
में दिखेगा1 विनीत बहुत जुनूनी आदमी है। उसने वह कर दिया,जो कोई और नहीं कर पाता।
विनीत ने खुद को एक साल के लिए झोंक दिया। उसकी वजह से फिल्म उठ गई है। मैंने तो
यही कहा था कि बॉक्सर बन जाओ तो फिल्म बन दूंगा। वह बॉक्सर बन गया तो फिल्म
बनानी ही थी। मुझे मालूम था कि इस फिल्म के लिए पैसे बाजार से नहीं मिलेंगे।
बॉक्सिंग की कोरियोग्राफी और दूसरे एक्टर्स को बॉक्सर की ट्रेनिंग देने के लिए
पैसे नहं थे।इरादा था कि विनीत बॉक्सर की ट्रेनिंग ले लें तो असली बॉक्सर से उन्हें
लड़ा देंगे। कोरियोग्राफर और एक्टर्स के पैसे बच जाएंगे। जोया हसन ने साइन लैंग्वेज
सीखी।
- आपकी नायिका गूंगी तो है,बहरी नहीं है...
0 वैसा जानबूझ कर रखा। ऐसा होता नहीं है। वह अपने
आप में एक स्टेटमेंट है। उत्तरप्रदेश की लड़कियों में देखा हे। वे सब सुनती हैं।
उनके विचार भी हैं। वे कह भी सकती हैा,लेकिन कुछ कहने की अनुमति नहीं है। इसलिए
मैाने किरदार को गूंगा बनाया।
Comments