सिनेमालोक : फिल्मों में गांधीजी
सिनेमालोक
फिल्मों में गांधीजी
-अजय ब्रह्मात्मज
आज से ठीक 70 साल पहले 30 जनवरी को महात्मा
गांधी की नियमित प्रार्थना सभा में नाथूराम गोडसे ने उन पर तीन गोलियां चलाई थीं।
‘हे राम’ बोलते हुए गांधी जी ने अंतिम सांसें ली थीं और उनकी इहलीला समाप्त हो गई
थी। इसके बावजूद सत्तर सालों के बाद भी महात्मा गांधी व्यक्ति और विचार के रूप
में आज भी जिंदा हैं।
हर भारतीय अपने दैनंदिन जीवन में उनसे मिलता है।
उनकी छवि देखता है। जाने-अनजाने उन्हें आत्मसात करता है। राष्ट्रपिता के तौर पर
वे चिरस्मरणीय हैं। भारतीय नोट पर अंकित उनका चित्र मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल
होता है। लगभग हर शहर में एक महात्मा गांधी मार्ग है। शहर के किसी नुक्कड़ या
चौराहे पर विभिन्न आकारों में उनकी प्रतिमाओं के भी दर्शन होते हैं। भारतीय समाज
में भगवान बुद्ध,महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमाएं सबसे ज्यादा
प्रचलित हैं। शेष दोनों से विशेष दर्जा हासिल है महात्मा गांधी को। उनकी तस्वीरें
कोर्ट-कचहरी,थाने,दफ्तर,सरकारी कार्यालयों,स्कूल-कालेज और अन्य सार्वजनिक जगहों
पर भी दिखाई पड़ती हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब भारतीय नागरिक गांधी का
दर्शन न करता हो। उनके विचारों को भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हम ने जीवन
में अपनाया है। फिल्मों में गांधी किसी न किसी रूप में बार-बार आते रहे हैं।
गांधी अपने कद्दावर व्यक्त्त्वि और प्रभाव के
साथ लोकप्रिय छवि के कारण फिल्मकारों को प्रभावित करते रहे हैं। उनके जीवनकाल में
ही उनसे प्रेरित फिल्में बनने लगी थीं। गांधी 1915 में भारत लौटे। देश के स्वतंत्रता
आंदोलन में सक्रिय गतिविधि और सोच से उन्होंने तत्कालीन नेताओं के साथ व्यापक
जनसमूह को भी आकृष्ट किया। सनू् 1921 में ही आई कोहिनूर फिल्म कंपनी की ‘संत
विदुर’ में विदुर के चरित्र को गांधी के हाव-भाव और वेशभूषा से प्रभावित दिखाया
गया था। सेंसर बोर्ड ने निर्देशक कांजीभाई राठौड़ की मंशा समझ ली थी और फिल्म पर
पाबंदी लगा दी थी। आजादी के पहले की फिल्मों में महात्मा गांधी के जीवनकाल में उनके
व्यक्त्त्वि और विचारों की छटा से प्रभावित किरदार गढ़े जाते रहे।
फिल्मों में गांधी मुख्यत: तीन रूपों में दिखाई
पड़ते हैं। पहला उनका प्रत्यक्ष रूप है,ऐसी फिल्में महात्मा गांधी के जीवन पर
बनी हैं। इनमें रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’(1982) और श्याम बेनेगल की ‘द मेकिंग ऑफ
महात्मा’ प्रमुख हैं। इन दोनों फिल्मों को आगे-पीछे देख लें तो महात्मा गांधी
का व्यक्त्त्वि और कृतित्व दोनों ही समझ में आ जाता है। रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’
में उनके राजनीतिक व्यक्तित्व की सक्रियता है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में
उनकी निर्णायक भूमिका का अंदाजा लगता है। श्याम बेनेगल ने उनके अफ्रीका प्रवास को
ध्यान में रखा। उन्होंने गांधी के महात्मा बनने की कहानी को चित्रित किया है।
इनके अलावा गांधी के निजी जीवन का एक पहलू फिरोज खान की फिल्म ‘गांधी माय फादर’ में
अच्छी तरह आया है। बेटे हरिलाल के साथ उनके विषम संबंधों को लेकर चलती यह फिल्म
एक पिता और सार्वजनिक व्यक्ति का द्वंद्व पेश करती है। गांधी का दूसरा रूप उनके
समकालीनों के जीवन पर बनी फिल्मों में चित्रित हुआ है। इन फिल्मों में फिल्मकारों
ने संबंधित व्यक्तियों के संदर्भ में गांधी को पेश किया है। खास कर उन व्यक्तियों
से गांधी के संबंध और रवैए पर फोकस किया गया है। तीसरा रूप गांधी के विचारों यानी
गांधीवाद का है। इन फिल्मों में गांधी के विचारों को फिल्म की थीम से जोड़ा गया
है। इसका सफल उदाहरण राजकुमार हिरानी निर्देशित ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ है। राजनीतिक
रूप से सचेत यह फिल्म कॉमिकल अंदाज में आज के समय में गांधी को पेश करती है। इस
फिल्म में राजकुमार हिरानी ने फिल्म के किरदारों के मिजाज के मेल में ‘गांधीगिरी’
शब्द का इस्तेमाल किया था। आशुतोष गोवारीकर की ‘स्वदेस’ में फिल्म का नायक
गांधी के विचारों से प्रभावित है। जानू बरुआ ने ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ में
गांधी को नया संदर्भ दिया है। हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं की फिल्मों में गांधी
आते रहे हैं।
मजेदार तथ्य है कि
महात्मा गांधी ने अपने जीवनकाल में केवल एक फिल्म देखी थी। वे सिनेमा को बुरा
माध्यम मानते थे। उनके इस पक्ष का ख्वाजा अहमद अब्बास ने संबोधित किया था। उन्होंने
महात्मा गांधी के नाम लिखे खुले पत्र में उनसे आग्रह किया था कि वे इस माध्यम को
समझें और अपनी सहानुभूति दें। अगर गांधी ने फिल्म माध्यम की आवश्यकता पर जोर
दिया होता और उसके लिए राजी हुए होते तो फिल्में भी थोड़ी बदली होतीं।
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