फिल्म समीक्षा : रुख
फिल्म रिव्यू
भावपूर्ण
रुख
-अजय ब्रह्मात्मज
पहली बार निर्देशन कर रहे अतानु मुखर्जी की ‘रुख’ हिंदी फिल्मों के किसी
प्रचलित ढांचे में नहीं है। यह एक नई कोशिश है। फिल्म का विषय अवसाद,आशंका,अनुमान
और अनुभव का ताना-बाना है। इसमें एक पिता हैं। पिता के मित्र हैं। मां है और दादी
भी हैं। फिर भी यह पारिवारिक फिल्म नहीं है। शहरी परिवारों में आर्थिक दबावों से
उत्पन्न् स्थिति को उकेरती यह फिल्मे रिश्तों की परतें भी उघाड़ती है। पता
चलता है कि साथ रहने के बावजूद हम पति या पत्नी के संघर्ष और मनोदशा से विरक्त हो
जाते हैं। हमें शांत और समतल जमीन के नीचे की हलचल का अंदाजा नहीं रहता। अचानक
भूकंप या विस्फोट होने पर पता चलता है कि ाोड़ा ध्यान दिया गया होता तो ऐसी
भयावह और अपूरणीय क्षति नहीं होती।
फिल्म की शुरूआत में ही डिनर करते दिवाकर और पत्नी
नंदिनी से हो रही उसकी संक्षिप्त बातचीत से स्पष्ट हो जाता है कि दोनों का
संबंध नार्मल नहीं है। दोनों एक-दूसरे से कुछ छिपा रहे हैं। या एक छिपा रहा है और
दूसरे की उसमें कोई रुचि नहीं है। संबंधों में आए ऐसे ठहरावों को फिल्मों में
अलग-अलग तरीके से चित्रित किया गया। हिंदी साहित्य में नई कहानी के दौर में ऐसे
विचलित अौर आत्महंता नायकों से हम मिलते रहे हैं। हालांकि समय अभी का है,लेकिन
चरित्र चित्रण और प्रस्तुति में ‘रुख’ किसी साहित्यिक रचना की तरह सब कुछ रचती है। यह इस फिल्म की
खूबी है। ‘रुख’ किसी
कविता की तरह हमारे सामने उद्घाटित होती है। शब्दों और पंक्तियों में कहे गए भाव
के अतिरिक्त भी निहितार्थ हैं,जिन्हें दर्शक अपनी समझ और स्थिति के अनुसार ग्रहण
कर सकता है।
इस फिल्म का मुख्य किरदार बेटा ध्रुव है। पिता की
आकस्मिक मौत के बर वह घर लौटता है तो उसे संदेह होता कि पिता की मौत किसी दुर्घटना
की वजह से नहीं हुई है। उसे आरंभिक संदेह है कि पिता के दोस्त(कुमुद मिश्रा) ने
ही उनकी हत्या करवाई है और उसे एसीडेंट की शक्ल दे दी है। निजी तहकीकात से वह
पिता और परिवार के सत्य से परिचित होता है। हॉस्टल में रहने की वजह से वह पारिवारिक
संकट से नावाकिफ है। यह फिल्म ध्रुव के नजरिए से पिता को समझती और नतीजों पर
पहुंचती है। अतानु मुखर्जी ने इसे थ्रिलर का रूप नहीं दिया है। थोड़ी देर के लिए ‘रुख’ थ्रिलर होने का रोमांच देती
है। फिर वि बाहरी घटनाओं से अधिक मानसिक उद्वेलन पर टिकी रहती है। हम दिवाकर के
पिता और मां से भी परिचित होती हैं। मां नंदिनी की खामशी और स्थिर आंखें बहुत कुछ
बयान करते हैं। अपने पति की हकीकत से वाकिफ होने पर वह भी हैरान होती है। पति के
नहीं रहने और सच जानने के आ बेटा उसकी चिंता है,मगर बेटा पिता की मौत के कारणों की
तह में पहुंचना चाहता है।
पिता और बेटे के किरदारों में मनोज बाजपेयी और आदर्श
गौरव ने निर्देशक अतानु मुखर्जी के अभीष्ट को मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया
है। मनोज बाजपेयी के बारे में अलग से लिखने की जरूरत नहीं है। वे हर किरदार को
उसके वास्तविक हाव-भाव के साथ पेश करते हैं। हां,आदर्श् गौरव चौंकाते हैं। मां
नंदिनी की भूमिका में स्मिता तांबे आवश्यक भाव जगाने में सक्षम हैं। उन्हें
बोलने से अधिक जाहिर करना था। उन्हों यह काम बखूबी किया है। कुमुद मिश्रा बड़े ही
किफायती एक्टर हैा। बिना ताम-झाम और मेलोड्रामा के वे अपने एक्सप्रेशन से मिले
किरदार को सजीव कर देते हैं।
यहां निर्माता मनीष मुंद्रा की भी तारीफ करनी होगी कि
वे एक के बाद एक ऐसी फिल्मों में विश्वास के साथ निवेश कर रहे हैं।
अवधि – 106 मिनट
***1/2
साढ़े तीन स्टार
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