रोज़ाना : मामी हो चुका है नामी
रोज़ाना
मामी हुआ चुका है नामी
-अजय ब्रह्मात्मज
आज से दस साल पहले इफ्फी (इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल
ऑफ इंडिया) के वार्षिक आयोजन के लिए देश भर के सिनेप्रेमी टूट पड़ते थे। उन दिनों
केंद्रीय फिल्म निदेशालय का यह यह आयोजन एक साल दिल्ली और अगले साल दूसरे शहरों
में हुआ करता था। गोवा में इफ्फी का स्थायी ठिकाना बना और उसके बाद यह लगामार
अपना प्रभाव खोता जा रहा है। अभी देश में अनेक फिल्म फेस्टिवल आयोजित हो रहे हैं।
उनमें से एक मामी(मुंर्अ एकेडमी आॅफ मूविंग इमेजेज) है। इस साल 19 वां फिल्म
फेस्टिवल आयोजित हो रहा है। इस आयोजन के लिए देश भर के सिनेप्रेमी मुंबई धमक रहे
हैं।
दोदशक पहले मुंबई के फिल्म इंडस्ट्री की हस्तियों और
सिनेप्रेमियों को फिल्म फस्टिवल का खयाल आया। इफ्फी में नौकरशाही की दखल और
गैरपेशवर अधिकारियों की भागीदारी से नाखुश सिनेप्रेमियों और फिल्मकारों का इसे
पूर्ण समर्थन मिला। उन्हें यह एहसास भी दिलाया गया कि यह फेस्टिवल सिनेमा के
जानकारों की देखरेख में संचालित होता है। उसका असर दिखा। फिल्मों के चयन से लेकर
विदेशी फिल्मकारों और कलाकारों की शिरकत में दुनिया के नामी व्यक्तियों को
निमंत्रित किया गया। देश के स्वतंत्र निर्माताओं की फिल्मों को तरजीह दी गई। 21
वीं सदी में उभर रही नए तेवर की फिल्मों को इस फेस्टिवल में सम्मान मिला। नतीजा
यह हुआ कि प्रतिष्ठा और लोकप्रियता में मामी ने इफ्फी का स्थान हासिल कर लिया।
अब यह फेस्टिवल देश भर के सिनेप्रेमियों के सालाना कैलेंडर में शामिल है।
जरूरी है कि मामी की तरह के फिल्म फस्टिवल देश की
प्रमुख शहरों में आयोजित हों। उनमें कलाकार और फिल्मकार भी शामिल हों। सिनेमाई
चेतना के बाद ही फिल्मों का संस्कार हो सकता है। हम रोना राते रहते हैं कि हिंदी
और अन्य भारतीय भाषाओं में अच्छी फिल्में नहीं बन रही हैं। गौर करें तो भारतीय
समाज और मीडिया में सिनेमा को कभी आदर से देखा ही नहीं गया। सिनेमा का मतलब गॉसिप
और रसदार खट्टी-मीठी कहानिसां हो गई हैं। इन दिनों तो कलाकारों के अभिनय और श्ल्पि
से अधिक उनकी जीवनशैली पर बातें होती हैं। ऐसे माहौल में बेहतर सिनेमा का विकास
असंभव है। दर्शक तो कम होंगे ही।
अभी तकनीकी सुविधाओं की वजह से हर कोई विश्व भर का
सिनेमा घर बैठे देख सकता है। सवाल होता है कि फिर फिल्म फेस्टिवल के आयोजन में क्या
तुक है? तुक है। फिल्म फस्टिवल में दर्शकों
की साूहिकता और फिल्मों के बारे में चल रही चर्चाएं और गोष्ठियां हमारे रसास्वादन
को समृद्ध करती हैं। हमें बेहतर फिल्में देखना और उन्हें सराहना सिखाती हैं।
जागरण फिल्म फेस्टिवल के तहत 16 शहरों में दर्शकों से मेलजोल में मैंने पाया है
कि वे लाभान्वित होने के साथ मुखर भी होते हैं। वे सिनेमा के प्रति सीरियस होते
हैं। और कुछ तो फिल्में बनाने के लिए निकल पड़ते हैं।
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