फिल्म समीक्षा - जुड़वां 2
फिल्म रिव्यू
जुड़वां 2
-अजय ब्रह्मात्मज
20 साल पहले ‘9 से 12 शो चलने’ के आग्रह और ‘लिफ्ट तेरी बद है’ की शिकायत का मानी बनता था। तब शहरी लड़कियों के लिए 9 से 12
शो की फिल्मू के लिए जाना बड़ी बात होती थी। वह मल्टीप्लेक्स का दौर नहीं था।
यही कारण है कि उस आग्रह में रोमांच और शैतानी झलकती थी। उसी प्रकार 20 साल पहले
बिजली ना होने या किसी और वजह से मैन्युअल लिफ्ट के बंद होने का मतलब बड़ी लाचारी
हो जाती थी। पुरानी ‘जुड़वां’ के ये गाने आज भी सुनने में अच्छे लग सकते हैं,लेकिन लंदन
में गाए जा रहे इन गीतों की प्रसंगिकता तो कतई नहीं बनती। फिर वही बात आती है कि
डेविड धवन की कॉमडी फिल्म में लॉजिक और रैलीवेंस की खोज का तुक नहीं बनता।
हिंदी फिल्मों के दर्शकों को अच्छी तरह मालूम है कि
वरुण धवन की ‘जुड़वां 2’ 1997 में आई सलमान खान की ‘जुड़वां’ की रीमेक है। ओरिजिनल और रीमेक दोनों के डायरेक्टर एक ही
निर्देशक डेविड धवन है। यह तुलना भी करना बेमानी होगा कि पिछली से नई अच्छी या
बुरी है। दोनों को दो फिल्मों की तरह देखना बेहतर होगा।सलमान खान,करिश्मा कपूर
और रंभा का कंपोजिशन बरुण धवन,तापसी पन्नू और जैक्लीन फर्नाडिस से बिल्कुल अलग
है। दसरे इस बार पूरी कहानी लंदन में है। और हो,बहनों की भूमिकाएं छांट दी गई हैं।
डेविड धवन ने पूरी फिल्म का फोकस अपने बेटे वरुण धवन पर रखा है। कोशिश यही है कि
वह ‘जुड़वां 2’ से सनमान खान के स्टारडम की लीग में आ जाए। अगर यह औसत फिल्म
आम तरुण दर्शकों को पसंद आ गई तो वरुण अपनी पीढ़ी के पहले सुपरस्टार हो जाएंगे।
फिल्म नाच-बानों और उछल-कूद से भरी है। सभी किरदार
लाउड हैं। उनके बीच एक कंपीटिशन सा चल रहा है। यहां तक कि दो मिजाज के प्रेम और
राजा भी आखिरकार लगभग एक जैसी छिदोरी हरकत करने लगते हैं। हिंदी फिल्मों का यह
दुर्भाग्य ही है कि हमें छिदोरे नायक ही पसंद आते हैं। ऐसे नायक फिल्म की
नायिकाओं को तंग करते हैं। छेड़खानी उनका पहला स्वभाव होता है। इन नायकों के लिए
नायिका किसी वस्तु से अधिक नहीं होती। इसके अलावा फिल्म में दूसरे
किरदारो(मोटे,तोतले,अफ्रीकी आदि) का मजाक उड़ाने में कोई झेंप नहीं महसूस की जाती।
नस्लवादी और पुरुषवादी टिप्पणियों पर हंसाया जाता है। इस लिहाज से ‘जुड़वां 2’ पिछड़े खयालों और शिल्प की
फिल्म है।
वरुण धवन ने प्रेम और राजा के जुड़वां किरदारों में
अलग होने और दिखने की सफल कोशिश की है। दोनों भाइयों की आरंभिक भिन्नता एक समय के
बाद घुलमिल जाती है। कंफ्यूजन बढ़ाने और हंसी लाने के लिए शायद स्क्रीनप्ले की
यही जरूरत रही होगी। वरुण धवन की मेहनत बेकार नहीं गई है। फिल्म की सीमाओं में
उन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया है। वे तरुण दर्शकों को लुभाने की हर कोशिश करते
हैं। तापसी पन्नू तो डेविड धवन की ही खोज हैं। बीच में दमदार भूमिकाओं की कुछ
फिल्में करने के बाद वह अपने मेंटर की फिल्म में लौटी हैं,जो स्टारडम की तरफ
उनका सधा कदम है। उन्होंने हिंदी फिल्मों की सफल स्टार होने के सभी लटके-झटके
अपनाए हैं। वे बेलौस तरीके किरदार से नहीु जुड़ पातीं। इस मामले में जैक्लीन
फर्नांडिस आगे हैं। जैक्लीन की सबसे बड़ी दिक्क्त और सीमा है कि वह प्रियंका
चोपड़ा की नकल करती रहती हैं। लंबे समय के बाद लौटे राजपाल यादव कोशिशों के बावजूद
वरुण से उम्र में बड़े और मिसफिट लगते हैं। अनुपम खेर,जॉनी लीवर,उपासना सिंह,मनोज
पाहवा और सचिन खेडेकर इस फिल्म को बासी बनाते हैं। दर्शक इनके एकरंगी अभिनय से
उकता चुके हैं। यकीन करें इनकी जगह नए कलाकार होते तो दृश्य अधिक रोचक होते।
मुबई के किरदार लंदन की परवरिश व पृष्ठभूमि के बाद जब
पंजाबी गीत के बोल और ढोल पर ठ़मके लगाते हैं तो वे ‘जुड़वां 2’ को संदर्भ से ही काट देते
हैं। हिंदी फिल्मों के निर्देशकों को पंजबी गीतों की गति और ऊर्जा के मोह से
निकलना चाहिए।
अवधि – 150 मिनट
** दो स्टार
Comments
"जन-जन के राम" (चर्चा अंक 2744)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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विजयादशमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'