फिल्म समीक्षा : न्यूटन
फिल्म रिव्यू
न्यूटन
-अजय ब्रमात्मज
अमित वी मासुरकर की ‘न्यूटन’ मुश्किल परिस्थितियों की असाधारण फिल्म है। यह बगैर किसी
ताम-झाम और शोशेबाजी के देश की डेमोक्रेसी में चल रही ऐसी-तैसी-जैसी सच्चाई को
बेपर्दा कर देती है। एक तरफ आदर्शवादी,नियमों का पाबंद और दृढ़ ईमानदारी का सहज
नागरिक न्यूटन कुमार है। दूसरी तरफ सिस्टम की सड़ांध का प्रतिनिधि वर्दीधारी आत्मा
सिंह है। इनके बीच लोकनाथ,मलको और कुछ अन्य किरदार हैं। सिर्फ सभी के नामों और
उपनामों पर भी गौर करें तो इस डेमाक्रेसी में उनकी स्थिति,भूमिका औरर उम्मीद से
हम वाकिफ हो जाते हें। ‘न्यूटन’ 2014 के बाद के भारत की डेमोक्रेसी का खुरदुरा आख्यान है।
यह फिल्म सही मायने में झिंझोड़ती है। अगर आप एक सचेत राजनीतिक नागरिक और दर्शक
हैं तो यह फिल्म डिस्टर्ब करने के बावजूद आश्वस्त करती है कि अभी तक सभी जल्दी
से जल्दी अमीर होने के बहाव में शामिल नहीं हुए हैं। हैं कुछ सिद्धांतवादी,जो
प्रतिकूल व्यक्तियों और परिस्थितियों के बीच भी कायम हैं। उन्हें दुनिया पागल और
मूर्ख कहती है।
सिंपल सी कहानी है। नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव
के लिए सरकारी कर्मचारियों की एक मंडली सुरक्षाकर्मियों के साथ भेजी जाती है।
सुरक्षाकर्मियों के अधिकारी आत्मा सिंह(पंकज त्रिपाठी) हैं। चुनाव अधिकारी न्यूटन कुमार(राजकुमार राव) हैं।
उनके साथ तीन कर्मचारियों की टीम है,जिनमें एक स्थानीय शिक्षिका मलको भी है। हम
सिर्फ न्यूटन कुमार की बैकस्टोरी जानद पाते हैं। नूतन कुमार को अपने नाम के साथ
का मजाक अच्छा नहीं लगता था,इसलिए उसने खुद ही नू को न्यू और तन को टन कर अपना
नाम न्यूटन रख लिया है। एक तो वह नाबालिग लड़की से शादी के लिए तैयार नहीं होता
है। दूसरे वह पिता की दहेज की लालसाओं के खिलाफ है। चुनाव के लिए निकलने से पहले
की एक ब्रिफिंग में अपने सवालों से वह ध्यान खींचता है। वह अधिकारी उसे बताते हैं
कि उसकी दिक्कत ‘ईमानदारी का घमंड’ है। अभी की भ्रष्ट दुनिया में सभी ईमानदार घमंडी और अक्खड़
घोषित कर दिए जाते हैं,क्योंकि वे ‘सब चलता है’ में यकीन नहीं करते। वे का्रतिकारी परिवर्तन की वकालत या
हिमायत भी नहीं करते। वे अपने व्यवहार में ईमानदारी की वजह से क्रांतिकारी हो
जाते हैं।
अमित वी मासुरकर और मयंक तिवारी की तारीफ बनती है कि
वे बगैर किसी लाग-लपेट के जटिल राजनीतिक कहानी रचते हैं। वे उन्हें दुर्गम इलाके
में ले जाते हैं। इस इलाके में नक्सली प्रभाव और सिस्टम के दबाव के द्वंद्व के
बीच जूझ और जी रहे आदि नागरिक आदिवासी हैं। उनके प्रति सिस्टम के रवैए को हम आत्मा
सिंह की प्रतिक्रियाओं से समझ लेते हैं,जबकि उनमें न्यूटन की आस्था डेमोक्रेसी
की उम्मीद देती है। हंसी,तनाव और हड़बोंग के बीच मुख्य रूप से कभी आमने-सामने
खड़े और कभी समानांतर चलते न्यूटन कुमार और आत्मा सिंह हमारे समय के प्रतिनिधि
चरित्र हैं। डेमोक्रेसी में सबसे निचले स्तर पर चल रहे खेल का उजागर करती यह फिल्म
देश के डेमोक्रेटिक सिस्टम की सीवन उधेड़ देती है। लेखकों ने किसी भी दृश्य में
संवाद या प्रतिक्रिया से यह जाहिर नहीं होने दिया है कि वे कुछ सवाल उठा रहे हैं।
यह उनके लेखन की खूबी है कि किरदारों के बगैर पूछे ही दर्शकों के मन में सवाल जाग
जाते हैं। न्यूटन कुमार का जिद्दी व्यक्तित्व राजनीतिक सवालों का जरिया बन जाता
है।
राजकुमार राव और पंकज त्रिपाठी दोनों ही 2017 की
उपलब्धि हैं। दोनों ने अपने सधे अभिनय से कई फिल्मों में बहुआयामी किरदारों को
जीवंत किया है। ‘न्यूटन’ में एक बार फिर दोनों का हुनर जलवे बिखेर रहा है। राजकुमार
राव ने न्यूटन के जटिल और गुंफित चरित्र को सहज तरीके से चित्रित किया है। किसी
भी दृश्य में वे अतिरिक्त मुद्राओं का उपयोग नहीं करते। वे उपयुक्त भावों के
किफयती एक्टर हैं। पंकज त्रिपाठी उन्हें बराबर का साथ देते हैं। पंकज की अदाकारी
देखते समय पलक झपकाने में अगर उनकी झपकती पलकें मिस हो गईं तो किरदार की बारीकी
छूट सकती है। वे अनेक दृश्यों में सिर्फ आंख,होंठ और भौं से बहुत कुछ कह जाते
हैं। अंजलि पाटिल के रूप में हिंदी फिल्मों को एक समर्थ अभिनेत्री हासिल हुई है।
किरदार में उनकी मौजूदगी देखते ही बनती है। इस फिल्म के सहयोगी किरदारों में स्थानीय
कलाकारों का स्वाभाविक अभिनय फिल्म के प्रभाव को बढ़ता है।
अवधि - 106 मिनट
**** चार स्टार
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