दरअसल : मध्यवर्गीय कलाकारों के कंधों का बोझ
दरअसल...
मध्यवर्गीय कलाकारों के कंधों का बोझ
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों में मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि के
परिवारों से आए कलाकारों की संख्या बढ़ रही है। दिल्ली,पंजाब,उत्त्रप्रदेश,राजस्थान,उत्तराखंड,हिमाचल
प्रदेश,बिहार और झारखंड से आए कलाकारों और तकनीशियनों हिंदी फिल्म इंढस्ट्री में
जगह बनानी शुरू कर दी है। ठीक है कि अभी उनमें से कोई अमिताभ बच्च्न या शाह रूख
खान की तरह लोकप्रिय और पावरफुल नहीं हुआ है। फिर भी स्थितियां बदली हैं। मध्यवर्गीय
परिवारों से आए कलाकारों की कामयाबी के किससों से नए और युवा कलाकारों की महात्वाकांक्षाएं
जागती हैं। वे मुंबई का रुख करते हैं। आजादी के 7व सालों और सिनेमा के 100 सालों
के बाद की यह दुखद सच्चाई है कि मुंबई ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की राजधानी बनी
हुई है। उत्तर भारत के किसी राज्य ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए संसाधन
जुटाने या सुविधाएं देने का काम नहीं किया।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे हिंदी फिल्मों में आए मध्यवर्गीय
कलाकारों की कामयाबी की। लगभग सभी कलाकारों ने यह कामयाबी भारी कदमों से पूरी की
है। किसी से भी बाते करें। संघर्ष और समर्पण का भाव एक सा मिलेगा। हम सभी जानते
हैं कि उत्तर भारत में आज भी कोई किशोर-किशोरी फिल्मों में जाने की बात करे तो
उसके साथ परिवार का क्या रवैया होता है? उनके प्रति सख्ती बढ़ जाती
है। तंज कसे जाने लगते हैं। अगर वह ड्रामा या थिएटर में एक्टिव हो रहा हो तो दबाव
डाला जाता है कि वह उसे छोड़ दे,क्योंकि उसमें कोई भविष्य नहीं है। सकल मध्यवर्गीय
परिवारों में भविष्य का तात्पर्य सुरक्षित करियर और जीवन है। आप 10 से 5 की
बंधी-बंधयी नौकरी कर लें। ऊपरी आमदनी हो तो अतिउत्तम। खयाल रहे कि पेंशन वाली
नौकरी हो। इन दबावों से बचजे-निकलते कोई निकल आया तो तानों की शुरूआत हो जाती है।
गली-मोहल्ले में कहा जाने लगता है कि फलां बाबू का बेटा अमिताभ बच्चन बनने गया
है या फलां बाबू की बेटी को लगता है कि वही अगली कंगना रनोट होगी। सभी को उन
युवक-युवतियों की असफल वापसी का इंतजार रहता है। अजीब समाज है अपना। सपनों को पंक्चर
करने में माहिर इस समाज में अपनी उम्मीदों को बचाए रखना भी एक संघर्ष है।
बात आगे बढ़ती है। ये कलाकार सिर्फ अपनी लिद की बदौलत
मुंबई आ धमकते हैं। धक्के खाते हैं। खाली पेट रहते हैं। सिर्फ अपनी आंखों की चमक
बरकरार रखते हैं। संघर्षशील कलाकारों की अक्षुण्ण ऊर्जा पर कभी बात होनी चाहिए।
मुंबई में उनके साथी ही उनके हमराज,हमखयाल और बुरे दिनों के दोसत बनते हैं। किसी
प्रकार एक-दो काम मिलता है। कुछ पैसे आते हैं। फिल्में रिलीज होती हैं। पत्र’-पत्रिकाओं में तस्वीरें छपती हैं। फिर भी यह कहना बंद नहीं
होता कि अभी देखिए आगे क्या होता है? परिवार भी आश्वस्त नहीं
रहता कि कुछ हो ही जाएगा। दूसरे दबी इच्छा रहती है कि बेटा या बेटी आज के सफलतम
स्टारों की तरह चमकने लगे,जबकि उसे गर्दिश में रखने या धूमिल करने की उनकी
कोशिशें जारी रहती है।
फिर एक दौर आता है। उनमें से कुछ कलाकार पहले
टिमटिमाते और फिर चमकने लगते हैं। उनकी इस कौंध के साथ ही कंधों पर रिश्तेदारी
उगने लगती है। न जाने कहां-कहां से परिचितों और रिश्तदारों की भीड़ मंडराने लगती
है। होता यह है कि पहचान और नाम होते ही इन कलाकारों से इन रिश्तेदारों की भौतिक
उम्मीदें बढ़ जाती हैं। उनके परिवारों के अधिकांश सदस्य उनकी तरह संपन्न और
प्रभावशाली नहीं होते,इसलिए उन पर नैतिक दबाव बढ़ता है कि वे मित्रों और परिजनों
की आर्थिक एवं अन्य मदद करें। यकीन करें बाहर से आए सभी कलाकारों को अपने
परिवारों से मिले गडढोंंको भरने मेंही आधी एनर्जी और आमदनी खर्च हो जाती है।
निश्चिंत होकर काम करने के बजाए उन्हें सभी परिजनों की अपेक्षाओं के दबाव में
रहना पड़ता है। इस अपेषित दायित्व से उनके कंधे झ़ुकते हैं और करियर भी।
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