दरअसल : फिल्मों और फिल्मी दस्तावेजों का संरक्षण
दरअसल....
फिल्मों और फिल्मी दस्तावेजों का संरक्षण
-अजय ब्रह्मात्मज
कहते हैं कि रंजीत मूवीटोन के संस्थापक चंदूलाल शाह
जुए के शौकीन थे। जुए में अपनी संपति गंवाने के बाद उन्हें आमदनी का कोई और जरिया
नहीं सूझा तो उन्होंने खुद ही रंजीत मूवीटोन में आग लगवा दी ताकि बीमा से मिले
पैसों से अपनी जरूरतें पूरी कर सकें। हमें आए दिन समाज में ऐसे किस्से सुनाई
पड़ते हैं,जब बीमा की राशि के लिए लोग अपनी चल-अचल संपति का नुकसान करते हैं।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी अनेक कहानियां प्रचलित हैं। मेहनत और प्रतिभा से
उत्कर्ष पर पहुंची प्रतिभाएं ही उचित निवेश और संरक्षण की योजना के अभाव में
एकबारगी सब कुछ गंवा बैठती हैं। कई बार यह भी होता है कि निर्माता,निर्देशक और
कलाकारों के वंशज विरासत नहीं संभाल पाते। वे किसी और पेशे में चले जाते हैं।
बाप-दादा के योगदान और उनकी अमूल्य धरोहरों का महत्व उन्हें मालूम नहीं रहता।
वे लगभग मुक्त होने की मानसिकता में सस्ती कीमतों या रद्दी के भाव में ही सब कुछ
बेच देते हैं।
पिछले दिनों राज कपूर निर्मित आर के स्टूडियो में आग
लग गई। इस आग में स्टेज वन जल कर खाक हो गया। इस स्टेज पर स्वयं राज
कपूर,मनमोहन देसाई और सुभाष घई ने अनेक फिल्मों की शूटिंग की थी। आग लगने के बाद
ऋषि कपूर ने सही ट्वीट किया था कि स्टूडियों तो फिर से बन जागा,लेकिन राज कपूर की
फिल्मों से जुड्री सामग्रियों और कॉस्टयूम नहीं लाए जा सकते। यह एक ऐसी क्षति
है,जिसकी कीमत रूपयों में नहीं आंकी जा सकती। मुमकिन है कि फिल्म देख कर हम फिर
से वैसे कॉस्ट्यूम तैयार कर ले,लेकिन उनमें मौलिक होने का रोमांस और एहसास कहां
से भरेंगे? इस नुकसान के लिए एक हद तक कपूर
खानदान जिम्मेदार है। आरके स्टूडियो की संपत्ति और धरोहरों पर उनका मालिकाना
अधिकार है। उनके रख-रखाव और संरक्षण की भी जिम्मेदारी उनकी थी। मैंने खुद आरके स्टूडियों
में सामग्रियों के संरक्षण का बदहाल इंतजाम देखा है। वहां के स्टूडियो फ्लोर
किराए पर दिए जाते थे,लेकिन उनकी सुरक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी। लापरवाही
तो रही है। इसके लिए फिल्म बिरादरी और राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार के
अधिकारियों को ठोस कदम उठाने होंगे। ऐसे नियम-कानून बनाने होंगे,जिनके तहत सरकरी
संस्थाएं फिल्मी हस्तियों से जुड़ी सामग्रियों का अधिग्रहण कर सकें।
भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार पुणे में स्थित
है। इसके राष्ट्रीय फिल्म विरासत मिशन
के तहत दुर्लभ फिल्म और गैर फिल्मी सामग्रियों का संरक्षण किया जाता है। इस मिशन
का लक्ष्य परिरक्षण,संरक्षण्,डिजिटिलीकरण और देश की समृद्ध फिल्म सामग्रियों का
जतन करना है। सोरे लक्ष्य और उद्देश्य कागजी रह गए हैं। मैंने पाया है कि फिल्म
इंडस्ट्री के नामवर और सक्रिय सदस्य भी राष्ट्रीय अभिलेखागार की मौजूदगी और
कार्य से वाकिफ नहीं हैं। अधिकांश निर्माताओं का यह भी नहीं मालूम कि कायदे से उन्हें
अपनी फिल्म का एक प्रिट वहां भेज देना चाहिए। फिल्मों से संबंधित अन्य
सामग्रियों और दस्तावेजों को संभालने के लिए उन्हें दे देना चाहिए। अभी तो
शिवेंद्र सिंह ड़गरपुर ने निजी कोशिश से फिल्म हेरिटेज का काम शुरू किया है।
प्राण के परिवार ने उन्हें प्राण से संबंधित सारी सामग्रियां सौंप दी हैं।
शिवेंद्र सिंह ड़ंगरपुर ने फिल्म विरासत के संरक्षण का महती कार्य अपने हाथों में
लिया है। अभी उनके जैसे दर्जनों व्यक्तियों की जरूरत है जो देश में बिखरी विरासत
को समेट सकें।
इसके साथ ही हमें अपने इतिहास के प्रति जागरूक होना
होगा। भविष्य के लिए अतीत का जाना हमेशा जरूरी होता है। जो समाज अपने अतीत का
संरक्षण नहीं कर सकता,उसका कोई भविष्य नहीं हो सकता। हमें फिल्म निर्माताओं को
यह तमीज सिखानी होगी कि वे अपनी ही चीजों की कीमत समझें और उनके संरक्षण पर ध्यान
दें। पहली फिल्म से ही जरूरी सामग्रियों का दस्तावेजीकरण आरंभ कर दें। नौ
साल,पच्चीस साल या पचास साल पूरे होन पर करोंड़ों की पार्टी करने से बेहतर है कि
लाखों खर्च कर यादों को बचा लें। आनेवाली पीढि़यों की जरूरतों का खयाल करें। साथ
ही खुद के लिए अमरता हासिल करें।
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