फिल्म समीक्षा : सिमरन
फिल्म रिव्यू
अभिनेत्री की आत्मलिप्तता
सिमरन
-अजय ब्रह्मात्मज
हंसल मेहता निर्देशित ‘सिमरन’ देखते समय शीर्षक भूमिका निभा रही कंगना रनोट की वर्तमान छवि
स्वाभाविक रूप से ध्यान में आ जाती है। ज्यादातर पॉपुलर स्टार की फिल्मों में
उनकी छवि का यह प्रभाव काम करता रहता है। कंगना रनोट अपने टीवी इंटरव्यू में निजी
जिंदगी और सामाजिक मामलों पर अपना पक्ष स्पष्ट शब्दों में रख रही थीं। इन
विवादास्पद इंटरव्यू से उनकी एक अलग इमेज बनी है। ‘सिमरन’ के शीर्षक किरदार की भूमिका
में उनकी छवि गड्डमड्ड हुई है। फिल्म के अनेक दृश्यों में ऐसा लगता है कि अभी तो
कंगना को इंटरव्यू में यही सब बोलते सुना था।
बहरहाल,’सिमरन’ प्रफुल्ल पटेल की कहानी है। प्रफ़ुल्ल पटेल अमेरिका के
अटलांट शहर में अपने मां-बाप के साथ रहती है। उसका तलाक हो चुका है। विधवा विलाप
के बजाए वह जिंदगी को अपने अंदाज में जीना चाह रही है। मध्यवर्गीय गुजराती
मां-बाप की एक ही ख्वाहिश है कि वह फिर सेशादी कर ले और सेटल हो जाए। रोज की
खिच-खिच से परेशान प्रफुल्ल एक अलग घर लेना चाहती है। उसने कुछ पैसे जमा कर रखे
हैं। संयोग ऐसा बनता है कि इसी बीव वह अपनी सहेली के साथ लास वेगास पहुंच जाती है।
वहां के एक कैसिनो में पहली रात कुछ जीतने के बाद अगले दिन वह सब कुछ हार जाती है।
फिर से बाजी आजमाने के लिए वह कर्ज में मोटी रकम लेती है। मोटी रकम भी हारने के
बाद उसकी जिंदगी मुश्किल मोड़ पर आ जाती है। इस फिल्म में संयोगों की भरमार है।
इस बार वह रिटेल शॉप के गलले से कुछ नगद लेकर भागने में कामयाब हो जाती है। अनजाने
में की गई चोरी ही उसकी आदत बन जाती है। वह ‘लिपस्टिक बैंडिट’ के नाम से कुख्यात हो जाती है। और फिर आगे की घटनाएं अविश्वसनीय
तरीके से बढ़ती हैं।
’सिमरन’ देखने से पता चलता है कि अमरिका के बैंकों की सिक्युरिटी
इतनी लचर है कि महज एक हुडी पहन कर जेब में हाथ हिला कर ही कैशियर और बैंक
कर्मचारियों को डराया जा सकता है। कहीं यह फिल्म देख कर भारत में कोई ऐसा दुस्साहस
न करे। नाहक पकड़ा जाएगा। वहां की पुलिस भी हर बार कार से भाग रही प्रफुल्ल को
नहीं पहचान और पकड़ पाते। अंत में वह घिरती भी है तो पीछा कर रही पुलिस की आंखों
में धूल झोंक कर भाग जाती है। बाद में आत्मसमर्पण करते समय वह जो कारण बताती
है,उससे हंसी आ सकती है,लेकिन वह भारतीय सोच की विडंबना भी है।
’सिमरन’ विदेश में पली-बढ़ी और भारतीय दकियानूसी संस्कारों से
निकलने की छटपटाहट में भटकी प्रफुल्ल पटेल की कहानी है। अपनी जड़ों से कटी ऐसी
लड़कियों और लड़कों की की स्वतंत्रता की चाहत उन्हें भ्रष्ट और आसान रास्तों
पर ले जाती है। प्रफुल्ल उन लाखों युवाओं की प्रतिनिधि चरित्र है। लेखक-निर्देशक
ने एक इंडेपेंडेट लड़की के मिसएडवेंचर को बहुत अच्छी तरह चरित्र में उकेरा है। इस
चरित्र को गढ़ने में स्वयं कंगना का भी योगदान है। इस चरित्र को निभाने में बतौर
अभिनेत्री कंगना की आत्मलिप्तता उन्हें निर्देशक के नियंत्रण से बाहर कर देती
है। यह फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। सहायक किरदार गौण भूमिकाओं में रह जाते
हैं। मां-बाप और मंगेतर की भूमिका निभा रहे किरदार अपनी ईमानदारी के बावजूद बहुत
कुछ जोड़ नहीं पाते। हमें उनसे सहानुभूति मात्र होती है। विदेशों की पृष्ठभूमि पर
बनी सभी फिल्मों की आम समस्या है कि उनमें वहां का समाज अनुपस्थित रहता है। ‘सिमरन’ उसी कड़ी में शामिल हो गई
है,जबकि हंसल मेहता के निर्देशन से उम्मीद थी कि यह फिल्म प्रफुल्ल की दुविधाओं
और विसंगतियों को उचित संदर्भ देगी। व्यक्ति चरित्रों के चित्रण में माहिर हंसल
मेहता इस फिल्म में निराश करते हैं।
फिल्म में कंगना ही कंगना हैं। चरित्र की एकांगिता के
बावजूद वह प्रभावित करती हैं। कुछ दृश्यों में असंयमित भाव प्रदर्शन से वह
कंफ्यूज दिखती हैं। इस फिल्म में गुजराती संवादों का प्रचुर इस्तेमाल हुआ है।
पश्चिम भारत के दर्शक तो गुजराती समझ लेंगे,लेकिन दूसरे इलाकों के दर्शकों को दिक्क्त
होंगी। ध्येय तो समझ में आ जाता है,लेकिन शब्द पल्ले नहीं पड़ते।
अवधि – 125 मिनट
***
तीन स्टार
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