फिल्‍म समीक्षा : शुभ मंगल सावधान



फिल्‍म रिव्‍यू
जेंट्स प्राब्‍लम पर आसान फिल्‍म
शुभ मंगल सावधान
-अजय ब्रह्मात्‍मज
आर एस प्रसन्‍ना ने चार साल पहले तमिल में कल्‍याण समायल साधम नाम की फिल्‍म बनाई थी। बताते हैं कि यह फिल्‍म तमिलभाषी दर्शकों को पसंद आई थी। फिल्‍म उस पुरुष समस्‍या पर केंद्रित थी,जिसे पुरुषवादी समाज में मर्दानगी से जोड़ दिया जाता है। यानी आप इस क्रिया को संपन्‍न नहीं कर सके तो नामर्द हुए। उत्‍तर भारत में रेलवे स्‍टेशन,बस टर्मिनस और बाजार से लेकर मुंबई की लोकल ट्रेन और दिल्‍ली की मैट्रो तक में में नामर्दी का शर्तिया इलाज के विज्ञापन देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह समस्‍या कितनी आम है,लेकिन पूरा समाज इस पर खुली चर्चा नहीं करता। सिर्फ फुसफुसाता है। आर एस प्रसन्‍ना अपनी तमिल फिल्‍म की रीमेक शुभ मंगल सावधान में इस फुसफसाहट को दो रोचक किरदारों और उनके परिजनों के जरिए सार्वजनिक कर देते हैं। बधाई...इस विषय पर बोल्‍ड फिल्‍म बनाने के लिए।
दिल्‍ली की मध्‍यवर्गीय बस्‍ती के मुदित(आयुष्‍मान खुराना) और सुगंधा(भूमि पेडणेकर) एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। झेंप और झिझक के कारण मुदित ऑन लाइन प्रोपोजल भेज देता है। सुगंध के मा-बाप इस अवसर को लपक लेते हैं। सुगंधा भी राजी है। दोनों का रोका होने वाला है। इसी बीच एक दिन भूमि के घर का एकांत मिलने पर मुदित को एहसास होता है कि वह परफार्म नहीं कर सकता। सुगंधा को लगता है कि बालतोड़ हो गया है और मुदित उसे जेंट्स प्राब्‍लम कहता है। सुगंधा चाहती है कि शादी के पहले मुदित इस समस्‍या का समाधान कर ले। मुदित भी कोशिश में है। बात बन नहीं पाती। शादी का दिन नजदीक आता जा रहा है। सारी तैयारियां हो चुकी हैं। दिल्‍ली से से वर-वधू का परिवार हरिद्वार पहुंच गया है। शादी के पहले सराती-बाराती दोनों पक्षों को मुदित की जेंट्स प्राब्‍लम की जानकारी मिल जाती है। होगा कि नहीं होगा पर बाजियां लग जाती हैं। और फिर...
आर एस प्रसन्‍ना ने लेखक की मदद से तमिल कथाभूमि की फिल्‍म बहुत खूबसूरती और भाव के साथ उत्‍तर भारत की हिंदी पृष्‍ठभूमि में रोपा है। निर्देशक प्रसन्‍ना के साथ निर्माता आनंद एल राय की भी तारीफ करनी होगी कि उन्‍होंने ऐसे जरूरी विषय पर मनोरंजक और आसान फिल्‍म बनाई। विषय का सरलीकरण करने में कुछ दृश्‍य ढीले हुए हैं,लेकिन उनके इस महत्‍वपूर्ण प्रयास की सराहना बनती है। इस विषय पर फिल्‍म बनाने में दृश्‍यों और संवादों में फिसलने का भारी खतरा था। यहां तक कि कलाकारों के परफार्मेंस में फूहड़ता आ सकती थी,लेकिन सभी ने सधे प्रयत्‍न से संतुलन बनाए रखा है। खास कर जेंट्स प्राब्‍लम को जाहिर करने में बगैर सही शब्‍द का इस्‍तेमाल किए ही भूमि,आयुष्‍मान और सीमा वाहवा की भाव-भंगिमा सारे अर्थ खोल देती है। बाद में परिवार के अन्‍य सदस्‍य भी शब्‍द संकेतों और व्‍यंजना में जेंट्स प्राब्‍लम पर खुलेआम विमर्श कर लेते हैं। होगा कि नहीं होगा प्रसंग अतिरेकी हो गया है,फिर भी लेखक,निर्देशक और कलाकार बहकने से बचे हैं।
दिल्‍ली और हरिद्वार के परिवेश और भाषा में रंग और लहजे का पूरा खयाल रखा गया है। फिल्‍म की तकनीकी टीम ने थीम के मुताबिक सब रख है। सहयोगी कलाकारों की चर्चा करें तो निस्‍संदेह सबसे पहले सीमा पाहवा का उल्‍लेख करना होगा। वह किरदारों में आसानी से ढलती हैं। हिंदी फिल्‍मों की नई मां को वह अच्‍छी तरह पेश कर रही हैं। सुगंधा के पिता और काका तथा मुदित के माता-पिता की भूमिकाओं में आए कलाकार फिल्‍म के माहौल और मजे को गाढ़ा करते हैं। आयुष्‍मान खुराना और भूमि पेडणेकर के अभिनय की खासियत है कि वे मुदित और सुगंधा ही लगते हैं। दोनों ने चैलेंजिंग किरदार को पूरी सहजता से निभाया है।
इस फिल्‍म की यह खासियत है कि फिल्‍मों के उल्‍लेख के बावजूद यह फिल्‍मी होने से बची है। किरदारों को उनके परिवेश में ही रखा गया है और रियलिस्‍ट होने की अतिरिक्‍त कोशिश नहीं की गई है।
अवधि- 108 मिनट
*** ½ साढ़े तीन स्‍टार  

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