रोज़ाना : शब्‍दों से पर्दे की यात्रा



रोज़ाना
शब्‍दों से पर्दे की यात्रा
-अजय ब्रह्मात्‍मज
सिनेमा और साहित्‍य के रिश्‍तों पर लगातार लिखा जाता रहा है। शिकायत भी रही है कि सिनेमा साहित्‍य को महत्‍व नहीं दिया जाता। साहित्‍य पर आधारित फिल्‍मों की संख्‍या बहुत कम है। प्रेमचंद से लेकर आज के साहित्‍यकारों के उदाहरण देकर बताया जाता है कि हिंदी फिल्‍मों में साहित्‍यकारों के लिए कोई जगह नहीं है। शुरू से ही हिदी एवं अन्‍य भारतीय भाषाओं के कुछ साहित्‍यकार हिंदी फिल्‍मों के प्रति अपने प्रेम और झुकाव का संकेत देते रहे हैं,लेकिन व्‍यावहारिक दिक्‍कतों की वजह से वे फिल्‍मों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते। उनके असंतोष को बहुत गंभीरता से लिया जाता है। तालमेल न हो पाने के कारणों की गहराई में कोई नहीं जाता।
हिंदी फिल्‍में लोकप्रिय संस्‍कृति का हिस्‍सा हैं। लोकप्रिय संस्‍कृति में चित्रण और श्लिेषण में दर्शकों का खास खशल रखा जाता है। कोशिश यह र‍हती है कि अधिकाधिक दर्शकों तक पहुंचा जाए। उसके लिए आमफहम भाषा और और परिचित किरदारों का ही सहारा लिया जाता है। लेखकों को इस आम और औसत के साथ एडजस्‍ट करने में दिक्‍कत होती है। उन्‍हें लगता है कि उनके सृजन की कदर नहीं की जा रही है। कॉमन शिकायत है कि कृति की आत्‍मा मर गई। उसका खयाल नहीं रखा गया। हिंदी के शब्‍दों को पर्दे पर लाने की और भी दिक्‍कतें हैं। इन दिनों सबसे बड़ी दिक्‍कत यही है कि अंग्रेजी में पढ़-लिखे और काम कर रहे फिल्‍मकार और लेखक भारतीय भाषाओं की कामचलाऊ जानकारी रखते हैं। उनके पढ़ने और लिखने की दुनिया में भारतीय भाषाएं नहीं हैं। लिहाजा अगर वे कभी साहित्‍य के बारे में सोचते भी हैं तो उन्‍हें अंग्रेजी में लिखी किताबें ही सूझती हैं।
मुंबई में पिछले गुरूवार को मामी(मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेजेज) के तत्‍वावधान में लेखकों,प्रकाशको,विशेषज्ञों और फिल्‍मकारों की बैठक हुई। इसमें लेखकों और प्रकाशकों ने अपनी किताबों की विषयवस्‍तु के बारे में बताया। ऐसी खबर है कि सोनम कनूर और हंसल मेहता समेत अनेक फिल्‍मकारों ने इन किताबों में रुचि दिखाई और उनके अधिकार हासिल किए। मामी की इस पहल का स्‍वागत होना चाहिए। ऐसे मंच मिलें तो शब्‍दों और पर्दे के बीच की दूरी कम होगी। विश्‍व सिनेमा में साहित्‍य पर आधारित फिल्‍में बनती रही हैं। दर्शकों की पसंद बनने के साथ उन्‍हें पुरस्‍कार भी मिले हैं। भात में बांग्‍ला और कन्‍न्‍ड़ भाषाओं की फिल्‍मों में साहित्‍य पर ध्‍यान दिया जाता है। हिंदी फिल्‍मों में साहित्‍य के प्रति फिल्‍मकारों की ललक खत्‍म सी हो गई है।
अगर यह सर्वे किया जाए कि किस फिल्‍मकार ने हाल में कोन सी हिंदी किताब पढ़ी है तो परिणाम हैरतअंगेज होंगे।  

Comments

हैरतंगेज तो क्या ही होंगे। हाँ, मैं इतना कह सकता हूँ कि इक्के दुक्के लेखकों से ज्यादा कोई नहीं पढता होगा हिंदी को। हिंदी फिल्म बनाने वाले अंग्रेजी तो तरजीह देते हैं। ऐसे ही कंगना का उनकी कमजोर अंग्रेजी के लिए मज़ाक नहीं बनाया गया था।
Unknown said…
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हिंदी की फिल्में अंग्रेज़ीदां लोग बनाते हैं, गोया क़स्बों में जनरल फिजिशियन डिलीवरी कराते हैं...🙄

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