रोज़ाना : दर्शकों तक नहीं पहुंचती छोटी फिल्में
रोज़ाना
दर्शकों तक नहीं पहुंचती छोटी फिल्में
-अजय ब्रह्मात्मज
बड़े बिजनेश के लोभ में बड़ी फिल्मों को बड़ी रिलीज
मिलती है। यह दस्तूर पुराना है। सिंगल स्क्रीन के जमाने में एक ही शहर के अनेक
सिनेमाघरों में पॉपुलर फिल्में लगाने का चलन था। फिर स्टेशन,बस स्टेशन और बाजार
के पास के सिनेमाघरों में वे फिल्म हफ्तों चलती थीं। दूसरे सिनेमा घरों में दूसरी
फिल्मों को मौका मिल जाता थो। सिंगल स्क्रीन में भी सुबह के शो पैरेलल,अंग्रेजी
या साउथ की डब फिल्मों के लिए सुरक्षित रहते थे। कम में ही गुजारा करने के भारतीय
समाज के दर्शन से फिल्मों का प्रदर्शन भी प्रेरित था। हर तरह की नई और कभी-कभी
पुरानी फिल्मों को भी सिनेमाघर मिल जाते थे। तब फर्स्ट डे फर्स्ट शो या पहले
वीकएंड में ही फिल्में देखने की हड़बड़ी नहीं रहती थी। छोटी फिल्में हफ्तों क्या
महीनों बाद भी आती थीं तो दर्शक मिल जाते थे।
मल्टीप्लेक्स आने के बाद ऐसा लगा था कि छोटी फिल्मों
को प्रदर्शन का स्पेस मिल जाएगा। शुरू में ऐसा हुआ भी,लेकिन धीरे-धीरे ज्यादा
कमाई के लिए मल्टीप्लेक्स मैनेजर बड़ी फिल्मों को ज्यादा शो देने लगे और छोटी
फिल्मों के शो को टरकाने लगे। शो लगाना पड़ा तो समय ऐसा रखा कि दर्शकों को अलग से
समय निकालना पड़े। उन्हें प्राइम टाइम नहीं दिया। मल्टीप्लेक्स के इस रवैए की
वजह से ही महाराष्ट्र में अध्यादेश जारी करना पड़ा कि मराठी फिल्मों को मल्टीप्लेक्स
में प्राइम टाइम के शो मिलें। सभी जानते हैं कि इस कदम से मराठी फिल्मों के दर्शक
बढ़ हैं और आखिरकार आमदनी बढ़ी है।
हिंदी की छोटी फिल्मों के लिए प्रदर्शन की सहूलियतें
नहीं बढ़ रही हैं। उन्हें वितरक और प्रदर्शक नहीं मिल पाते। ऐसी अनेक फिल्में
होती हैं,जिन्हें देखने से दर्शक वंचित रह जाते हैं। इसी हफ्ते की ‘गुड़गांव’ को देख लें। शंकर रमन की यह
उच्च् क्वालिटी की फिल्म को पर्याप्त शो और थिएटर नहीं मिले हैं। यह फिल्म
पटना जैसे कथित छोटे शहर में नहीं पहुंची है। संचार माध्यमों के प्रसार और
इंटरनेट के इस दौर में पूरे देश को क्वालिटी फिल्म की जानकारी दर्शकों को मिल
जाती है। वे भी अपने शहर में ऐसी फिल्मों का इंतजार करते हैं,लेकिन प्रदर्शक
सालों पुरानी धारणा के मुताबिक तय करता है कि किस तरह के दर्शक कैसी फिल्म में
रुचि लेते हैं? उन्होंने ऐसा कोई सर्वे या अध्ययन
नहीं किया है। बस,मान लिया गया है कि ‘गुड़गांव’ तो मैट्रो के खास दर्शक ही देखेंगे। नतीजा यह हो रहा है कि
छोटी फिल्में छोटे शहरों में नहीं पहुंच पा रही हैं।
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