फिल्म समीक्षा : टॉयलेट- एक प्रेम कथा
फिल्म रिव्यू
शौच पर लगे पर्दा
टॉयलेट एक प्रेम कथा
-अजय ब्रह्मात्मज
जया को कहां पता था कि जिस केशव से वह प्यार करती है
और अब शादी भी कर चुकी है...उसके घर में टॉयलेट नहीं है। पहली रात के बाद की सुबह
ही उसे इसकी जानकारी मिलती है। वह गांव की लोटा पार्टी के साथ खेत में भी जाती
है,लेकिन पूरी प्रक्रिया से उबकाई और शर्म आती है। बचपन से टॉयलेट में जाने की आदत
के कारण खुले में शौच करना उसे मंजूर नहीं। बिन औरतों के घर में बड़े हुआ केशव के
लिए शौच कभी समस्या नहीं रही। उसने कभी जरूरत ही नहीं महसूस की। जया के बिफरने और
दुखी होने को वह शुरू में समझ ही नहीं पाता। उसे लगता है कि वह एक छोटी सी बात का
बतंगड़ बना रही है। दूसरी औरतों की तरह अपने माहौल से एडजस्ट नहीं कर रही है। यह
फिल्म जया की है। जया ही पूरी कहानी की प्रेरक और उत्प्रेरक है। हालांकि लगता है
कि सब कुछ केशव ने किया,लेकिन गौर करें तो उससे सब कुछ जया ने ही करवाया।
‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ रोचक लव स्टोरी है। जया और केशव की इस प्रेम कहानी में सोच
और शौच की खल भूमिकाएं हैं। उन पर विजय पाने की कोशिश और कामयाबी में ही जया और
केशव का प्रेम परवान चढ़ता है। लेखक सिद्धार्थ-गरिमा ने जया और केशव की प्रेम
कहानी का मुश्किल आधार और विस्तार चुना है। उन्होंने आगरा और मथुरा के इलाके की
कथाभूमि चुनी है और अपने किरदारों का स्थानीय रंग-ढंग और लहजा दिया है। भाषा ऐसी
रखी है कि स्थानीयता की छटा मिल जाए और उसे समझना भी दुरूह नहीं हो। उच्चारण की
शुद्धता के बारे में ब्रजभूमि के लोग सही राय दे सकते हैं। फिल्म देखते हुए भाषा
कहीं आड़े नहीं आती। उसकी वजह से खास निखार आया है।
जया बेहिचक प्रधान मंत्री के स्वच्छ भारत अभियान की
थीम से जुड़ी यह फिल्म सदियों पुरानी सभ्यता और संस्कृति के साच पर सवाल करती
है। लेखकद्वय ने व्यंग्य का सहारा लिया है। उन्होंने जया और केशव के रूप में दो
ऐसे किरदारों को गढ़ा है,जो एक-दूसरे से बेइंतहा प्रेम करते हैं। सिर्फ शौच के
बारे में उनकी सोच अलग-अलग है। केशव की सोच में कभी शौच का सवाल आया ही नहीं,क्योंकि
बचपन से उसने खुले में शौच की ही नित्य ्रिया माना और समझा। जया के बिदकने पर भी
शौच की जरूरत उसके पल्ले नहीं पड़ती। उसे जया की मांग का एहसास बाद में होता है।
फिर तो वह एड़ी-चोटी का जोड़ लगा देता है। गांव और आसपास की महिलाएं जागृत होती
हैं और शौच एक अभियान बन जाता है।
ऐसी फिल्मों के साथ खतरा रहता है कि वे डाक्यूमेंट्री
न बन जाएं। या ऐसी उपदेशात्मक न हो जाएं कि दर्शक दुखी हो जाएं। निर्देशक
श्रीनारायण सिंह संतुलन बना कर चलते हैं। उन्हें अपने कलाकारों और लेखकों का पूरा
सहयोग मिला है।
फिल्म के संवाद चुटीले और मारक हैं। परंपरा और
रीति-रिवाजों के नाम पर चल रह कुप्रथा पर अटैक करती यह फिल्म नारे लगाने से बची
रहती है। एक छोर पर केशव के पिता पंडिज्जी हैं तो दूसरे छोर पर जया है। इनके बीच
उलझा केशव आखिरकार जया के साथ बढ़ता है और बड़े परिवर्तन का कारक बन जाता है। पढ़ी-लिखी
जया एक तरह से गांव-कस्बों में नई सोच के साथ उभरी लड़कियों का प्रतिनिधित्व
करती है। वह केशव से प्रेम तो करती है,लेकिन अपने मूल्यों और सोच के लिए समझाौते
नहीं कर सकती। और चूंकि उसकी सोच तार्किक और आधुनिक है,इसलिए हम उसके साथ हो लेते
हैं। हमें केशव से दिक्कत होने लगती है। लेखकों ने केशव के क्रमिक बदलाव से कहानी
स्वाभाविक रखी है। हां,सरकारी अभियान और मंत्रियों की सक्रियता का हिस्सा जबरन
डाला हुआ लगता है। उनके बगैर या उनके सूक्ष्म इस्तेमाल से फिल्म ज्यादा असरदार
लगती।
अक्षय कुमार ने केशव के रिदार को समझा है। उन्होंने
उस किरदार के लिए जरूरी भाव-भंगिमा और पहनावे पर काम किया है। लहजे और संवाद
अदायगी में भी उनकी मेहनत झलकती है। जया की भूमिका में भूमि पेडणेकर जंचती हैं।
उन्होंने पूरी सादगी और वास्तविकता के साथ इस किरदार को निभाया है। उनके सहज
अभिनय में जया भादुड़ी की झलग है। ग्लैमर की गलियों में वह नहीं मुड़ीं तो हिंदी
फिल्मों को एक समर्थ अभिनेत्री मिल जाएगी। इस फिल्म की जान हैं पंडिज्जी यानी
सुधीर पांडे। उन्होंने अपने किरदार को उसकी विसंगतियों को ठोस विश्वास के साथ
निभाया है। छोटे भाई के रूप में दिव्येन्दु समर्थ परक और सहयोगी हैं। जया के
मां-पिता के रूप में आए कलाकार भी स्वाभाविक लगे हैं। अनुपम खेर अपने अंदाज के
साथ यहां भी हैं।
पर्दा सोच से हटा कर शौच पर लगाने का टाइम आ गयो।
अवधि- 161 मिनट
**** चार स्टार
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