रोज़ाना : प्रेमचंद और रफी एक साथ
रोज़ाना
प्रेमचंद और रफी एक साथ
-अजय ब्रह्मात्मज
प्रेमचंद और रफी एक साथ क्यों और कैसे? यही सवाल मेरे मन भी उठा। पूरा वाकया यूँ है...
जागरण
फ़िल्म फेस्टिवल के सिलसिले में देहरादून जाना हुआ। उत्तर भारत का यह
खूबसूरत शहर किसी और प्रान्त की राजधानी की तरह बेतरतीब तरीके से पसर रहा
है। स्थानीय नागरिक मानते हैं कि राजधानी बनने के बाद देहरादून बिगड़ गया।
अब यह पहले का देहरादून नहीं रह गया। बहरहाल,मौसम और पर्यावरण के लिहाज से
यह शहर सभी आगंतुकों को आकर्षित करता है। कुछ यहां रिटायरमेंट के बाद बसने
की सोचते हैं। इलाहाबाद में लंबे समय तक रहने बाद लालबहादुर वर्मा का
दिल्ली में मन नहीं लगा तो वे देहरादून आ गए। उन्होंने मुख्य शहर से दूर बस
रही नई कॉलोनी में अपना ठिकाना बनाया है। वे यहीं से अध्ययन और लेखन कर
रहे हैं। इतिहासकार लालबहादुर वर्मा के बारे में कम लोग जानते हैं कि
लोकप्रिय संस्कृति खास कर सिनेमा में उनकी विशेष अभिरुचि है।
प्रेमचंद
और रफी का प्रसंग उनसे जुड़ा है।मुलाक़ात के दौरान उनके एक साथी एक बैनर का
फ्लेक्सप्रिंट लेकर आए। उस पर बायीं तरफ प्रेमचंद और दायीं तरफ रफी की
तस्वीर छपी थी। दोनों की तस्वीर साथ देख कर चौंकने की मेरी बारी थी। यह तो
स्पष्ट था कि 31 को एक की जन्मतिथि और दूसरे की पुण्यतिथि है,लेकिन दोनों
एक साथ क्यों? लालबहादुर वर्मा ने बताया कि कुछ सालों पहले उन्होंने
इलाहाबाद में दोनों को एक साथ याद करने की पहल की तो जाहिर तौर पर विरोध
हुआ। सहित्यप्रेमियों के साथ अन्य नागरिकों को भी यह रास नहीं आ रहा था।
रफी से प्रेम और सम्मान के बावजूद वे दोनों को साथ में याद करने का तुक
नहीं बिठा पा रहे थे। लालबहादुर वर्मा ने भारतीय खास कर हिंदी समाज में
दोनों के योगदान के महत्व के बारे में बताया। साहित्य और लोकप्रिय संस्कृति
को जोड़ने...साहित्य के साथ सिनेमा,साहित्यकारों के साथ कलाकारों को भी
समान सम्मान देने का तर्क रखा तो सभी की समझ में आया। सभी सहमत हुए और
दोनों को साथ में याद किया गया। अब यह सिलसिला कुछ और शहरों में भी चल रहा
है।
देहरादून आने के बाद लालबहादुर वर्मा ने वहां भी
इस आयोजन के बारे में सोचा।उनके साथी ने मुझे बताया कि हमलोग कॉलोनी के सभी
घरों में जाएंगे और उनसे आग्रह करेंगे परिवार के सभी सदस्य साथ बैठ कर
प्रेमचंद की कहानियां या कम से कम एक कहानी पढ़ें और मोहम्मद रफी के गीत
सुनें। पारिवारिक स्तर पर यह आयोजन नियमित रूप से हो तो उसका असर अलग और
दूरगामी होगा। सभा और गोष्ठियों में पूरा परिवार नहीं जाता। वहां की
चर्चा-परिचर्चा भाग ले रहे व्यक्ति तक सिमट कर रह जाती है। परिवार उस
विमर्श में शामिल नहीं होता। अगर ऐसी कोशिशें नियमित हों तो घर-परिवार और
समाज में सिनेमा का महत्व बढ़ेगा। सामूहिक तौर पर सिनेमा को हेय दृष्टि से
देखने का भाव कम होगा। उत्तर भारत के परिवारों में आज भी सिनेमा नियमित
पारिवारिक गतिविधि नहीं है। फिल्मों में सभी की रुचि है,लेकिन वह व्यक्तिगत
है। उसे पारिवारिक और सामाजिक रुचि बनाने के लिए ऐसे प्रयासों पर अमल करना
होगा।
हालांकि एक दिन बीत गया है,लेकिन आज भी अगर आप
सभी प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ें और रफी का एक गीत सुनें,उन पर चर्चा करें
तो शुरूआत हो जाएगी।
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