फिल्‍म समीक्षा : पर्दे पर इतिहास के पन्‍ने



फिल्‍म रिव्‍यू
पर्दे पर इतिहास के पन्‍ने
राग देश
-अजय ब्रह्मात्‍मज

तिग्‍मांशु घूलिया की राग देश का बनना और सिनेमाघरों में रिलीज होना ही एक घटना है। राज्‍य सभा टीवी की इस पहल की तारीफ करनी चाहिए कि उन्‍होंने समकालीन इतिहास के एक अध्‍याय को फिल्‍म के रूप में पेश करने के बारे में सोचा। तिग्‍मांशु धूलिया ने आजाद हिंदी फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खान,लेफिटनेंट कर्नल गुरबख्‍श सिहं ढिल्‍लों और लेफिटनेंट कर्नल प्रेम सहगल पर लाल किले में चले मुकदमे पर ही फिल्‍म केंद्रित की है। उस मुकदमें के बहाने आजादी की लड़ाई सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज की भूमिका से भी हम परिचित होते हैं। इतिहास के पन्‍ने दृश्‍यों में सज कर पर्दे पर आते हैं और हम उस दौर की घटनाओं को देख पाते हें। तिग्‍मांशु धूलिया ने मुख्‍य रूप से वास्‍तविक किरदारों और मुकदमें के इर्द-गिर्द ही कहानी रखी है। उन्‍होंने कथा बुनने के लिए कुछ किरदार जोड़े हैं। उन पर अधिक फोकस नहीं किया है।
द्वितीय विशव युद्ध में जापना और जर्मनी की हार और ब्रिटेन की जीत के बाद आजाद हिंद फौज के सैनिकों को समर्पण करना पड़ा था। युद्धबंदी के तौर पर उन सैनिकों को देश के अलग-अलग जेलों में रखा गया था। आजाद हिंद फौज का नूतृत्‍व कर रहे शाहनवा,ढिलों और सहगल पर राष्‍ट्रद्रोह का मुकदमा चला था। इस मुकदमें का दस्‍तावेजीकरण तो हुआ है कि इस ऐतिहासिक घटना के बारे में इतिहास में नहीं पढ़ाया जाता। दरअसल,देश के स्‍वाधीनता आंदोलन में गांधी और नेहरु के नेतृत्‍व में कांगेस की भूमिका ही रेखांकित हो पाई है। कांग्रेस के आंदोलन और अभियानों के साथ भगत सिहं और सुभाष चंद्र बोस जैसे का्रतिकारियों और सेनानियों का भी योगदान रहा है। भगत सिंह को देश एक शहीद के रूप में याद करता है,लेकिन बोस को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई है। आजादी के बाद सुभाष चंद्र बोस को किंवदंती और रहस्‍यपूर्ण व्‍यक्ति के रूप में तो पेश किया गया,लेकिन उनकी भूमिका का उचित मूल्‍यांकन नहीं हो सका। यह भी लगता है कि तत्‍कालीन संदर्भ में सुभाष चंद्र बोस की भूमिका देशहित में रही हो,लेकिन इतिहास ने साबित किया कि जर्मनी और जापान से मदद लेने का उनका फैसला ऐतिहासिक रूप से गलत रहा। दोनों ही देश द्वितीय विश्‍वयुद्ध के खलनायक बन गए। खलनायकों का साथ लेने की वजह से सुभाष चंद्र बोस भी नायक नहीं रह गए। दूसरे कांग्रेस के शासन काल में कभी सुभाष चंद्र बोस की भूमिका और योगदान को रेखांकित नहीं किया गया।
राग देश प्रकारांतर से सुभाष चंद्र बोस को एक संदर्भ देती है। मुकदमें के बहाने आजादी की लड़ाई में आजाद हिंद फौज की मंशा और मिशन की बातें उद्घाटित होती हैं। हमें यह भी पता चलता है कि उस समय देश के नेता और जनता की क्‍या सोच थी। तिग्‍मांशु धूलिया की ईमानदार कोशिश राग देश अतिहस के अनछुए प्रसंग को विश्‍वसनीयता के साथ पेश करती है। बजट की सीमाओं के कारण युद्ध के दृश्‍यों में रोमांच नहीं उभर पाया है। दूसरे यह भी चुनौती रही है कि मूल रूप से एक-एक घंटे के 6 एपीसोड के रूप में सोची और लिखी सामग्री से काट-छांट कर एक फिल्‍म निकालना। इस वजह से फिल्‍म कहीं-कहीं डीली और बिखरी नजर आती है। तारतम्‍य भी टूटता है।
कलाकारों में अमित साध ढिलों की अपनी भूमिका और आक्रामक किरदार की वजह से ज्‍यादा आकर्षित करते हैं। शाहनवाज खान की भूमिका में कुणाल कपूर मेहनत के बावजूद प्रभाव नहीं पैदा कर पाते। मोहित मारवाह की मौजूदगी पुरअसर है। लक्ष्‍मी की भूमिका में आई अभिनेत्री एक्‍सप्रेसिव और प्रभावशाली है। भूला भाई देसााई के रूप में केनी देसाई याद रह जाते हैं। इस फिल्‍म का कमजोर पक्ष कलाकारों का अभिनय है। मुमकिन है वे टीवी शो के विस्‍तार में सहयोगी किरदारों के साथ जंचते हों।
अवधि-137 मिनट
*** तीन स्‍टार

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