फिल्म समीक्षा : बहन होगी तेरी
फिल्म रिव्यू
उम्मीद से कम
बहन होगी तेरी
-अजय ब्रह्मात्मज
अजय पन्नालाल की ‘बहन होगी तेरी’ लखनऊ के एक मोहल्ले की कहानी है। एक ही गली में रह रहे
गट्टू और बिन्नी की इस प्रेमकहानी में अनेक पेंच हैं। गट्टू और उस जैसे युवक ‘मोहेल्ले की सभी लड़कियां बहन होती हैं’ के दर्शन में यकीन नहीं रखते। राखी के दिन वे भागते फिरते
हैं कि कहीं कोई लड़की राखी न बांध दे। सभी लड़कों को भाई बना कर लड़कियों की
रक्षा की इस दकियानूसी सोच पर बेहद रोचक और मजेदार फिल्म की उम्मीद ‘बहन होगी तेरी ‘ पूरी नहीं कर पाती।
गट्टू मोहल्ले के दूसरे लड़कों की तरह ही राखी के दिन
बचता फिरता है। दब्बू और लूजर गट्टू पड़ोस की बिन्नी को पसंद करता है। वह उसी के
साथ शादी करना चाहता है। मोहल्ले के पुराने रिश्ते(भाई-बहन) उसके आड़े आते हैं।
उसके अपने परिवार के साथ ही बिन्नी का परिवार भी उसे भाई होने और वैसे ही आचरण
करने की शिक्षा देते हैं। गट्टू की लगातार कोशिशों के बाद बिन्नी उससे प्रेम करने
लगती है,लेकिन परिवार के दबाव के आगे उसकी एक नहीं चलती। रिश्तेदारी और स्थितियां
उलझती चली जाती हैं। लंबी उलझन के बाद गट्टू साहस दिखाता है और पूरे मोहल्ले के
सामने अपने दिल की बात कह कर बिन्नी को भी प्रभावित करता है। एक सामान्य युवक
विपरीत स्थितियों के बीच अपनी ख्वाहिश पूरी करता है।
राजकुमार राव ने गट्टू की भूमिका को ईमानदारी और नएपन
के साथ निभाया है। इस साधारण किरदार को विश्वसनीय और रोचक बनाने की कोशिश में वे
सफल रहते हैं। उन्हें दूसरे किरदारों और कलाकारों से बराबर का सहयोग नहीं मिल
पाया है। समस्या किरदारों की गढ़न और उनके निर्वाह में है। बिन्नी खुद अपने बारे
में जितने दावे करती है,उसका किरदार उन दावों के विपरीत दबावों के आगे समर्पण करता
जाता है। दूसरे,बिन्नी और श्रुति हसन में अधिक तालमेल नहीं है। भाष,लहजा और
चाल-ढाल में वह बिन्नी को व्यक्त्त्वि नहीं दे पाती हैं। निश्चित ही यह दोष लेखक
और निर्देशक का भी है कि वे गट्टू के समकक्ष बिन्नी का नहीं ला पाए। ‘बहन होगी तेरी’ दो प्रमुख कलाकारों के
बेमेल होले के साथ उन्के निभाए किरदारों में संगति नहीं होने से बेअसर रह जाती
है। हमेशा राजकुमार राव को अतिरिक्त कोशिश करनी पड़ती है।
लखनऊ की पृष्ठभूमि में पंजाबी,हरियाणवी और पहाड़ी
परिवारों को लाना ही अपने आप में फिजूल कवायद लगती है। वे लखनऊ के किरदार ही नहीं
लगते। इस फिल्म में शहर की मौजूदगी धड़कनों के साथ नहीं है। लखनऊ के लहजे और
नफासत का अभाव है। लेखक –निर्देशक ने कुछ सोच कर ही
ऐसे किरदारों को चुना होगा,लेकिन वे फिल्म के कथ्य में कुछ जोड़ नहीं पाते हैं।
फिल्म बिखरी-बिखरी सी लगती है। ‘बहन होगी तेरी’ में अनेक उम्दा कलाकार हैं। वे स्क्रिप्ट की सीमाओं में
घुट जाते हैं। उनका योगदान नजर नहीं आता।
‘बहन होगी तेरी’ कस्बों और छोटे शहरों में लड़के-लड़कियों के संबंध और व्यवहार
पर दिलचस्प टिप्पणी है,जिसे लेखक-निर्देशक रोचक नहीं बनाए रख सके।
अवधि- 128 मिनट
** दो स्टार
Comments