बचपन से थी कुछ कहने की ख्वाहिश - मनोज मुंतशिर
कुछ कहने की ख्वाहिश बचपन से थी - मनोज मुंतशिर
-अजय ब्रह्मात्मज
बाहुबली 2 से चर्चा में आए मनोज मुंतशिर की
कहानी। मनोज मुंतशिर ने ही ‘बाहुबली 2’ के गीत और संवाद लिखे हैं। उत्तरप्रदेश के गौरीगंज के मूल
निवासी मनोज मुंतशिर को बचपन से उर्दू और शायरी का शौक था। उम्र के साथ वह परवान
चढ़ा। वे आज हिंदी फिल्मों के लोक्रिय गीतकार और संवाद लेखक हैं।
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सबसे पहले यह मुंतशिर क्या है?
० मुंतशिर तखल्लुस है। मुझे एक तखल्लुस चाहिए था, क्योंकि यह रिवाज
है। मैं जिस जमीन से आता हूं वहां शायरों का तखल्लुस होना चाहिए,जैसे मजरूह
सुल्तानपुरी। मनोज शुक्ला तो चलता नहीं था शायरी में। फिर करें क्या। सागर और साहिर
जैसे तखल्लुस उस वक्त बहुत आम थे। मुझे एक ऐसा तखल्लुस चाहिए था जो शायरी की
दुनिया में किसी का ना हो। उधेड़बुन चल रही थी। तब क्लास दसवीं में था मैं। एक दिन
गौरीगंज जो मेरा कस्बा है यूपी में। वहां सर्दियों की शाम थी। मैं एक चाय की दुकान
के सामने से गुजर रहा था। रेडियो का जमाना था। रेडियो पर एक मुशायरा चल रहा था। उस
मुशायरे में एक साहब सागर आजमी एक शेर पड़ रहे थे:
मुंतशिर हम हैं तो रूकसार पर शबनम
क्यों है,
आइने टूटते रहते हैं, तुम्हें गम क्यों
है।
मैं उसी शाम मनोज मुंतशिर हो गया। घर
लौट कर आया। घर लौटकर आने के छह सात दिन बाद इत्तेफाक ऐसा कि गांव में मेरे घर का
रिनोवेशन हो रहा था। पापा से मैंने कहा कि इस घर पर मेरा नाम भी लिखवा दीजिए। पापा
ने कहा कि अच्छा लिखवा देता हूं। उन्होंने जो व्यक्ति लिख रहा था, उससे कहा कि जरा
मनोज शुक्ला भी लिख देना। मैंने कहा कि नहीं। मैं मनोज शुक्ला नहीं मनोज मुंतशिर
हूं। पापा ने तुरंत पूछा कि क्या है? मैंने कहा कि पापा यही नाम मुझे चाहिए। मेरे पंडित
थोड़ा भड़के। उन्हें मेरा यह आइडिया अच्छा नहीं लगा,लेकिन वह मेरी जिद्द के आगे
मान ही गए। पहली बार १९९२ की बात है, जब मेरे घर की नेमप्लेट में मेरा नाम भी लग
गया। मनोज मुंतशिर।
-क्या उम्र रही होगी तब आपकी?
० यह ९२ की बात है। मेरी पैदाइश १९७६
की है। लगभग सोलह साल।
-मुंतशिर की पहली रचना कौन सी थी?
मैं मनोज की नहीं पूछ रहा हूं।
० मैंने पहली बार यह
तखल्लुस एक गजल में इस्तेमाल किया था गजल में। जिसके मखते में, मुझे मखते का मतलब
याद नहीं है। मखते का शेर था कि मुंतशिर उर्दू की खिदमत के लिए जिंदा है,
गैर मुमकिन है कि
वह जीते जी यह जुबान छोड़ दे।
-इस बीच उर्दू
लिखने-सीखने की भी कवायद हुई?
० जी बिल्कुल। मुझे
आज भी याद है क्लास ग्यारहवीं और बारहवीं के ब्रेक के दौरान मैंने उर्दू सीखी। पागलों
की तरह उर्दू सीखी। समस्या यह थी कि कोई मौलवी मेरे घर पर आकर उर्दू सिखा नहीं
सकता था। मैंने अपने शहर की मस्जिद के सामने बोरियां बिछा कर एक बंदे से उर्दू
सीखी। वह उर्दू कायदे की किताब बेचता था। दो रूपए की वह किताब मैंने यहां-वहां से
जुगाड़ कर के खऱीदी। इतनी खूबसूरती से उसमें उर्दू पढ़नी और लिखनी सिखाई गई थी।
सत्रह दिन लगे थे मुझे। मुझे याद है कि बाकायदा सत्रह दिन बाद में फर्राटे से
उर्दू लिख भी लेता था और बोल भी लेता था।
-उर्दू सीखने से आपकी जुबान में और
बाकी चीजों में क्या फर्क पड़ा?
०उर्दू सीखने में सबसे बड़ा फर्क यह आया कि मैं
उर्दू की किताबें पढ़ने लगा। शायरों के दीवान पलटने लगा। मिर्जा गालिब को समझने
लगा। पहली चीज हुई कि जब मैंने उर्दू सीखी तो मुझे जुबान समझ में आने लगी। उर्दू
सीखने के बाद उर्दू जुबान की समझ आने के बाद शायरी समझ में आने लगी। उर्दू शायरी
समझ में आने की सबसे अच्छी चीज यह हुई कि मैं थोड़ा-बहुत इस काबिल हो गया कि मैं अपनी
बात कह सकूं।।
-उर्दू के साथ जो
आपका संबंध रहा। रूचि रही। क्या वह हिंदी साहित्य के साथ भी है?
० हिंदी साहित्य तो
हमारे अंदर है। उससे कहां दूर जाऊंगा मैं। मेरी शुरुआत की पढ़ाई हिंदी मीडियम में
हुई थी। जयशंकर प्रसाद,निराला,महादेवी वर्मा और पंत को पढ़ा है। यों समझें कि हिंदी
साहित्य मेरे पापा की तरह था। मैंने सोचा कि बगल में जो उर्दू के चाचा हैं,
उन्हें भी सलाम कर लूं। शायद आप देखेंगे कभी तो मानेंगे कि उर्दू के राइटरों कभी
हिंदी लिखी है. तो उसमें निहायत खूबसूरती दिखी। मैं समझता हूं कि अगर आप नार्थ की
पैदाइश हैं, तो आपको हिंदी सीखने की जरुरत नहीं पड़ती। वह आपके सिस्टम में ही है। हिंदी
आपकी मांसपेशियों में घुसी है।
-लिखने का सिलसिला
कब शुरू हुआ।
० जी,कक्षा दसवीं
से।
-शहर कौन सा था ?
० जी गौरीगंज...अब शहर
हो गया है। वह निहायत गांव था। एक युवा दिमाग को इंटरटेनमेंट की जरुरत होती है। मैं
भी उस उम्र में जा रहा था जहां मुझे इंटरटेनमेंट चाहिए था। मैं जिस इलाके में रहा
करता था, वहां पर आस पास कोई भी नहीं रहता था। किसी का घर नहीं था। हमारा घर मीडिल
में पढ़ता था। कोई दोस्त नहीं,कोई साथी नहीं। स्कूल से आप घर लौट कर आए तो करे
क्या। वहां से मुझे किताबों की लत लगनी शुरू हुई। जो भी मुझे पढ़ने को मिल जाता
था,मैं पढ़ लेता था। मनोरमा से लेकर गृहशोभा तक। पढ़ते हुए लगा कि मैं लिख भी सकता
हूं। मैंने कहा कि कोशिश करते हैं। ऐसा नहीं था कि मैंने जो पहली चीज लिखी होगी वह
बहुत ही कमाल की होगी। पर हां, मैंने लिखना शुरू कर दिया था। मां की उन चीजों में
थोड़ी दिलचस्पी थी। वह मेरा हौसला बढ़ाती रही। उन्होंने कभी यह नहीं बोला कि तुमने
बहुत बुरा लिखा है। वह हमेशा कहती थी कि अच्छा लग रहा है। एक बात मैं आपको बताऊं,जब
आप पढ़ते हैं ना तो आप लिखने से डरना शुरू कर देते हैं। सबसे निर्भय राइटर वही है
जो पढ़ता नहीं है। उसको पता ही नहीं है कि अच्छी शायरी क्या है अच्छा कलाम क्या
है। मेरे साथ यह हुआ कि मैंने इतना पढ़ा था, एक मिसरा लिखते हुए भी इतना खौफ आता
था कि यह लिखने की वजह क्या है। अगर मैं वही कह रहा हूं जो एक करोड़ बार कहा जा
चुका है, तो कोई जरुरत नहीं है। वो भी बेहतर तरीके से कहा जा चुका है। शुरुआती समय
में मेरे लिए ऐसा था कि बुरा लिखूंगा पर अपने लिए लिखूंगा। इसका मतलब नहीं है कि
किसी राइटर का मुझ पर इम्प्रेशन नहीं है। मैं इस बात को फख्र से कहता हूं कि मेरी
शायरी बदबू भी है तो वह मेरी है। मैंने कहीं से उधार नहीं लिया है।
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