फिल्म समीक्षा : फुल्लू
फिल्म रिव्यू
चकाचौंध नहीं करती
फुल्लू
-अजय ब्रह्मात्मज
सीमित साधनों और बजट की अभिषेक सक्सेना निर्देशित ‘फुल्लू’ आरंभिक चमक के बाद
क्रिएटिविटी में भी सीमित रह गई है। नेक इरादे से बनाई गई इस फिल्म में घटनाएं
इतनी कम हैं कि कथा विस्तार नहीं हो सका है। फिल्म एकआयामी होकर रह जाती है। इस
वजह से फिल्म का संदेश प्रभावी तरीके से व्यक्त नहीे हो पाता। महिलाओं के बीच सैनीटरी पैड की जरूरत पर जोर देती यह फिल्म
एक दिलचस्न व्यक्ति के निजी प्रयासों तक मिटी रहती है। लेखक ने कहानी बढ़ाने के
क्रम में तर्क और कारण पर अधिक गौर नहीं किया है। प्रसंगों में तारतम्य भी नहीं
बना रहता।
उत्तर भारत के भोजुपरी भाषी गांव में फुल्लू अपनी
मां और बहन के साथ रहता है। वह गांव की महिलाओं के बीच बहुत पॉपुलर है। शहर से वह
गांव की सभी महिलाओं के लिए उनकी जरूरत के सामान ले आता है। मां उसे हमेशा झिड़कती
रहती है। मां को लगता है कि उसका बेटा निकम्मा और ‘मौगा’ निकल गया है। वह चाहती है कि बेटा शहर जाकर कोई काम करे। कुछ
पैसे कमाए। गांव के जवान मर्द रोजगार के लिए दूर शहरों में रहते हैं। फुल्लू की
मां गुदड़ी सीने और बेचने का काम करती है। वह मां के लिए शहर के दर्जी के यहां से
कपड़ों की कतरनें लाया करता है। कतरनों के इंतजाम बात में ही उसे जानकारी मिलती है
कि महिलाओं को हम महीने माहवारी होती है। अशिक्षा और गरीबी की वजह से वे कपड़ों की
कतरनों का इस्तेमाल करती है,जिससे उन्हें खरिस और दूसरे इंफेक्शन हो जाते हैं।
उसे गांव की टीचरनी और शहर की डाक्टरनी से सैनीटरी पैड की जानकारी मिलती है।
फुल्लू के जीवन का अब एकमात्र उद्देश्य बहन और बीवी
समेत गांव की महिलाओं के लिए सस्ते सैनीटरी पैड बनाना है। वह इस गरज से शहर जाता
है। सैनटरी पैड बनाने के गुर सीखता है और फिर गांव लौटता है। गांव में सभी उसका
मखौल उड़ाते हैं। महिलाओं की तरफ से भी उसे समर्थन नहीं मिलता। फिर भी वह अपने
उद्देश्य से नहीं भटकता। लेखक ने फुल्लू का मासूम किरदार तो गढ़ा है,लेकिन उस
किरदार को कार्य और क्रिया नहीं दे सके हैं। कुछ दृश्यों के बाद उसके हिस्से में
नाटकीय प्रसंग नहीं रह जाते। फिल्म के बाकी किरदारों का रवैया भी स्पष्ट नहीं
होता। अपनी सुविधा से उनसे कुछ भी करवाया जाता है।
फुल्लू बात-बात में ‘चौकस-चकाचौंध’ तकियाकलाम इस्तेमाल करता है। उसी की भाषा में कहें तो यह
फिल्म चौकस तो है,लेकिन चकाचौंध नहीं कर पाती। अकेल शारिब हाश्मी पर टिकी यह फिल्म
पूरी होने के पहले ही हांफने लगती है। बीच में एक सीन के लिए इनामुलहक आते हें तो
रवानी बढ़ती है। पहले सीन से ही मां की खीझ और ऊंचे स्वर का कारण सिर्फ बेटे का
निकम्मा होना काफी नहीं लगता। और बहन मौका मिलते ही क्यों फेशियल करने लगती है।
बीवी समझदार लगती है,लेकिन उसे सक्रिय सीन ही नहीं मिलते।
अक्षय कुमार के ‘पैडमैन’ के पहले उसी विषय पर आई यह फिल्म संतुष्ट नहीं कर पाती।
अवधि- 96 मिनट
** दो स्टार
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