दरअसल : नारी प्रधान फिल्मों पर उठते सवाल
दरअसल...
नारी प्रधान फिल्मों पर उठते सवाल
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी में हर साल बन रही 100 से अधिक फिल्मों में ज्यादातर
नहीं चल पातीं। उन असफल फिल्मों में से ज्यादातर पुरुष् प्रधान होती हैं। वे
नायक केंद्रित होती है। उनकी निरंतर नाकामयाबी के बावजूद यह कभी लिखा और विचारा
नहीं जाता कि नायकों या पुरुष प्रधान फिल्मों का मार्केट नहीं रहा। ऐसी फिल्मों
की सफलता-असफलता पर गौर नहीं किया जाता। इसके विपरीत जब को कथित नारी प्रधान या
नायिका केंद्रित फिल्म असफल होती है तो उन फिल्मों की हीरोइनों के नाम लेकर
आर्टिकल छपने लगते हैं कि अब ता उनका बाजार गया। उन्होंने नारी प्रधान फिल्में
चुन कर गलती की। उन्हें मसाला फिल्मों से ही संतुष्ट रहना चाहिए। हाल ही में ‘बेगम जान’ और ‘नूर’ की असफलता के बाद विद्या
बालन और सोनाक्षी सिन्हा को ऐसे सवालों के घेरे में बांध दिया गया है।
इन दिनों नारी प्रधान फिल्में फैशन में आ गई हैं। हर
अभिनेत्री चाहती है कि उसे ऐसी कुछ फिल्में मिलें,जिन्हें उनके नाम से याद किया
जा सके। ‘डर्टी पिक्चर’,’क्वीन’,’मैरी कॉम’,’पीकू’,’पिंक’ और ‘अनारकली ऑफ आरा’ जैसी फिल्मों की चर्चा, कामयाबी और तारीफ ने निश्चित ही
बाकी हीरोइनों को इस दिशा में प्रेरित किया है। निर्माता और निवेशक मूल रूप से
मुनाफे के लिए काम करते हैं। अगर उन्हें लगता है कि नारी प्रधान फिल्में भी चल
रही हैं तो वे निवेश करने लगते हें। लेखक-निर्देशक खोजे जाते हैं। चर्चि हीरोइनों
को इंगित किया जाता है। हीरोइनें भी उत्साह में हां कह देती हें। वे पूरी
स्क्रिप्ट को ध्यान से नहीं पढ़तीं। केवल अपने रोल की जानकारी से खुश हो लेती
हैं। उन्हें लगता है कि कुछ नया करने और अपना हुनर दिखाने का मौका मिलेगा।
रोल की तैयारी में वजन घटाने-बढ़ाने से लेकर नए कौशन
और पैंतरे सीखती हैं। भाषा और लहजे पर काम करती हैं। सच में इन फिल्मों में उनकी
मेहनत झलकती है। उनका निखार दिखता है। जाहिर है कि वे भी आश्वस्त रहती हैं कि
दर्शक उन्हें पसंद करेंगे। उनकी फिल्म हिट होगी। उनका बाजार भाव बढ़ेगा। उनकी
फीस में बढ़ोत्तरी होगी। हुआ भी है। ‘डर्टी पिक्चर’ के बाद विद्या बालन और ‘क्वीन’ के बाद कंगना रनोट का स्टेटस बढ़ गया। दरअसल,दोनों ही फिल्में
अच्छी थीं। उन फिल्मों में उनकी भूमिकाओं को लेखक और निर्देशक का पूर्ण समर्थन
था। पूरी फिल्म का प्रभाव रहा। सभी हीरोइनों की सभी फिल्मों में यह बात नहीं
होती तो फिल्म नापसंद की जाती है। और फिल्म के बजाए उनकी हीरोइनों पर सवाल खड़े
किए जाने लगते हैं। क्यों नहीं लेखक और निर्देशक की काबिलियत पर सवाल किए जाते।
पिछले दिनों आई ‘बेगम जान’,’नूर’ और ‘मातृ’ वास्तव में कमजोर फिल्में थीं। उनके लेखक और निर्देशक ने
समुचित मेहनत नहीं की थी,लेकिन उनकी असफलता का ठीकरा विद्या बालन,सोनाक्षी सिन्हा
और रवीना टंडन पर फूटा। अगर फिर से उन फिल्मों के रिव्यू पढ़े जाएं तो पाएंगे कि
ज्यादातर समीक्षकों ने तीनों अभिनेत्रियों की तारीफ में पंक्तियां लिखीं। उनके
अभिनय के बारे में ट्वीट किया गया। उम्मीद की गई कि फिल्में चलेंगी। अफसोस कि आम
दर्शकों को वे फिल्में पसंद नहीं आईं। यही हाल उन सभी असफल फिल्मों का रहा,जो
जल्दबाजी में फैशन के तहत किसी हीरोइन को लेकर बनाई गईं।
हमें फिल्मों के इस नजरिए और कैटेगरी से देखना बंद
करना होगा। फिल्म को नारी प्रधान बताते ही उन फिल्मों पर दबाव बढ़ जाता है। उनके लिए निकष भी अलग हो जाता है। अगर
उन्हें आम फिल्मों की तरह ही पेश और प्रचारित किया जाए तो अपेक्षाएं नहीं
बढ़ेंगी। दर्शक भी उन्हें आम फिल्मों की तरह देखेंगे।
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