दरअसल : सिनेमा के शोधार्थी



दरअसल...
सिनेमा के शोधार्थी
-अजय ब्रह्मात्‍मज
पिछले दिनों ट्वीटर पर एक सज्‍जन ने राज कपूर की 1951 की  आवारा के बारे में लिखा कि यह 1946 में बनी किसी तुर्की फिल्‍म की नकल है। सच्‍चाई यह है कि आवारा से प्रेरित होकर तुर्की की फिल्‍म आवारे नाम से 1964 में बनी थी। राज कपूर की आवारा एक साथ तत्‍कालीन सोवियत संघ,चीन,अफ्रीका,तुर्की और कई देशों में लोकप्रिय हुई थी। जन्‍म और परिवेश से व्‍यक्तित्‍व के निर्माण के बारे में रोचक तरीके से बताती यह फिल्‍म वास्‍तव में इस धारणा को नकारती है कि व्‍यक्ति पैदाइशी गुणों से संचालित होता है। अभी तक आवारा के विश्‍वव्‍यापी प्रभाव पर विश्‍लेषणात्‍मक शोध नहीं हुआ है। अगर कोई विश्‍वद्यालय,संस्‍थान या चेयर पहल करे तो भारतीय फिल्‍मों के प्रभाव की उम्‍दा जानकारी मिल सकती है।
सही जानकारी के अभाव में आवारा के बारे में फैली सोशल मीडिया सूचना को सही मान कर लोग आगे बढ़ा रहे हैं। एक तो मानसिकता बन गई है कि हम केवल चोरी ही कर सकते हैं। हीनभावना से ग्रस्‍त समाज किसी प्रतिमा के टूटने पर भी गर्व महसूस करता है। उसे बांटता और फैलाता है। सिनेमा पर हो रहा लेखन मुख्‍य रूप से फिल्‍म स्टारों की जीवन शैली में सिमट रहा है। अब क्राफ्ट की बातें नहीं होतीं। थेड़ा-बहुत गंभर काम हो भी रहा है तो देश में फिल्‍म पत्रिकाओं और जर्नल के अभाव से फिल्‍मों पर हो रहे शोध और लिखे जा रहे निबंधों की जानकारी नहीं मिल पाती है। सूची बनायी जाए तो भारतीय विश्‍वविद्यालयों में हुए सैकड़ों शोधों के बारे में पता चलेगा। सिनेमा पर व्‍यवस्थित अध्‍ययन,संकलन और दस्‍तावेजीकरण का काम नहीं हो रहा है। इन दिनों हर शैक्षणिक संस्‍थान में मीडिया की पढ़ाई हो रही है। स्‍पष्‍ट पाठ्यक्रम और योग्‍य शिक्षकों के अभाव में अधकचरी जानकारियां ही बढ़ाई जा रही हैं। दशकों पुरानी अवधारणाओं और सिद्धांतों के बारे में शिक्षक बता रहे हैं। लोकप्रिय संचार माध्‍यमों में गंभारता और विश्‍लेषण के लिए जगह नहीं होती। रंगीन और आकर्षक तस्‍वीरों से स्‍पेस भर दिया जाता है। पाठ के रूप में छिछली सूचनाएं होती हैं।
पिछले दिनों बनारस और इलाहाबाद की यात्राओं में कुछ शोधार्थियों से भेंट हुई। बनारस हिंदम विश्‍वविद्यालय और इलाहाबाद विश्‍वविद्यालयों में शोध कर रहे इन छात्रों को उनके गाइड से ही मुख्‍य मदद मिल रही है। सिनेमा पर शोध करने वालों पर साथी,अभिभावक और शिक्षक हंसते हैं। भला हो ललित मोहन जोशी और फरीद काज़मी जैसे शिक्षकों और गाइड का कि वे अपनी जिद और जोश से छात्रों को शोध के लिए प्रोत्‍साहित करते हैं। मुझे बनारस में अमृता और इलाहाबाद में अंकित व अंकिता मिले। ये तीनों किसी मीडिया विभाग के छात्र नहीं हैं। इतिहसा,राजनीति शास्‍त्र और मानवविज्ञान के नवभागों में उन्‍होंने सिनेमा पर शोध करने का फैसला किया है। उनके शोधों से नए तथ्‍य साने आएंगे। हिंदी सिनेमा की प्रवृतियों के साथ खासियतों के बारे में भी पता चलेगा। अच्‍छी बात यह भी है कि वे अपने शोध हिंदी में लिख रहे हैं।
हिंदी सिनेमा पर इन दिनों अंग्रेजी में काफी शोध और लेखन हो रहा है। कुछ जीवनियां और आत्‍मकथाएं भी प्रकाशित हुई हैं। हिंदी के प्रकाशक इस दिशा में आगे नहीं बढ़ रहे हैं। वे पुस्‍तक लेखन के लिए आवश्‍यक अग्रिम राशि देने में सकुचाते हैं। वे जीरो या मामूली निवेश कर अधिकाधिक लाभ कमाना चाहते हैं। हिंदी सिनेमा पर पुस्‍तकों और पाठ्य सामग्रियों की मांग के बावजूद वे पहल लहीं कर रहे हैं। सिनेमा पर पुस्‍तक के नाम पर श्रद्धा गीत गाए जा रहे हैं या फिर चटपटे टायटल से लेखों के संकलन तैयार किए जा रहे हैं। अंग्रेजी में हो रहा अधिकांश लेखन हिंदी सिनेमा को विदेशी पाठकों से इंट्रोड्यूस कराने में लगा रहता है। देश के दर्शकों और पाठकों के लिए इन किताबों में कुछ खास नहीं होता।
देश में सिनेमा के शोधार्थियों की आवश्‍यकता है। उन्‍हें सरकार,संस्‍थान और समाज का समर्थन मिले तो हम देश के 100 से अधिक सालों के गौरवपूर्ण अतिहास को समझ पाएंगे। कुछ बात है कि हस्‍ती मिटती नहीं भारतीय फिल्‍मों की...यह आज भी हालीवुड के आक्रामक प्रचार और बाजार के बावजूद टिका हआ है।
@brahmatmajay
abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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