रोज़ाना : नामलेवा भी नहीं रहे
रोज़ाना
नामलेवा भी नहीं रहे
-अजय ब्रह्मात्मज
1943 में 1 मई मजदूर दिवस के दिन इप्टा(इंडियन पीपल्स
थिएटर एसोशिएसन) का गठन हुआ था। इसके स्थपना दिवस पर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की
खामोशी गौरतलब है। इप्टा,मुंबई ने नाट्य समारोह जरूर किया,लेकिन फिल्मों से जुड़े
इप्टा के सदस्यों में कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी। देश की वर्तमान स्थिति में
वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों की निष्क्रियता हैरान नहीं करती। लेफ्ट पार्टियां ही
हाशिए पर पहुंच कर लुप्त होने की तैयारी में हैं। हां,वामपंथी सोच और दर्शन अवश्य
लंबे समय तक राजनीति और समाज को प्रभावित करता रहेगा,क्योंकि वंचितों की चिंता और
सबकी समानता पूंजीवादी मानववाद को भी आलोडि़त करता है।
सिनेमा के इस कॉलम में इप्टा की 75वें साल में प्रवेश
करने के मौके पर उसके पिछले योगदान को याद करना मुनासिब है। 1943 में सांस्कृतिक
संस्था के तौर पर स्थापित होने के बाद इप्टा ने सामान्य तौर पर देश भर में
सांस्कृतिक अभियान चलाया और प्रगतिशील चेतना का अलख जगाया। उस समय मुंबई इप्टा
में सक्रिय सदस्यों ने हिंदी फिल्मों को गढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई। मुख्य
रूप से सोवियत संघ के समाजवाद से प्रेरित संस्कृतिकर्मियों ने सिनेमा की
सामाजिकता की बातें कीं। देश की जमीनी हकीकत को सिनेमा का विषय बनाया। उन्होंने फिल्मों
की कहानी,एकिटंग और गीत-संगीत में भी प्रगतिशील सोच का समावेश किया,जिसका असर
हिंदी के लोकप्रिय सिनेमा पर भी पड़ा। आठवें दशक का पैरेलल सिनेमा भी कहीं ना कहीं
इस सोच का ही प्रतिफल था।
सिर्फ नाम भी लें तो इप्टा से आई हस्तियों में अभिनेताओं
में बलराज साहनी,एके हंगल और उत्पल दत्त मुख्य नाम हैं। इप्टा में सक्रिया
चेतन आनंद के छोटे भाई देव आनंद और शैलेन्द व ख्वाजा अहमद अब्बास के दोस्त राज
कपूर भी वाम और नेहरू की सोच से प्रभावित फिल्में लेकर आए। संगीतकारों में अनिल
विश्वास,सलिल चौधरी,हेमंत कुमार,रविशंकर आदि इप्ठा के नाटकों से ही आए थे।
प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़े साहिर लुधियानवी,मजरूह सुल्तानपुरी,शैलेन्द्र,प्रेम
धवन,ख्वाजा अहमद अब्बास,वीपी साठे और कैफी आजमी ने तो लंबी पारी खेली और अपनी
रचनाओं से हिंदी फिल्मों को समृद्ध किया।‘नीचा नगर’,’घरती के लाल’ और यहां तक कि ‘आवारा’ जैसी फिल्में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वाम सोच से
प्रभावित रहीं।
कम लोगों का मालूम और याद होगा कि 1947 में देश के
आजाद होने के समय जब तत्कालीन बांबे ‘हिंदू बांबे’ और ‘मुस्लिम बांबे’ में बंटा हुआ था,तब इप्टा के नेतृत्व में बांबे के अनेक
संगठनों ने भारी जुलूस निकाला था। पांचवें और छठे से आरंभ प्रगतिशील चेतना हिंदी
फिल्मों में सांसें लेती रही है। माना जाता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री किसी
भी प्रकार के भेदभाव का पालन नहीं करती और फिल्मों में मोटे तौर पर गरीबों के हित
में सोचती है। हिंदी फिल्मों का वर्ल्डव्यू बनाने में इप्टा का बड़ा योगदान
रहा है।
उम्मीद थी कि इस बार कोई बैठक,सेमिनार या किसी इवेंट
के जरिए इप्टा के इस योगदान को रेखांकित किया जाएगा,लेकिन कल तो कोई नामलेवा भी न
मिला ‘इप्टा’ का। मालूम नहीं यह हताशाहै या निराशा है या यही सच्चाई है।
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