राजा है बेगम का गुलाम - विद्या बालन
-अजय ब्रह्मात्मज
फिल्मों के फैसले हवा में भी होते हैं।’हमारी अधूरी कहानी’ के प्रोमोशन से महेश भट्ट
और विद्या बालन लखनऊ से मुंबई लौट रहे थे। 30000 फीट से अधिक ऊंचाई पर जहाज में
बैठे व्यक्ति सहज ही दार्शनिक हो जाते हैं। साथ में महेश भट्ट हों तो बातों का
आयाम प्रश्नों और गुत्थियों को सुलझाने में बीतता है। जिज्ञासु प्रवृति के महेश भट्ट ने विद्या बालन
से पूछा,’क्या ऐसी कोई कहानी या रोल है,जो
अभी तक तुम ने निभाया नहीं ?’ विद्या ने कहा,’मैं ऐसा कोई रोल करना चाहती हूं,जहां मैं अपने गुस्से को
आवाज दे सकूं।‘भट्ट साहब चौंके,’तुम्हें गुस्सा भी आता है?’
विद्या ने गंभरता से जवाब दिया, ‘हां आता है। ऐसी ढेर सारी
चीजें हैं। खुद के लिए। दूसरों के लिए भी महसूस करती हूं। फिर क्या था, तीन-चार
महीने बाद वे यह कहानी लेकर आ गए।
‘बेगम जान’ स्वीकार करने की वजह थी।
अक्सर ऐसा होता है कि शक्तिशाली व सफल होने की सूरत में औरतों में हिचक आ जाती है।
वे जमाने के सामने जाहिर करने से बचती हैं कि खासी रसूखदार हैं। इसलिए कि कहीं लोग
आहत न हो जाएं। सामने वाला खुद को छोटा न महसूस करने लगे। हम औरतों को सदा यह
समझाया गया है कि आदमी एक पायदान ऊपर रहेगा, जबकि औरत उसके नीचे। वैसे तो मेरी
परवरिश इस किस्म के माहौल में नहीं हुई है, पर मुझे भी अपने आस-पास ऐसा कुछ महसूस
हुआ है। औरत के लिए बॉस होना जरा झिझक से लैस होता है। मर्द वह चीज आसानी से कर लेते
हैं। बेगम जान ऐसी नहीं है। वह बड़ी पॉवरफुल है। वह जब चाहे किसी को रिझा सकती है,
जब चाहे गला दबोच ले। वह फिक्र और डर से परे है। उसकी यह चीज मुझे अच्छी लगी और
मैंने हां कहा।
वैसे तो यह विभाजन काल की कहानी है।
बेगम जान की परवरिश लखनऊ की है, पर उसका कोठा पंजाब के शक्करगढ और दोरंगा इलाके
के बीच है। रेडक्लिफ लाइन के बीच में पड़ता है। बेगम जान को वह छोड़कर जाने को कहा
जाता है, पर वह फाइट बैक करती है। यह आज के दौर में भी सेट हो सकती थी। आज भी लोग
अपनी जर-जमीन के लिए लड़ते हैं। मिसाल के तौर पर मुंबई की कैंपा कोला सोसायटी के
लोग। बहरहाल, यह बहुत स्ट्रॉन्ग कैरेक्टर है। यह पीरियड फिल्म है, पर टिपिकल सी
नहीं। कॉस्ट्यूम व परिवेश को छोड़ बाकी सब आज सा ही है। हालांकि अब तो
कोठों-वोठों का कॉन्सेप्ट रहा नहीं।
उस जमाने में कोठे का कॉन्सेप्ट था।
संभ्रांत घर के लड़के शादी से पहले वहां जाते थे। पत्नी के साथ कैसे पेश आना है,
वह सिखाया जाता था। पिछली सदी के पांचवें छठे दशक तक तो कई अभिनेत्रियां भी वहीं
से ग्लैमर जगत में आई थीं। बहरहाल, मुझे यह किरदार करते हुए बड़ा मजा आया। किरदार
की तरह डायलॉग्स भी बड़े पॉवरफुल हैं। जैसे, ‘हमें किसी का हाथ यहां से
हटाए, उससे पहले उसके शरीर का पार्टिशन कर देंगे।‘ ‘महीना गिनना हमें आता है साहब, साला हर बार लाल करके जाता है।‘ गालियां तो तब भी बकते थे। साथ ही वह शिकायती स्वभाव की
नहीं है। वह अपनी सभी सदस्या से भी यही कहती है कि हम शौक से इस पेशे में नहीं आए हैं, पर आ गए हैं तो
रो-धो कर नहीं, बल्कि अपनी मर्जी से काम करना है। उसकी पहुंच राजा तक है। सिल्क
स्मिता में बेबाकपन था, पर बेगम जान में रसूख का एहसास।
मैंने बहुत साल पहले तकरीबन इसी
मिजाज की ‘मंडी’ देखी
थी। कॉलेज के दिनों में। शबाना आजमी ने उसमें कमाल का काम किया था। मैंने इरादतन ‘बेगम जान’ साइन करने के बाद उसे नहीं
देखी। वह इसलिए कि मैं उनकी बहुत बड़ी फैन हूं। फिर से ‘मंडी’ देखती तो शायद उनसे
प्रभावित हो जाती। फिर बेगम जान में मेरे अपने रंग शायद नहीं रह पाते। साथ ही यह
शबाना जी के रोल से बिल्कुल इतर है। यह अपनी शर्तों पर काम करती है। शबाना जी का
किरदार हंस-बोल कर काम निकालता था। यहां बेगम जान इलाके के राजा तक को अपनी शर्तों
पर नचाती है।
राजा के रोल में नसीरुद्दीन शाह हैं।
उनके साथ यह तीसरी फिल्म है। राजा के रोल में उनका स्त्री चरित्र भी सामने उभर
कर आया है। एक सीन है फिल्म में, जहां वे नजरें नीचीं कर बातें करते हैं। वह कमाल
का बन पड़ा है। उनके साथ-साथ फिल्म में इला अरुण हैं। सेट पर वे हंसती-नाचती नजर
आती थीं, पर कैमरा ऑन होते ही वे झट अपने किरदार में आ जाती थीं। उन्होंने अपने
थिएटर का पूरा अनुभव इस्तेमाल किया है। गौहर खान का काम मुझे ‘इश्कजादे’ में अच्छा लगा था। वह देख
मैंने श्रीजित को उनके नाम की सिफारिश की थी। संयोग से उस रोल के लिए श्रीजित की
भी पसंद गौहर ही थीं। तो हमने उन्हें टेक्सट किया। वे उस वक्त मक्का गई हुई थीं।
जवाब दिया कि वहां से आते ही वे श्रीजित से मिलेंगी। इस तरह वे बोर्ड पर आईं।
पल्लवी शारदा, मिष्टी व फ्लोरा
सैनी भी साथ में हैं। श्रीजित ने उन सबकी एक महीने के लिए अलग वर्कशॉप रखी। मेरे
साथ नहीं। वे उन सब की मुझ से एक दूरी बनाकर रखना चाहते थे ताकि बेगम जान की
अथॉरिटी को वे महसूस कर सकें। इसकी शूटिंग झारखंड के जंगलों में हुई। बड़ी चुनौतीपूर्ण
परिस्थितियों में। हमारे जाने से पहले वहां सेट टूट गया था। हम कोलकाता में
शांतिनिकेतन में रूके थे। वहां से सेट पर जाने में सवा से डेढ घंटे लगते थे।
शूटिंग मई की चिलचिलाती धूप में हुई थी तो हर रोज किसी न किसी को डिहाईड्रेशन होती
ही थी। पांव चोटिल होता ही था।
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