दरअसल : निस्संग रहे विनोद खन्ना
दरअसल....
निस्संग रहे विनोद खन्ना
-अजय ब्रह्मात्मज
इस धरा पर कुछ व्यक्तियों की मौजूदगी हमें ताकत और
ऊर्जा देती है। बात अजीब सी लग सकती है,लेकिन माता-पिता की तरह संपर्क में आए ऐसे
लोग हमें अनेक स्तरों पर सिंचित कर रहे होते हैं। विनोद खन्ना से कुछ ऐसा ही
रिश्ता था। आज उनकी मौत की खबर ने निष्पंद कर दिया। यों लगा कि मेरी जिंदगी के
मिताब से चंद पन्ने फाड़ कर किसी ने हवा में उड़ा दिए। अब यह किताब उन पन्नों के
बिना ही रहेगी।
2011 की गर्मियों की बात है। हेमामालिनी अपनी बेटी एषा
देओल को लेकर ‘टेल मी ओ खुदा’ निर्देशित कर रही थीं। फिल्म के एक अहम किरदार में विनोद
खन्ना भी थे। मुंबई से मीडिया की टीम शूटिंग कवरेज के लिए बुलाई गई थी। अब तो यह
चलन ही बंद हो गया है। बहरहाल,ऐसी यात्राओं में फिल्म यूनिट के सदस्यों से
अनौपचारिक मुलाकातें होती हैं। तय हुआ कि विनोद खन्ना बातचीत के लिए तैयार हैं।
निश्चित समय पर हमारी बैठक हुई। नमस्कार करने के बाद उनके सामने बैठते ही मुझे
काठ मार गया। जुबान तालु से चिपक गई। मैं उन्हें निहारता रहा। मुझे अवाक देख कर
वे भी चौंके,लेकिन उन्होंने ताड़ लिया कि मैं ‘फैन
मोमेंट’ में फ्रीज हो गया हूं। उन्होंने
कंधे पर हाथ रखा और अपनी नजरें फेर कर कुछ और बातें करने लगे। उन्होंने मुझे सहज
किया और अपने कीमती समय की परवाह नहीं की। वे पास में बैठे रहे। उस दोपहर कोई बात
नहीं हो सकी और उसके बाद की मुलाकातों में भी कोई बात नहीं हो सकी। भेंट-मुलाकात
के और भी अवसर आए। उन्होंने मेरी भावनाओं और आदर का हमेशा मुस्करा कर स्वागत
किया। विनोद खन्ना फिल्म इंडस्ट्री के अकेले शख्स रहे,जिनसे मैं बातचीत नहीं
कर सका।
उनसे यह रिश्ता 1971 में ही बना गया था। फारबिसगंज के
एक स्कूल में दाखिले के साथ मुझे हॉस्टल में डाल दिया गया था। उम्मीद थी कि मैं
वार्डेन की निगरानी में पढ़ाई पर ध्यान दूंगा। तब दशहरे के आसपास फारबिसगंज में
बड़ा मेला लगता था। उसमें सरकश और नौटंकी के साथ नई फिल्में देखने का मौका मिलता
था। उस साल मेले में ‘मेरा गांव मेरा देश’ लगी थी। फिल्म में डकैत बने जब्बर सिंह का आकर्षण इतना
जबरदस्त था कि मैंने दस बार से ज्यादा यह फिल्म देखी। फिल्म के सारे संवाद और
दृश्य आज भी कौंधते हैं। हिंदी की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म ‘शोले’ की प्रेरणा ‘मेरा गांव मेरा देश’ ही रही। जब्ब्र सिंह को
नए अवतार में गब्बर सिंह का नाम मिला। ‘मेरा गांव मेरा देश’ लगातार देखने से विनोद खन्ना की खास छवि दिमाग में बस गई,जो
फिल्म पत्रकारिता में सक्रिय होने और सैकड़ों फिल्म कलाकारों के इंटरव्यू और
बातचीत के बावजूद नहीं मिट सकी। विनोद खन्ना को देखते ही मैं 1971 में लौट जाता
था। एक फैन बन जाता था।
विनोद खन्ना से मिलने-मिलाने का सिलसिला उनके राजनीति
में सक्रिय होने के बाद तक रहा। बाद में उनके बेटे अक्षय खन्ना से अच्छा परिचय
होने पर उनके बारे में कई व्यक्तिगत जानकारियां मिलीं। सभी लिखते और बताते हैं कि
राहुल और अक्षय के बचपन में वे उन्हें छोड़कर रजनीश की शरण में चले गए थे। कहा
जाता है कि वे अच्छे पिता नहीं थे। इस धारणा के विपरीत अक्षय ने हमेशा अपने पिता
की तारीफ की। उनके समर्पण की बातें कीं। विनोद खन्ना ने हमेशा अपने दिल की सुनी।
अपने फैसलों पर अडिग रहे और कभी किसी फैसले को लेकर अफसोस नहीं जाहिर किया।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के वे वाहिद स्टार है,जिन्होंने
अपने उत्कर्ष के दिनों में संन्यास ले लिया और जब लौटे तो रजनीश के लाख बुलाने
पर भी लौट कर आश्रम नहीं गए। फिल्म,अध्यात्म और राजनीति तीनों ही क्षेत्रों में
वे शीर्षस्थ रहे। ग्लैमर जगत के शोरगुल में रहने के बावजूद कहीं न कहीं वे एक
सिद्ध पुरुष की तरह आजीवन निस्संग रहे।
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आपकी लेखनी पाठक से संवाद करती है। एक कुशल किस्सागो की तरह आप पाठक को अपनी दुनिया मे ला पाने में सफल होते हैं। एक बेहतरीन आलेख के लिए आपको साधुवाद।