रोज़ाना : अशोभनीय प्रयोग
रोज़ाना
अशोभनीय प्रयोग
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों श्रीजित मुखर्जी निर्देशित ‘बेगम जान’ आई। ‘बेगम जान’ में विद्या बालन नायिका हैं
और फिल्म के निर्माता हैं विशेष फिल्म्स के महेश भट्ट और मुकेश भट्ट। इस फिल्म
ने विद्या बालन और महेश भट्ट के अपने प्रशंसकों को बहुत निराश किया।
‘बेगम जान’ पंजाब में कहीं कोठा चलाती है। उसे वहां के राजा साहब की शह
हासिल है। आजादी के समय देश का बंटवारा होता है। रेडक्लिफ लाइन बेगम जान के कोठे
को चीरती हुई निकलती है। भारत और पाकिस्तान के अधिकारी चाहते हैं कि बेगम जान
कोठा खाली कर दे। 11 लड़कियों के साथ कोठे में रह रही बेगम जान अधिकारियों के जिस्म
के पार्टीशन कर देने का दावा करती है,लेकिन ताकत उसके हाथ से निकलती जाती है।
आखिरकार वह कोठे में लगी आग में बची हुई लड़कियों के साथ जौहर कर लेती है। आत्म
सम्मान की रक्षा की इस कथित मध्ययुगीन प्रक्रिया को 1947 गौरवान्वित करते हुए
दोहराना एक प्रकार की पिछड़ी सोच का ही परिचायक है। उनकी बेबसी और लाचारगी के
चित्रण के और भी तरीके हो सकते थे। प्रगतिशील महेश भट्ट का यह विचलन सोचने पर
मजबूर करता है,क्योंकि इस फिल्म की रिलीज के पहले उन्होंने कहा था कि वे अपनी
पुरानी लकीर का विस्तार कर रहे हैं। विशेष फिल्म्स के 30 वें साल में वे फिर से
‘अर्थ’ और ‘सारांश’ की जमीन पर लौटना चाहते
हैं।
इतना ही नहीं फिल्म के एक किरदार का नाम कबीर रखा गया
है। वह खल चरित्र है। वह जनेऊ पहनता है और उसने खतना भी करवा रखा है। जरूरत के
अनुसार पैसे लेकर वह हिंदू और मुसलमान दोनों की तरफ से दंगे-फसाद करवाता है। ऐसे
किरदार का नाम कबीर रखने का क्या तात्पर्य हो सकता है? कवि और सामाजिक संत के रूप में हम कबीर को जानते हैं। उन्होंने
अपनी रचनाओं में दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों की आलोचना की है। ऐसे सेक्युलर संत
का नाम एक भ्रष्ट ग़ुंडे को देकर महेश भट्ट और श्रीजित मुखर्जी ने कबीर की
प्रतिष्ठा और योगदान का धूमिल किया है। कबीर हमारी सांस्कृतिक और साहित्यिक
प्रतिमा(आयकॉन) हैं। उनके नाम के साथ ऐसा भद्दा कृत्य अशोभनीय है।
फिल्मकारों को ऐसे प्रयोगों में अतिारक्त सावधानी
बरतनी चाहिए।
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