फिल्‍म समीक्षा : बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया



फिल्‍म रिव्‍यू
दमदार और मजेदार
बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया
-अजय ब्रह्मात्‍मज

शशांक खेतान की बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया खांटी मेनस्‍ट्रीम मसाला फिल्‍म है। छोटे-बड़े शहर और मल्‍टीप्‍लेक्‍स-सिंगल स्‍क्रीन के दर्शक इसे पसंद करेंगे। यह झांसी के बद्रीनाथ और वैदेही की परतदार प्रेमकहानी है। इस प्रेमकहानी में छोटे शहरों की बदलती लड़कियों की प्रतिनिधि वैदेही है। वहीं परंपरा और रुढि़यों में फंसा बद्रीनाथ भी है। दोनों के बीच ना-हां के बाद प्रेम होता है,लेकिन ठीक इंटरवल के समय वह ऐसा मोड़ लेता है कि बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया महज प्रेमकहानी नहीं रह जाती। वह वैदेही सरीखी करोड़ों लड़कियों की पहचान बन जाती है। माफ करें,वैदेही फेमिनिज्‍म का नारा नहीं बुलंद करती,लेकिन अपने आचरण और व्‍यवहार से पुरुष प्रधान समाज की सोच बदलने में सफल होती है। करिअर और शादी के दोराहे पर पहुंच रही सभी लड़कियों को यह फिल्‍म देखनी चाहिए और उन्‍हें अपने अभिभावकों  को भी दिखानी चाहिए।
शशांक खेतान ने करण जौहर की मनोरंजक शैली अपनाई है। उस शैली के तहत नाच,गाना,रोमांस,अच्‍छे लोकेशन,भव्‍य सेट और लकदक परिधान से सजी इस फिल्‍म में शशांक खेतान ने करवट ले रहे छोटे शहरों की उफनती महात्‍वाकांक्षाओं को पिरो दिया है। लहजे और अंदाज के साथ वे छोटे शहरों के किरदारों को ले आते हैं। उन्‍होंने बहुत खूबसूरती से झांसी के सामाजिक ढांचे में मौजूद जकड़न और आ रहे बदलाव का ताना-बाना बुना है। अभी देश में झांसी जैसे हर शहर में ख्‍वाहिशें जाग चुकी है। खास कर लड़कियों में आकांक्षाएं अंकुरित हो चुकी हैं। वे सपने देखने के साथ उन पर अमल भी कर रही हैं।  उसकी वजह से पूरा समाज अजीब सी बेचैनी और कसमसाहट महसूस कर रहा है। नजदीक से देखें तो हमें अपने आसपास बद्रीनाथ मिल जाएंगे,जिन्‍हें अहसास ही नहीं है कि वे अपनी अकड़ और जड़ समझ से पिछड़ चुके हैं। ऐसे अनेक बद्री मिल जाएंगे,जो अपने माता-पिता के दबाव में रुढि़यों का विरोध नहीं कर पाते। हर बद्री की जिंदगी में वैदेही नहीं आ पाती। नतीजा यह होता है कि गुणात्‍मक और क्रांतिकारी बदलाव नहीं आ पाता।
शशांक की बद्रीनाथ की दुल्‍‍हनिया रियलिस्टिक फिल्‍म नहीं है। सभी किरदार लार्जर दैन लाइफ हैं। उनके बात-व्‍यवहार में मेलोड्रामा है। अभिनय और परफारमेंस में भी लाउडनेस है। इन सबके बावजूद फिल्‍म छोटे शहरों की बदलती सच्‍चाई को भावनात्‍मक स्‍तर पर टच करती है। फिल्‍म अपना संदेश कह जाती है। लेखक-निर्देशक किरदारों के जरिए प्रसंगों के बजाए पंक्तियों में यथास्थिति का बयान करते जाते हैं। शशांक खेतान ने किरदारों के बीच इमोशन की मात्रा सही रखी है। फिल्‍म ऐसे अनेक दृश्‍य है,जो भावुक किस्‍म के दर्शकों की आंखें नम करेंगे। शशांक ऐसे दृश्‍यों में ज्‍यादा देर नहीं रुकते।
वरुण धवन बधाई के पात्र हैं। उन्‍होंने ऐसी फिल्‍म स्‍वीकार की,जिसमें नायिका अधिक दमदार और निर्णायक भूमिका में है। हिंदी फिल्‍मों में ऐसे नायकों की भूमिका स्‍टार नहीं,एक्‍टर निभाते हैं। वरुण इस भूमिका में एक्‍टर के रूप में प्रभावित करते हैं। आलिया भट्ट आनी पीढ़ी की समर्थ अभिनेत्री हो चुकी हैं। उनके अथिनय का एक नया आयाम यहां देखने को मिलेगा। वरुण और आलिया दोनों पर्दे पर साथ होने पर अतिरिक्‍त आकर्षण पैदा करते हैं। फिल्‍म के अन्‍य किरदारों में आए कलाकार भी अपनी भूमिकाओं में सक्षम हैं। उनके योगदान से बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया ऐसी रोचक,मनोरंजक और सार्थक हो पाई है। बद्री के दोस्‍त के रूप में साहिल वैद का अलग से उल्‍लेख होना चाहिए। हिंदी फिल्‍मों के पारंपरिक किरदार दोस्‍त को उन्‍होंने अच्‍छी तरह निभाया है।
फिल्‍म में कुछ कमियां भी हैं। नाच-गानों से भरपूर मनोरंजन की कोशिश में लेखक-निर्देशक ने थोड़ी छूट ली है। कुछ दृश्‍य बेवजह लंबे हो गए हैं। कुछ प्रसंग निरर्थक हैं। फिर भी बद्रीनाथ की दुल्‍हनिया मेनस्‍ट्रीम फिल्‍मों के ढांचे में रहते हुए कुछ सार्थक संदेश दे जाती है।
अवधि-139 मिनट
***1/2 साढ़े तीन स्‍टार

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