फिल्म समीक्षा : नाम शबाना
फिल्म रिव्यू
दमदार एक्शन
नाम शबाना
-अजय ब्रह्मात्मज
नीरज पांडेय निर्देशित ‘बेबी’ में शबाना(तापसी पन्नू) ने चंद दृश्यों में ही अपनी छोटी
भूमिका से सभी को प्रभावित किया था। तब ऐसा लगा था कि नीरज पांडेय ने फिल्म को
चुस्त रखने के चक्कर में शबाना के चरित्र विस्तार में नहीं गए थे। हिंदी में ‘स्पिन ऑफ’ की यह अनोखी कोशिश है। फिल्म
के एक किरदार के बैकग्राउंड में जाना और उसे कहानी के केंद्र में ले आना। इस शैली
में चर्चित फिल्मों के चर्चित किरदारों के विस्तार में जाने लगें तो कुछ दिलचस्प
फिल्में मिल सकती हैं। किरदारों की तैयारी में कलाकार उसकी पृष्ठभूमि के बारे
में जानने की कोशिश करते हैं। अगर लेखक-निर्देशक से मदद नहीं मिलती तो वे खुद से
उसका अतीत गढ़ लेते हैं। यह जानना रोचक होगा कि क्या नीरज पांडेय ने तापसी पन्नू
को शबाना की पृष्ठभूमि के बारे में यही सब बताया था,जो ‘नाम शबाना’ में है?
‘नाम शबाना’ के केंद्र में शबाना हैं। तापसी पन्नू को टायटल रोल मिला
है। युवा अभिनेत्री तापसी पननू के लिए यह बेहतरीन मौका है। उन्होंने लेखक नीरज
पांढेय और निर्देशक शिवम नायर की सोच के मुताबिक शबाना को विदाउट मुस्कान सख्तजान
किरदार के रूप में पेश किया है। वह ‘नो नॉनसेंस’ मिजाज की लड़की है। जिंदगी के कटु अनुभवों ने उसकी मुस्कान
छीन ली है। सहज इमोशन में भी वह असहज हो जाती है। यहां तक कि अपने प्रेमी तक को
नहीं बता पाती कि वह उससे उतना ही प्यार करती है। सब कुछ तेजी से घटता है। वह
अपने एटीट्यूड की वजह से सुरक्षा एजेंसी की नजर में आ जाती है। वे उसकी मदद करते
हैं और बदले में उसका गुस्सा और जोश ले लेते हैं।
सुरक्षा एजेंसी की कार्यप्रणाली बहस का विषय हो सकती
है। सुरक्षा एजेंसी के अधिकारी स्पष्ट शब्दों में बता देते हैं कि मुस्लिम
परिवेश की होने की वजह से शबाना उनके लिए अधिक काम की है। जाहिर है कि मजहब,नाराजगी
और प्रतिरोध का फायदा दोनों पक्ष उठाते हैं – आतंकवादी और राष्ट्रीय
सुरक्षा एजेंसियां। नीरज पांडेय के लेखन में राष्ट्रवादी सोच कील झलक रहती है।
उनके किरदार देशहित में लगे रहते हैं। वे पुरानी फिल्मों के किरदारों की तरह
देशभक्ति ओड़ कर नहीं चलते। इसी फिल्म में शबाना किडो में इंअरनेशनल अवाड्र लाना
चाहती है।
तापसी पन्नू फिल्म दर फिल्म निखरती जा रही हैं। उन्हें
दमदार भमिकाएं मिल रही हैं और वह किरदारों के अनुरूप खुद को ढाल रही हैं। किरदारों
की बारीकियों को वह पर्दे पर ले आती हैं। उनके एक्सप्रेशन संतुलित और किरदार के
मिजाज में होते हैं। ‘नाम शबाना’ में उन्होंने किरदार की स्फूर्ति और हिम्मत बनाए रखी है।
मनोज बाजपेयी कर्मठ व निर्मम अधिकारी के रूप में जंचे हैं। वे सचमुच बहुरूपिया
हैं। जैसा किरदार,वैसी भाव-भंगिमा। उनके पोर-पोर से संजलीदगी टपकती है। अक्षय
कुमार ने फिल्म की जरूरत के मुताबिक छोटी भूमिका निभाई है,जिसे कैमियो कहा जाता
है। लंगे समय के बाद वीरेन्द्र सक्सेना दिखे और सही लगे।
फिल्म में एक ही कमी है – कहानी। अगर नीरज पांडेय ने थोड़ा और ध्यान दिया होता तो एक
बेहतरीन फिल्म मिलती। निर्देशक शिवम नायर ने मिली हुई स्क्रिप्ट के साथ न्याय
किया है। उन्होंने एक्शन,माहौल और प्रस्तुति में कोई कोताही नहीं की है। ‘नाम शबाना’ का एक्शन जमीनी और
आमने-सामने का है। एक्शन में खास कर महिला किरदार के होने की वजह से फिल्म अलग
हो गई है। तापसी पन्नू इस भूमिका में प्रभावित करती हैं।
अवधि – 148 मिनट
*** तीन स्टार
Comments