मुखर प्रतिरोध की कहानी - अनारकली
हम ने फेसबुक पर आग्रह किया था कि अगर कोई अनारकली ऑफ आरा पर लखना चाहता है तो वह अपना लेख हमें भेज दें। उसे चवन्नी पर प्रकाशित किया जाएगा। फेसबुक स्टेटस में पांच-दस पंक्तियों में सभी अपनर राय रख रहे हैं। समय के साथ वह अतीत के आर्काइव में खो जाएगाा। यहां प्रकाशित करने पर हम खोज कर पढ़ सकेंगे। बहरहाल,आप निष्ठा सक्सेना की राय पढ़ें और अपनी भेजें।
निष्ठा सक्सेना
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अविनाश दास के निर्देशन में बनी 'अनारकली ऑफ़ आरा' पेशेवर लोक गायिका के मुखर प्रतिरोध की कहानी है। वह अपनी देह पर किसी और की मनमर्जी की मुखालफत करती है। यह फिल्म हाशिये पर पड़ी
उन
औरतों की दारुण दशा प्रस्तुत करती है, जो द्विअर्थी गीत गाने के कारण
पुरुष समाज द्वारा अपनी जागीर मान ली जाती है। यह स्त्री मुक्ति के साथ एक
कलाकार के प्रतिरोध की भी आवाज है। जिस नृत्य शैली में वह लोगों का मनोरंजन
करती है उसी शैली में वह गुलामी को भी 'ना' कहती है। कला किस बेहतरीन रूप
से प्रतिरोध का स्वर बन सकती है यह बात भी फिल्म खूब दर्शाती है।
फिल्म
की शुरुआत दुष्यंत कुमार के शेर से होती है। 12 साल पहले के अनारकली की
माँ के नृत्य से कहानी दर्शकों को जोड़ती है। छोटी सी 'अनार' के मन पर उस
हादसे के दर्द गहरे धंस जाते हैं। कहानी आगे बढती है। अनारकली और उसके इर्द
गिर्द रचे किरदारों के साथ हम डूबते जाते हैं रंगीला, अनवर, वीसी साहब,
हीरामन। अनारकली सती सावित्री नहीं है और वह अपने आस पास के मर्दों को खूब
जानती है। कई उस पर मोहित हैं और उनका यह आकर्षण वह झेलना जानती है। देह पर
हमला उसकी अस्मिता के खिलाफ है। इसलिए जब विश्विद्यालय के वीसी मंच पर
सबके सामने एक शो में उसके साथ घटिया हरकत करते हैं तो वो अपनी अस्मिता के
लिए समाज और सिस्टम दोनों से लड़ जाती है।
फिल्म की कहानी हमें कहीं भी अकेला नहीं छोड़ती। सभी किरदार इतने जीवंत हैं परदे पर कि इनका सुख-दुःख हमें भीतर तक भिगो जाता है। रंगीला,
एक मजेदार किरदार जो सबसे पटरी बिठाके चलने वाला है वह सिस्टम से झगड़ा मोल
नहीं ले सकता। पेट का सवाल है। अनारकली जितनी हिम्मत उसमे नहीं। अनवर जो उसके साथ आया तो बस हमेशा साथ चलता रहा बिना किसी शर्त के। हीरामन
और उसकी निश्चलता 'जो देश के लिए कर लीजिए' कह कहकर दर्शकों के चेहरे पर
मुस्कान लाता रहा, अंत में रुला जाता है। ये अपरिभाषित रिश्ते उसके जीवन
परिदृश्य के अनकहे पहलुओं से परिचित कराते हैं। और सबसे ख़ास बड़े-बड़े पदों
पर आसीन लंपट पुरुषों की घटिया मानसिकता के प्रतीक वीसी साहब। संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, इश्तियाक अली सहित
फिल्म के सभी कलाकारों का अभिनय इतना शानदार है कि हम दर्शक खुद को आरा का
ही मानने लगते हैं जो इन घटनाओं के साक्षी हुए जा रहे हैं।
लोक गायिका की कहानी को अपने हाथों पर उठाये है इसका बेजोड़ संगीत।
पहले गीत से अंतिम गीत तक हम उसके सहारे पहुँच जाते हैं। कोई भी गीत बेवजह
ठूंस हुआ नहीं लगता हर गीत की अपनी जरुरत है। चाहे ठुमरी हो या राजनैतिक
तंज लिए हुए 'मोरा पिया'। और बेहद शानदार गीत है जब वो अपनी गुलामी को
नकारने का बिगुल बजाती है तो हम सुनकर स्तब्ध रह जाते हैं। देशज भाषा में
स्त्री मुक्ति का स्वर हमारे रौंगटे खड़े कर देता है। स्वरा की नृत्य
भंगिमाएं गज़ब की हैं। मुझे याद नहीं आता पिछले कुछ सालों में इतना बेहतरीन
अंत किसी फिल्म का हुआ हो।
स्वरा भास्कर तो
इस फिल्म की जान हैं। कहीं से भी देखो वे अनारकली ही लगतीं हैं, उस जमीन
में रची बसी। यह उनका बेस्ट परफॉर्मंस है। इसमें ड्रेस डिजाइनर की भी
सराहना करनी होगी जिन्होंने अनारकली को नकली होने से बचाया।
निर्देशन
तो काबिले तरफ है ही। जिस फिल्म में अश्लीलता की ढेरों संभावनाएं थीं उस
फिल्म को उससे बचाके निकाल ले जाना निर्देशक का अपनी कहानी पर विश्वास
दिखाता है। जो भी दृश्य हैं बस उतने ही जिसके बिना कहानी न कही जा सके। एक
एक दृश्य बेहद सुंदर। संवाद बहुत ही गज़ब हैं। यह फिल्म निर्देशन, अभिनय,
संगीत सबके लिए बहुत लंबे समय तक याद रहेगी। और स्त्री मुक्ति का मुखर स्वर
लिए यह फिल्म मील का पत्थर साबित होगी।
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