हीरो बनने की है तैयारी : मोहम्मद जीशान अय्युब
हीरो बनने की है तैयारी : मोहम्मद जीशान अय्युब
-अजय
ब्रह्मात्मज
‘रईस’ में रईस की परछाई है सादिक। उसे समर्थ अभिनेता मोहम्मद जीशान
अय्युब ने निभाया है। उनके काम से खुद शाह रुख खान भी बड़े खुश व संतुष्ट हैं।
उन्होंने खुलकर जीशान अय्युब की तारीफें की हैं।
अभिभूत
जीशान अय्युब कहते हैं,’ यह उनका बड़प्पन है। मैं तो
ऐसे रोल कई बार कर चुका हूं। यह चौथी बार था। मैंने सादिक को गरिमा की चादर ओढाई।
इससे वह महज हीरो का आम सा दोस्त नहीं लगा। वह अलग रंग-ढंग में नजर आया। आमतौर पर ऐसे
किरदारों को खुली छूट नहीं मिलती। यहां ऐसा नहीं हुआ। शाह रुख ने मुझे पूरी आजादी
दी। वे लगातार कहते रहे कि फलां डायलॉग जीशान से बुलवाओ। फलां बातचीत में दोनों के
बीच समान बहस होनी चाहिए। यह नहीं कि रईस ही सादिक पर भारी पड़े। वे खुद को जमकर
रिहर्सल करते हैं हीं, मुझे भी खूब करवाते थे। सीन को टिपिकल फिल्मी शूटिंग की तरह
नहीं, बल्कि जैसा थिएटर में नाटकों के दौरान कलाकारों का तालमेल होता है, उस मिजाज
से शाह रुख खान ने काम किया। करवाया भी।‘
अक्सर सेट
पर हीरो के फ्रेंड को अलग तरीके से ट्रीट किया जाता है। वह यूं कि माइक पर
चिल्लाते हुए हीरो के दोस्त को बुला लाओ। उसे कहीं भी खड़ा कर दो। बस। यहां ऐसा
नहीं था। सादिक को भी अहम किरदार के तौर पर ट्रीट किया गया। इससे मुझे मोटिवेशन तो
मिली ही, मुझे खुद में जिम्मेदारी का एहसास भी हुआ। सादिक इस मायनों में भी अलग
रहा कि वह सच्चे हितैशी की तरह अपने जिगरी दोस्त से सवाल करता रहता है। हर फैसलों
की परिणति की ओर आप का ध्यान अवगत करवाता है। रईस दरअसल पूरी फिल्म ही फैसले लेने
को समर्पित है। सादिक उसमें मदद करता है।
इस ‘दोस्ती’ से ऊबन नहीं हुई है। रील
दोस्ती निभाते-निभाते इंडस्ट्री में कइयों से रियल दोस्ती भी हो गई है। मैं इस
कथित ‘टाइपकास्ट’ होने को नकारात्मक तौर पर नहीं लेता हूं। हालांकि हर कलाकार
की ख्वाहिश ऐसे किरदारों से होते हुए मेन लीड की तरफ का सफर तय करने की होती है।
मेरी जहां तक बात है, उस दिशा में मेरी तैयारी है। अलबत्ता वह मौका मिलने पर आप पर
दायित्व बहुत बढ़ जाता है। उस लिहाज से ‘कथा’ की है। वह रिलीज होनी है। इसमें मैंने नसीर साहब वाला रोल
किया है। एक ‘समीर’ की
शूटिंग पूरी की है। एक और फिल्म की शूटिंग लखनऊ में की है। उसमें भी हीरो मैं ही
हूं। मतलब यह कि उस मिजाज की फिल्में मिल तो रही हैं, पर कई ऐसे ऑफर भी मिले हैं,
जिन्हें महज करने की खातिर करने का जी नहीं करता। आप यकीन नहीं करेंगे, अब तलक
मुझे 17 ऐडल्ट कॉमेडी ऑफर हुई थीं। मुझे बड़ी हैरानगी हुई। मैंने ऑफर करने वालों
से पूछा भी कि उन्हें मेरा कौन सा काम देख कर लगा कि मैं सेक्स कॉमेडी कर सकता हूं।
असल में जबकि पूरे करियर में मैंने कभी उस किस्म की कॉमेडी नहीं की।
काम के
अलावा अपनी रचनात्मक खुराक के लिए मैं कविताओं और नाटकों के सतत संपर्क में रहता
हूं। उनमें की गई मेहनत से अदायगी में रवानगी बनाए रखने में मदद मिलती है। खासकर
शूटिंग के दौरान मैं कविताएं इत्यादि पढ़ता रहता हूं। इससे दिमाग अलर्ट रहता है।
साथ ही लिखे गए शब्दों के क्या मायने निकालने हैं, उस पर सक्रियता बनी रहती है। उस
दौरान किस किस्म की भाव-भंगिमा रखनी है, उसका पता चलता रहता है। चीखना, चिल्लाना
तो हम तीन महीनों में भी सीख जाते हैं, पर हर भाव को किस हद तक जाहिर करना है, वह
सलाहियत मुझे साहित्य से आती है।
मिसाल के
तौर पर ‘रईस’ के
दौरान मैं प्रेमचंद की कहानियां पढ़ रहा था। खासकर मानसरोवर। मैंने दो मानसरोवर
पढ़ डाली। वह इसलिए कि यहां हर क्षण नई चुनौतियां उसके व रईस के समक्ष उत्पन्न हो
रही थीं। तभी मैं उपन्यास में नहीं गया, वरना वो किसी और जोन में ले जाती मुझे।
करियर को लेकर भी मेरा अप्रोच अलग है। मैं बेचैनी वाले जोन में नहीं रहता। वह
इसलिए कि पहले तो कुछ भी नहीं था मेरे पास। अब सोच से अधिक ही मिल रहा है। तो मैं
खुश रहता हूं। हालांकि सोशल मीडिया और कुछ दोस्तों की त्वरित प्रतिक्रियाएं डराती
भी हैं।
इस तरह अब
अतीत के पन्ने पलटता हूं तो मुझे मुंबई आने का फैसला सही लग रहा है। वह इसलिए कि
मैं तो अमेरिका जा रहा था न्यू स्ट्रासबर्ग में पढ़ाने। मैं तो मुंबई महज घूमने
को आया था पत्नी को सेटल करने भी। चूंकि वे मराठी हैं तो उन्हें अतिरिक्त भाषा की
फिल्म व शो मिलते हैं। मैं एक साल हैदराबाद भी पढ़ा था। यहां स्कूल भी खोलने को
था, पर देखिए कि जिंदगी ने क्या मोड़ ले लिया। पत्नी अब ‘इंडियाज बेस्ट ड्रामेबाज’ की मेंटॉर भी है। हमारी
नाट्य संस्था भी है। ‘बीइंग एसोसिएशन’। इसकी भी कर्ता-धर्ता वे ही हैं। साहित्य को प्रोमोट करने
के लिए हम इसके तहत रंग पाठ भी करते हैं। यानी अलग-अलग लेखकों की कहानियों का
मजेदार ढंग से पाठ। यह हम हर महीने करते हैं।
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