फिल्‍म समीक्षा : द गाजी अटैक



फिल्‍म रिव्‍यू
युद्ध की अलिखित घटना
द गाजी अटैक
-अजय ब्रह्मात्‍मज
हाल ही में दिवंगत हुए ओम पुरी की मृत्‍यु के बाद रिलीज हुई यह पहली फिल्‍म है। सबसे पहले उन्‍हें श्रद्धांजलि और उनकी याद। वे असमय ही चले गए।
द गाजी अटैक 1971 में हुए भारत-पाकिस्‍तान युद्ध और बांग्‍लादेश की मुक्ति के ठीक पहलं की अलिखित घटना है। इस घ्‍सटना में पाकिस्‍तानी पनडुब्‍बी गाजी को भारतीय जांबाज नौसैनिकों ने बहदुरी और युक्ति से नष्‍ट कर दिया था। फिल्‍म के मुताबिक पाकिस्‍तान के नापाक इरादों को कुचलने के साथ ही भारतीय युद्धपोत आईएनएस विक्रांत की रक्षा की थी और भारत के पूर्वी बंदरगाहों पर नुकसान नहीं होने दिया था। फिल्‍म के आरंभी में एक लंबे डिस्‍क्‍लेमर में बताया गया है कि यह सच्‍ची घटनाओं की काल्‍पनिक कथा है। कहते हैं क्‍लासीफायड मिशन होने के कारण इस अभियान का कहीं रिकार्ड या उल्‍लेख नहीं मिलता। इस अभियान में शहीद हुए जवनों को कोई पुरस्‍कार या सम्‍मन नहीं मिल सका। देश के इतिहास में ऐसी अनेक अलिखित और क्‍लासीफायड घटनाएं होती हैं,जो देश की सुरक्षा के लिए गुप्‍त रखी जाती हैं।
द गाजी अटैक ऐसी ही एक घटला का काल्‍पलिक चित्रण है। निर्देशक संकल्‍प ने कलाकारों और तकनीशियनों की मदद से इसे गढ़ा है। मूल रूप से तेलुगू में सोची गई द गाजी अटैक भारतीय सिनेमा में विषय और कथ्‍य के स्‍तर पर कुछ जोड़ती है। निर्माता और निर्देशक के साथ इस फिल्‍म को संभव करने में सहयोगी सभी व्‍यक्तियों को धन्‍यवाद कि उन्‍होंने भारतीय दर्शकों को एक रोचक युद्ध फिल्‍म दी। हिंदी में युद्ध फिल्‍में नहीं की संख्‍या में हैं। कुछ बनी भी तो उनमें अंधराष्‍ट्रवाद के नारे मिले। दरअसल,ऐसी फिल्‍मों में संतुलन बनाए रखना मुश्किल होता है। राष्‍ट्रीय चेतना की उग्रता अंधराष्‍ट्रवाद की ओर धकेल देती है। द गाजी अटैक में लेखक-निर्देशक ने सराहनीय सावधानी बरती है। हालांकि इस फिल्‍म में जन गण मन और सारे जहां से अच्‍छा एक से अधिक बार सुनाई देता है,लेकिन वह फिल्‍म के कथ्‍य के लिए उपयुक्‍त है। युद्ध के दौरान जवानों का मनोबल ऊंचा रखने के लिए यह आवश्‍यक है।
द गाजी अटैक सीमित संसाधनों में बनी उल्‍लेखनीय युद्ध फिल्‍म है। यह मुख्‍य रूप से किरदारों के मनोभावों पर केंद्रित रहती है। संवाद में पनडुब्‍बी संचालन के तकनीकी शब्‍द अबूझ रहते हैं। निर्देशक उन्‍हें दृश्‍यों में नहीं दिखाते। हमें कुछ बटन,स्‍वीच,पाइप और यंत्र दिखते हैं। पनडुब्‍बी का विस्‍तृत चित्रण नहीं है। किरदारों के कार्य व्‍यापार भी चंद केबिनों और कमरों तक सीमित रहते हैं। पनडुब्‍बी के समुद्र में गहरे उतरने के बाद निर्देशक किरदारों के संबंधियों तक वापस नहीं आते। नौसेना कार्यालय और उनके कुछ अधिकारियां तक घूम कर कैमरा भारतीय पनडुब्‍बी एस-21(आईएनएस राजपूत) और पाकिस्‍तानी पनडुब्‍बी पीएनएस गाजी के अंदर आ जाता है।
पाकिस्‍तानी पनडुब्‍बी के कैप्‍टर रजाक हैं,जिनके कुशल और आक्रामक नेतृत्‍व के बारे में भारतीय नौसैनिक अधिकारी जानते हैं। भारतीय पनडुब्‍बी की कमान रणविजय सिहं को सौंपी गई है। रणविजय की छोटी सी पूर्वकथा है। उनका बेटा 1965 में ऐसे ही एक क्‍लासीफायड अभियान में सरकारी आदेश के इंतजार में शहीद हो चुका है। रणविजय पर अंकुश रखने के लिए अर्जुन को संयुक्‍त कमान दी गई है। उनके साथ पनडुब्‍बी के चालक देवराज हैं। तीनों अपनी युक्ति से गाजी के मंसूबे को नाकाम करने के साथ उसे नष्‍ट भी करते हैं। रणविजय और अर्जुन के सोच की भिन्‍नता से ड्रामा पैदा होता है। दोनों देशहित में सोचते हैं,लेकिन उनकी स्‍ट्रेटजी अलग है। लेखक दोनों के बीच चल रहे माइंड गेम को अच्‍छी तरह उकेरा है। उनके बीच फंसे देवराज समय पर सही सुझाव देते हैं। युद्ध सिर्फ संसाधनों से नहीं जीते जाते। उसके लिए दृढ़ इच्‍छाशक्ति  और राष्‍ट्रीय भावना भी होनी चाहिए। यह फिल्‍म पनडुब्‍बी के नौसेना जवानों के समुद्री जीवन और जोश का परिचय देती है।
मुख्‍य कलाकारों केके मेनन,अतुल कुलकर्णी,राहुल सिंह और राणा डग्‍गुबाती ने उम्‍दा अभिनय किया है। सहयोगी कलाकारों के लिए अधिक गुजाइश नहीं थी। फिल्‍म में महिला किरदार के रूप में दिखी तापसी पन्‍नू का तुक नहीं दिखता।
अवधि- 125 मिनट
स्‍टार तीन स्‍टार

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