दरअसल... पर्दे से गायब आज के प्रेमी युगल
दरअसल...
पर्दे से गायब आज के प्रेमीयुगल
-अजय ब्रह्मात्मज
आसपास में नजर दौड़ाएं। कई प्रेमीयुगल मिल जाएंगे। शहर
की आपाधापी में नियमित जिंदगी जी रहे ये प्रेमी युगल आकर्षित करते हैं। उनके बीच
कुछ ऐसा रहता है कि दूसरे प्रभावित और प्रेरित होते हैं। दकियानूसी और रूढि़वादी
प्रौढ़ों और बुजुर्गो को उनसे चिढ़ हो सकती है। उनकी खुली सोच और एक-दूसरे को दी
गई आजादी उन्हें खल सकती है,लेकिन कभी उनसे बात कर देखें तो वे दिल में दबे प्रेम
का किस्सा बयान करने से नहीं चूकेंगे। साथ में यह भी जोड़ देंगे कि हमारी कुछ
मजबूरियां थीं,कुछ जिम्मेदारियां थीं... नहीं तो आज हम भी अपनी या अपने उनके साथ
रह रहे होते। प्रेम और साहचर्य ऐसी मजबूरियों और जिम्मेदारियों के बीच ही होता
है। सबसे पहले जरूरी होता है कि हम समाज के रूढि़गत ढांचे से निकलें। जाति,धर्म और
लिंग की पारंपरिक धारणाओं से निकलें। कई बार यह परवरिश से होता है,लेकिन ज्यादातर
सोहबत व संगत से होता है।
वैलेंटाइन डे तीन दिन पहले ही बीता है। इस मौके पर
सोशल मीडिया आबाद रहा। खास कर युवाओं के बीच बहुत उम्दा उत्साह रहा। अच्छी बात
है कि कट्टरपंथियों ने किसी प्रकार का उत्पात नहीं किया। हालांकि कुछ पोंगा पंडित
इस अवसर पर भी कुछ और याद दिलाने की कोशिश करते रहे। प्रेम मनुष्य को स्वच्छंद
करता है। असल प्रेमी न तो बंधन स्वीकार करता है और न किसी पर बंधन थोपता है। गौर
करें तो प्रेम में दोनों मुक्त होते हैं। यह कथित आध्यात्मिक मोक्ष के पहले का
चरण है। प्रेमहीन या प्रेमबाधित मनुष्य को इसका एहसास नहीं हो सकता। हिंदी फिल्मों
में प्रेम के विभिन्न रूपों को फिल्मकार दिखाते रहे हैं। लंबे समय तक हिंदी फिल्मों
में प्रेम एक विद्रोही विचार रहा है। आजादी के बाद के सालों के समाज और फिल्मों
में प्रेम हासिल कर लेना आसान नहीं था। नायक-नायिका का पूरा संघर्ष इसी प्रेम के
लिए रहता था। समय और परिस्थिति के हिसाब से प्रेम के दुश्मन बदलते रहे। प्रेम का
स्वरूप भी बदला,लेकिन आज भी प्रेम हिंदी फिल्मों का स्थायी भाव है। वह झांक ही
जाता है। पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि हिंदी में शुद्ध प्रेम कहानियां नहीं
बन रही हैं। नायिक-नायिका का मुख्य कार्य व्यापार प्रेम नहीं रह गया है। अच्छी
रोमांटिक फिल्में नहीं आ रही हैं।
इन दिनों इम्तियाज अली के अलावा और कोई ऐसा फिल्मकार
नहीं दिखता,जो प्रेम को एक्सप्लोर कर रहा हो। इस साल उनकी ‘रहनुमा’ आएगी। यह थोड़ी मैच्योर लव
स्टोरी है। ‘तमाशा’ के
बाद वे फिर से विदेश की धरती पर अंकुरित होते प्रेम को दिखाएंगे। यही शिकायत है।
हमें ऐसी प्रेम कहानियां नहीं मिल रही हैं,जिनमें आज के महानगर हों। देश के कस्बे
और छोटे शहर हों। छोटे शहरों से बड़े शहरों में आए युवक-युवतियों के सपनों और
आकांक्षाओं के बीच पनपती प्रेम कहानियां हों। प्रेम हो,लिव इन रिलेशन हो और विवाह
हो। हम आसपास के प्रेमी युगलों पर ही फिल्में बनाएं तो कई सकारात्मक और उम्मीदों
से भरी कहानियां आ जाएंगी। न जाने क्यों फिल्मों के मुख्य विषय के लिए प्रेम
अवांछित हो रहा है। प्रेम कहानियां शुरू भी होती हैं तो वे भटक जाती हैं। शहर छूट
जाता है। गलियां नहीं दिखती। प्रेमी युगलों के ठिए नजर नहीं आते। हर नुक्कड़ पर
बने कैफे नहीं दिखते। फिल्मों में कैफे में विचरते युवा कॉफी की खुश्बू के साथ
नहीं आ पाते। प्रेम कहानियां भी भावनाओं और उलझनों की कंदराओं में घुस जाती है। दो
किरदार...नायक और नायिका रह जाते हैं। समय और समाज गायब हो जाता है।
सचमुच समकालीन यानी आज की प्रेम कहानियों की जरूरत है।
हमारे आसपास के प्रेमी युगल जिंदा चरित्र हैं। उन्हें कहानियां में लाने की जरूरत
है।
--------
Comments