फिल्म समीक्षा - अलिफ
फिल्म रिव्यू
पढ़ना जरूरी है
अलिफ
-अजय ब्रह्मात्मज
जैगम इमाम ने अपनी पिछली फिल्म ‘दोजख’ की तरह ही ‘अलिफ’ में बनारस की जमीन और
मिट्टी रखी है। उन्होंने बनारस के एक मुस्लिम मोहल्ले के बालक अलिफ की कहानी
चुनी है। अलिफ बेहद जहीन बालक है। शरारती दोस्त शकील के साथ वह एक मदरसे में
पढ़ता है। कुरान की पढ़ाई के अलावा उनकी जिंदगी में सामान्य मौज-मस्ती है। लेखक
व निर्देशक जैगम इमाम बहुत सादगी से मुस्लिम मोहल्ले की जिंदगी पर्दे पर ले आते
हैं। बोली,तहजीब,तौर-तरीके और ख्वाहिशें.... ‘मुस्लिम सोशल’ की श्रेणी में यह फिल्म रखी जा सकती है,लेकिन यह नवाबों की
उजड़ी दुनिया नहीं है। यह बनारस की एक आम बस्ती है,जो अपनी आदतों और रवायतों के
साथ धड़क रही है।
अलिफ की जिंदगी में तब हलचल मचती है,जब दशकों बाद उसकी
फूफी पाकिस्तान से आ जाती हैं। दुखद अतीत की गवाह फूफी जहरा रजा आधुनिक सोच की
हैं। उनकी निजी तकलीफों ने उन्हें जता दिया है कि दुनिया के साथ जीने और चलने में
ही भलाई है। वह जिद कर अपने भतीजे अलिफ का दाखिला कवेंट स्कूल में करवा देती हैं।
वह चाहती हैं कि वह बड़ा होकर डाक्टर बने। दुनियावी इल्म हासिल करे ताकि वह तरक्की
कर सके। दाखिले के बाद अलिफ की मुश्किले बढ़ती हैं। अलिफ के परिवार को दकियानूसी
समाज का सामना करना पड़ता है तो अलिफ स्कूल में एक टीचर के पूर्वाग्रहों को झेलता
और अपमानित होता है।
फिल्म का एक सहज संदेश है कि जीने के लिए लड़ना
नहीं,पढ़ना जरूरी है। फिल्म इल्म और दुनियावी इल्म की पुरजोर हिमायत करती है।
आधुनिक सोच की पढ़ाई के लिए तर्क जुटाती है। ‘अलिफ’ अप्रत्यक्ष तरीके से हिंदू और मुसलमानों के बीच जमी
गलतफहमियों और अविश्वास की काई को साफ करने की कोशिश करती है,जो माहल्ले,समाज और
देश की प्रगति के लिए बाधक है। यह कथ्य प्रधान फिल्म है। लेखक व निर्देशक की
ईमानदारी और साचे पर गौर करने की जरूरत है।
जैगम इमाम स्वयं मुस्लिम परिवेश में पल-बढ़े हैं। उन्होंने
निजी अनुभवों को ही फिल्म की कहानी का रूप दिया है। पिछली फिल्म ‘दोजख’ और इस फिल्म ‘अलिफ’ में भी वे नाराज नहीं
दिखते। वे इसी समाज में मुस्लिम पहचान की बात करते हैं। वास्तव में यह अस्मिता का
ऐसा संघर्ष है,जिसमें समाज के साथ और बीच में रहते हुए ही जीत हासिल की जा सकती
है। यह फिल्म अलग होने की बात नहीं करती। जुड़ने और जीने की बात करती है,जिसके
लिए पड़ना जरूरी है।
फिल्म सीमित बजट में बनी है। शिल्प के स्तर पर
अनगढ़ है। सुधार और परिष्कार की संभावनाएं हैं। इन कमियों के बावजूद ‘अलिफ’ की तारीफ करनी होगी कि वह
जरूरी मुद्दे को बेलाग तरीके से उठाती है। उन्होंने उस बनारस को दिखाया है,जो
अमूमन हम हिंदी फिल्मों में नहीं देख पाते।
फूफी के किरदार में नीलिमा अजीम हैं। उन्होंने अपने
किरदार को सही तरीके से निभाया है। अलिफ और शकील की भूमिका में मोहम्म्द सउद और
ईशान कौरव ध्यान खींचते और याद रह जाते हैं। अलिफ की हमदर्द क्लासमेट के रूप में
आहना सिंह के एक्सप्रेशन सटीक हैं।
अवधि-120 मिनट
तीन स्टार
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