फिल्म समीक्षा : ओके जानू
फिल्म रिव्यू
ओके जानू
-अजय ब्रह्मात्मज
शाद अली तमिल के मशहूर निर्देशक मणि रत्नम के सहायक
और शागिर्द हैं। इन दिनों उस्ताद और शाग्रिर्द की ऐसी जोड़ी कमू दिखाई देती है।
शाइ अली अपने उस्ताद की फिल्मों और शैली से अभिभूत रहते हैं। उन्होंने निर्देशन
की शुरूआत मणि रत्नम की ही तमिल फिल्म के रीमेक ‘साथिया’ से की थी। ‘साथिया’ में गुलजार का भी यागदान था। इस बार फिर से शाद अली ने अपने
उस्ताद की फिल्म ‘ओके कनमणि’ को हिंदी में ‘ओके जानू’ शीर्षक से पेश किया है। इस बार भी गुलजार साथ हैं।
मूल फिल्म देख चुके समीक्षकों की राय में शाद अली ने
कुछ भी अपनी तरफ से नहीं जोड़ा है। उन्होंने मणि रत्नम की दृश्य संरचना का
अनुपालन किया है। हिंदी रीमेक में कलाकार अलग हैं,लोकेशन में थोड़ी भिन्नता
है,लेकिन सिचुएशन और इमोशन वही हैं। यों समझें कि एक ही नाटक का मंचन अलग स्टेज और
सुविधाओं के साथ अलग कलाकारों ने किया है। कलाकरों की अपनी क्षमता से दृश्य कमजोर
और प्रभावशाली हुए हैं। कई बार सधे निर्देशक साधारण कलाकारों से भी बेहतर अभिनय
निकाल लेते हैं। उनकी स्क्रिप्ट कलाकारों को गा्रे करने का मौका देती है। ‘ओके जानू’ में ऐसा ही हुआ है। समान
एक्सप्रेशन से ग्रस्त आदित्य राय कपूर पहली बार कुछ खुलते और निखरते नजर आए
हैं। हां,श्रद्धा कपूर में उल्लेखनीय ग्रोथ है। वह तारा की गुत्थियों और दुविधाओं
को अच्छी तरह व्यक्त करती है। चेहरा फोकस में हो तो उतरते,बदलते और चढ़ते हर
भाव को कैमरा कैद करता है। कलाकार की तीव्रता और प्रवीणता पकड़ में आ जाती है।
श्रद्धा कपूर ऐसे क्लोज अप दृश्यों में संवाद और भावों को अच्दी तरह व्यक्त
करती हैं। युवा कलाकारों को संवाद अदायगी पर काम करने की जरूरत है। इसी फिल्म में
गोपी का किरदार निभा रहे नसीरूद्दीन शाह मामूली और रुटीन दृश्यों में भी बगैर
मेलोड्रामा के दर्द पैदा करने में सफल रहे हैं। यह उनकी आवाज और संवाद अदायगी का
असर है। यहां तक कि लीला सैमसन अपने किरदार को भी ऐसे ही गुणों से प्रभावशाली
बनाती हैं।
फिलम की कहानी आज के युवा किरदारों के आग्रह और भ्रम
पर केंद्रित है। तारा और आदि आज के युवा ब्रिगेड के प्रतिनिधि हैं। दोनों महात्वाकांक्षी
हैं और जीवन में समृद्धि चाहते हैं। तारा आर्किटेक्अ की आगे की पढ़ाई के लिए
पेरिस जाना चाहती है। आदि का ध्येय वीडियो गेम रचने में लगता है। वह अमेरिका को
आजमाना चाहता है। आदि उसी क्रम में मुंबई आता है। वह ट्रेन से आया है। दोनों उत्तर
भारतीय हैं। तारा समृद्ध परिवार की लड़की है। आदि मिडिल क्लस का है। फिल्म में
यह गौरतलब है कि आदि को वहडयो गेम का सपना आता है तो निर्देश और सड़कों के दोनों
किनारों की दुकानों के साइन बोर्ड हिंदी में लिखे हैं,लेकिन जब वह वीडियो गेम
बनाता है तो सब कुछ अंग्रेजी में हो जाता है। शाद अली ने बारीकी से उत्तर भारतीय
के भाषायी अवरोध और प्रगति को दिखाया है। बहरहाल, इस फिल्म में भी दूसरी हिंदी
फिल्मों की तरह पहली नजर में ही लड़की लड़के को आकर्षित करती है और फिर प्रेम हो
जाता है।
‘ओके जानू’ प्रेम और करिअर के दोराहे पर खड़ी युवा पीढ़ी के असमंजस बयान
करती है। साहचर्य और प्यार के बावजूद शादी करने के बजाय लिव इन रिलेशन में रहने
के फैसले में कहीं न कहीं कमिटमेंट और शादी की झंझटों की दिक्कत के साथ ही कानूनी
दांवपेंच से बचने की कामना रहती है। हम लिव इन रिलेशन में रहने और अलग हो गए
विख्यात प्रेमियों को देख रहे हैं। उनकी जिंदगी में तलाक की तकलीफ और देनदारी नहीं
है। खास कर लड़के ऐसे दबाव से मुक्त रहते हैं। आदि और तारा दोनों ही स्पष्ट हैं
कि वे अपने ध्येय में संबंध को आड़े नहीं आने देंगे। ऐसा हो नहीं पाता। साथ
रहते-रहते उन्हें एहसास ही नहीं रहता कि वे कब एक-दूसरे के प्रति कमिटेड हो जाते
हैं। उनके सामने गोपी और चारू का साक्ष्य भी है। उन दोनों की परस्पर निर्भरता और
प्रेम आदि और तारा के लिए प्रेरक का काम करते हैं।
अपनी प्रगतिशीलता के बावजूद हम अपनी रूढि़यों से बच
नहीं पाते। इसी फिल्म में गोपी तारा से पूछते हैं कि वह करिअर और प्यार में किसे
चुनेगी? यही सवाल आदि से भी तो पूछा जा सकता
है। दरअसल, हम लड्कियों के लिए प्यार और करिअर की दुविधा खड़ी करते हैं। ‘ओके जानू’ ऐसे कई प्रसंगों की वजह से
सोच और अप्रोच में आधुनिक होने के बावजूद रूढि़यों का पालन करती है।
अवधि- 135 मिनट
तीन स्टार
Comments