हिंदी टाकीज 2(11) : आज नदी पार वाले गांव में पर्दा वाला सिनेमा लगेगा - जनार्दन पांडेय
परिचय
जनार्दन पांडेय एक आम सिनेमा दर्शक है। उत्तर प्रदेश
के सोनभद्र जिले में पला-बढ़ा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में
स्नातक करने के बाद हिन्दुस्तान हिन्दी दैनिक से जुड़ा। उसके बाद अमर उजाला
डॉट कॉम से जुड़ा। वहां तीन साल काम करने के बाद अब अपनी वेबसाइट www.khabarbattu.com में कार्यरत।
सिनेमा
में नशा है, जो मुझे चढ़ता है। जी होता है, एक के बाद एक तब देखता रहूं,
जब तक दिमाग और आंखें जवाब न दे जाएं। लेकिन नशा तो आखिर में नशा है, बुरा
ही माना जाएगा। चाहे किसी बात का हो। मम्मी ने पीट-पीट कर समझाया पर मैं
समझा नहीं।
मेरा घर उत्तर प्रदेश के उस जिले में
हैं जो यूपी को मध्य प्रदेश-झारखंड से जोड़ता है। मेरा गांव एक संपूर्ण
गांव है। किसी एक के घर में कोई घटना-दुघर्टना होती है पूरे गांव के लिए
अगले 10 दिनों तक वही मुद्दा होता है।
राष्ट्रपति
एपीजे अब्दुल कलाम की मौत की खबर 6 दिन बाद पहुंचती है। पठानकोट में हमला
हुआ तो छनते-छनते यह खबर दो-चार दिन बाद पहुंचती है। और इसके मायने यही
निकाले जाते हैं कि पूछो 'राहुल के पापा ठीक हैं न वो भी बॉर्डर पर हैं'।
मुंबई
में 26/11 हमले के छह साल बाद कोई मुंबई जाने के बारे में बात करे तो मां
रुआसी हो जाएंगी। क्योंकि छह साल पहले वहीं हमला हुआ था। फिर से कोई बम
गिरा दिया तो। हमले वहीं होते हैं।
खैर, गांव
वाले बताते हैं कि गांव में पहली टीवी डैडी को दहेज में मिली थी। तब
महाभारत देखने के लिए 200-300 लोग हमारे दलान में बैठते थे। लेकिन परिवार
था, संयुक्त। डैडी-मम्मी की टीवी पर अधिकार बड़े पापा का।
'बुश'
कंपनी की भारी-भरकम टीवी भी मेरे बड़े होने तक थमी नहीं। जिन दिनों मैं
बड़ा हुआ मेरी टीवी मम्मी की एक पुरानी साड़ी में बांधकर कोठे पर रख दी गई
थी।
इसलिए फिल्म देखने के लिए किसी चाचा-ताऊ,
भइया के घर जाना पड़ता था। वे लोग मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वह कई
तरह के इशारों में मुझे वहां चले जाने के लिए कहते थे। बाकी लड़कों की तरह
मुझे भगा नहीं सकते थे क्योंकि पहले उन्होंने मेरी टीवी का खूब दोहन किया
है।
दूसरा तरीका होता था वीडियो कास्टेड रिकॉर्डर
(वीसीआर, तब तक सीडी नहीं आई थी मेरे गांव में), जो कि किसी की शादी-व्याह
में ही आता। पर हमारा (गांव के 10-12 बच्चे) शादी-व्याह से कोई मतलब न
होता बस मिठाई खाने के अलावा। हमारा सारा ध्यान करीब रात के 12 से शुरू हो
जाने वाले वीसीआर पर टिका होता।
जिस दिन वीसीआर
आने की उम्मीद होती, शाम पांच बजे से ही खबर तैर जाती। कौन-कौन सी फिल्में
आनी हैं, इस पर जिक्र होने लगता- 'मिथुनवा क कउनो आई के नाही', अरे धरमेंदर
की उ वाली आवती ह, जउने में अमरेश पूरिया क बीचवय में बरवा रहला ('लोहा'
की बात हो रही है)। अजे देवगनवा क जिगर?
बढ़िया होंडा (छोटा
जनरेटर, वहां लाइट कुछ-कुछ घंटों के लिए आती है इसलिए), बड़े-बड़े वीसीआर
के कैसेट एक भारी सी टीवी और उसमें दिखने वाली फिल्में- बैरी कंगना, घर
द्वार, आज का अर्जुन, दिल जले, विजय पथ और सुल्तान-चांडाल-जस्टिस चौधरी आदि
में से कोई न कोई एक मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म।
एकदम
मजा आ जाता था। कितनी ही बार ऐसा हुआ कि मैं शाम को छह बजे ही अपने घर से
भाग लिया। दरअसल, घर से भागना पड़ता था, जो मेरी मम्मी को नागवार था।
घर
का बड़ा लड़का होने के नाते और जिस वक्त फिल्म का नशा पकड़ना शुरू हुआ,
उसी वक्त घर में अलगौजी (बंटवारा) होने के चलते छोटे भाई-बहनों को संभालने
घर के छोटे काम भी मेरे जिम्मे ही आ गए।
शाम को
मम्मी को घर-बासन (खाना बनाना, बर्तन धुलना, रसोई घर की पोताई करना) करना
होता था। छुटकवे इसमें परेशानी डालते थे। बच्चों को खिलाने में मेरी डैडी
की कोई दिलचस्पी थी नहीं। इसलिए मम्मी किसी-किसी दिन, रातभर रोमांचक वीसीआर
देखने के बाद सुबह-सुबह रोमांचक डंडे से स्वागत भी करती थी।
वीसीआर
के अलावा दूसरा साधन डीडी 1 पर शुक्रवार रात 9:30 आने वाली फिल्म। कितनी
शिद्दत से हम भगवान से मनाते थे कि लाइट न कटे भगवान। फिर क्या छोटे चच्चा
के यहां मस्त 50 लोगों की भीड़ में बैठकर 10 मिनट फिल्म 15 प्रचार तब देखा
जाता था जब हीरो बढ़िया से हरामी (खलनायक) का कचूमर न निकाल दे। इनमें-
जिद्दी, अर्जुन पंडित, इलाका, जंग, बुलंदी, अनाड़ी, राजा हिन्दुस्तानी आदि
थीं।
मुझे ऐसी फिल्में बिल्कुल नहीं पसंद थी जो
ज्यादातर रविवार शाम चार बजे शुरू होती थीं। उनमें बहुत उलझी हुई फिल्में
आती थीं। समझ नहीं आता था हीरो-हीरोइन चाहते क्या हैं। हरामी (खलनायक) भी
दूसरे किस्म के होते थे। और हीरो कुछ नहीं कर पाता था। आखिर में मर ऊपर से
जाता था, बगैर मतलब।
नहीं कि किसी को मार के मरे। खुद ही खुद को
मार ले रहा है। ऐसे में हम लोग क्रिकेट खेलने चले जाते थे। वो फिल्में थीं-
रोजा, दिल से, रेनकोट, एक दूजे के लिए आदि।।।
कुछ
सालों बाद सीडी (प्लेयर और सतरंगी गोले कैसेट, बेहद पेचीदा रिमोर्ट- जिस
बच्चे को चलाने आ जाए, पूछिए मत उसकी कितनी खातिरदारी होगी) आई। तब छोटी
जातियों की शादी में सिनेमा दिखने लगा। और मेरे सारे दास्तों से अलगाव हो
गया। क्योंकि बभनाने (बड़ी बिरादरी) घरों के बच्चे छोटी जाति के दरवाजे
पर जाकर नीचे बैठकर फिल्म कैसे देखेगा।
लेकिन
मुझे मंजूर था। इसमें मेरी खूब छीछालेदर हुई। कितने ही बार डैडी आकर मुझे
खाना पहुंचा जाते थे। उन्हें डर था कि कहीं लड़कवा वहां खाना न खा ले।
और
जिस किसी दिन यह चर्चा हो जाए कि आज फलाने जगह पर्दा वाला सिनेमा लगेगा
(गांव में आकर दो बांस गाड़ के उनमें पर्दा लगाकर बड़ी स्क्रिन तैयार के
सिनेमा दिखाया जाता था) तो मैं आस-पड़ोस के 6-8 किलो मीटर जाने के लिए
तैयार रहता।
इसके चक्कर में कई बार नदी डाकना
पड़ा। रात को 10-10 बजे। गांव कहते उसमें भूत हैं। लेकिन फिल्म के भूत के
आगे मुझे कोई और भूत नजर नहीं आता। एक दो बार तो जमकर भींगते हुए मैं छह
किलो मीटर दूर पर्दा वाला सिनेमा देखने पहुंच गया।
रात
भर कांपते हुए फिल्म देखा सुबह 104 डिग्री फारेनहाइट बुखार चढ़ाकर आ गया।
फिर मम्मी गईं बनवारी (गांव के इकलौते डॉक्टर- छोलाछाप आप कह सकते हैं, हम
नहीं) को बुलाकर लाईं। सिनेमा के चक्कर में बनवारी तीन सुई ठोंक दी। दोनों
हाथों और एक कमर में।
दवाई भी बनवारी एक टाइम में
कम से कम 8 गोली। क्या मजाल थी बुखार के बाद आपके मुंह पर फफोले न पड़ें।
बावजूद इन सब के मैंने एक ऐसा पर्दा वाला सिनेमा नहीं छोड़ा, जो मेरे गांव
के 6-8 किलोमीटर की परिधि में हो हुआ।
हमारी सबसे
नजदीकी बाजार करीब 10 किलोमीटर दूर है। वहां तब दो सिनेमाघर थे- राज पैलेस
और पुराना टाकीज। नौंवी से पहले तक मेरी वहां तक पहुंच ही नहीं थी।
बाजार
ले जाने वाला कोई था ही नहीं। विजय दशमी को रावण जलते देखने जाते भी थे तो
फिल्म कौन दिखाए, छोला-समोसा, पान खिलाकर लौटा लाते थे। जब नौवीं में
रॉबर्ट्सगंज नाम लिखवाया, तब शहर में यहां-वहां लगे फिल्मों के पोस्टर
बहुत बुलाते थे।
गांव में भागकर फिल्में देखने तक
तो ठीक था। अगर बाजार में किसी ने सिनेमा हॉल में फिल्म देखते देख लिया तो
घर से तो मुझे निकाल ही दिया जाता। फिर किसी एक साथ 10 रुपये पॉकेट मनी भी
नहीं मिलती थी कि जाकर फिल्म देखे आओ।
यही
करते-करते जब मैं 10वीं में 1 नंबर से (फेल 11 नंबर से हुआ था पर 10 नंबर
ग्रेस मिला करता था, इसलिए मैं मानता हूं कि 1 नंबर से फेल हुआ) फेल हो गया
तो रिजल्ट देखने के बाद सीधे सिनेमाघर में गया।
जाकर एक के बाद एक 3 फिल्में देखीं। पता नहीं क्यों?
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