दरअसल : ’कयामत से कयामत तक’ की कहानी



दरअसल....
कयामत से कयामत तक की कहानी
-अजय ब्रह्मात्‍मज
29 अप्रैल 1988 को रिलीज हुई मंसूर खान की फिल्‍म कयामत से कयामत तक का हिंदी सिनेमा में खास स्‍थान है। नौवां दशक हिंदी सिनेमा के लिए अच्‍छा नहीं माना जाता। नौवें दशक के मध्‍य तक आते-आते ऐसी स्थिति हो गई थी कि दिग्‍गजों की फिल्‍में भी बाक्‍स आफिस पर पिट रही थीं। नए फिल्‍मकार भी अपनी पहचान नहीं बना पा रहे थे। अजीब दोहराव और हल्‍केपन का दोहराव और हल्‍केपन का दौर था। फिल्‍म के कंटेट से लेकर म्‍यूजिक तक में कुछ भी नया नहीं हो रहा था। इसी दौर में मंसूर खान की कयामत से कयामत तक आई और उसने इतिहास रच दिया। इसी फिलम ने हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री को आमिर खान जैसा अभिनेता दिया,जो 29 सालों के बाद भी कामयाब है। हमें अगले हफ्ते उनकी अगनी फिल्‍म दंगल का इंतजार है।
दिल्‍ली के फिल्‍म लेखक गौतम चिंतामणि ने इस फिलम के समय,निर्माण और प्रभाव पर संतुलित पुस्‍तक लिखी है। हार्पर का‍लिंस ने इसे प्रकाशित किया है। गौतम लगातार फिल्‍मों पर छिटपुट लेखन भी किया करते हैं। उन्‍होंने राजेश खन्‍ना की जीवनी लिखी है,जिसमें उनके एकाकीपन को समझने की कोशिश है। इस बार उन्‍होंने स्‍टार के बजाए फिल्‍म पर फोकस किया है। हिंदी फिल्‍मों की मेक्रिग पर बहुत कम लिखा गया है। चर्चित और क्‍लासिक फिल्‍मों पर भी व्‍यवथित और विस्‍तृत लेखन नहीं मिलता। इस संदर्भ में गौतम की पुस्‍तक का खास महत्‍व है। उन्‍होंने केवल एक कामयाब और ट्रेंड सेंटर फिल्‍म के निर्माण तक खुद को सीमित नहीं रख है। उन्‍होंने कयात से कयामत तक के समय और संदर्भ को समझने की कोशिश की है।
गौतम चिंतामणि ने फिल्‍म के निर्देशक मंसूर खान के नजरिए के साथ उन सभी की बातों पर भी ध्‍यान दिया है,जो कलाकार या किसी और तौर पर फिल्‍म से जुड़े हुए थे। उन्‍होंने आमिर खान,जूही चावला,दिलीप ताहिल,आलोकनाथ के साथ ही संगीतकार आंनद-मिलिंद और कैमरामेन किरण देवहंस से भी संदर्भ लिया है। अच्‍छी बात यह है कि इन सभी की बातों तक ही वे सीमित नहीं रहते1 वे कयामत से कयामत तक तक की सीमाओं पर भी अपनी राय रखते हैं। आखिर क्‍यों यह फिल्‍म दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे की तरह बाद की फिल्‍मों को प्रभावित नहीं कर सकी? गौर करें तो स्‍वयं आमिर खान अपनी पहली फिल्‍म से इतने बड़े हो गए हैं कि यह फिल्‍म छोटी हो गई है। उन्‍होंने कंटेंट और कामयाबी की बड़ी लकीर खींच दी है। कयामत से कयामत तक के सीमित प्रभाव के बारे में गौतम के पास अपने तर्क हैं। उनसे असहमति नहीं हो सकती,लेकिन वे दोनों फिल्‍मों के सामाजिक संदर्भ और राष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में नहीं जाते। देश में आए आर्थिक उदारीकरण और आप्रवासी भारतीयों पर बढ़ते जोर के कारण हिंदी फिल्‍मों को कंटेंट तेजी से बदला था।
हालांमि पुस्‍तक में मंसूर खान के हवाले और स्‍वयं गौतम चिंतामणि के शोध से उस समय की हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के साक्ष्‍य पेश किए गए हैं,लेकिन फिल्‍में केवल इंडस्‍ट्री के दायरे में नहीं रहतीं। उनके निर्माण और प्रभाव के सामयिक कारण होते हैं। इस पुस्‍तक में उन पक्षों की विवेचना नहीं मिलती। गौतम इस तथ्‍य पर अधिक जोर देते हैं कि मंसूर खान हिंदी फिल्‍मों के रिदारों में आधुनिकता ले आए। उन्‍होंने फिल्‍म का अंत भी पारंपरिक नहीं रखा। वे अपने पिता के दबाव में नहीं आए और उन्‍होंने अपनी सोच से कुछ नया किया। हिंदी फिल्‍मों की नैरेटिव परिपाटी से असंतुष्‍ट मंसूर खान ने अपनी फिल्‍म में बड़ा बदलाव किया।
द फिल्‍म दैट रिवाइव्‍ड हिंदी सिनेमा: कयामत से कयामत तक
लेखक- गौतम चिंतामणि
प्रकाशक- हार्पर कालिंस पब्लिशर्स

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