दरअसल : रोमांटिक फिल्‍मों की कमी



दरअसल...
रोमांटिक फिल्‍मों की कमी
-अजय ब्रह्मात्‍मज
कभी हिंदी फिल्‍मों का प्रमुख विषय प्रेम हुआ करता था। प्रेम और रोमांस की कहानियां दर्शकों को भी अच्‍छी लगती थीं। दशकों तक दर्शकों ने इन प्रेम कहानियों को सराहा और आनंदित हुए। आजादी के पहले और बाद की फिल्‍मों में प्रेम के विभिन्‍न रूपों को दर्शाया गया। इन प्रेम कहानियों में सामाजिकता भी रहती थी। गौर करें तो आजादी के बाद उभरे तीन प्रमुख स्‍टारों दिलीप कुमार,देव आनंद और राज कपूर ने अपनी ज्‍यादार फिल्‍मों में प्रेमियों की भूमिकाएं निभाईं। हां,वे समाज के भिन्‍न तबकों का प्रतिनिधित्‍व करते रहे। इस दौर की अधिकांश फिल्‍मों में प्रेमी-प्रेमिका या नायक-नायिका के मिलन में अनेक कठिनाइयां और बाधाएं रहती थीं। प्रेमी-प्रेमिका का परिवार,समाज और कभी कोई खलनायक उनकी मुश्किलें बढ़ा देता था। दर्शक चाहते थे कि उनके प्रेम की सारी अड़चनें दूर हों और वे फिल्‍म की आखिरी रील तक आते-आते मिल रूर लें।
इन तीनों की अदा और रोमांस को अपनाने की कोशिश बाद में आए स्‍टारों ने की। कुछ तो जिंदगी भर किसी न किसी की नकल कर ही चलते रहे। धर्मेन्‍द्र जैसे एक्‍टर ने अलग पहचान बनाई। उन्‍होंने रोमांस में मर्दानगी जोड़ दी। वे पहले की पीढि़यों के सुकुमार हीरो नहीं थे। अपनी प्रेमिका को पाने के लिए खलनायकों से जूझने और भिड़ने में उनहें दिक्‍कत नहीं होती थी। अपने दम-खम से वे विश्‍वसनीय भी लगते थे। फिर आया अमिताभ बच्‍चन के एंग्री यंग मैन का दौर। अमिताभ बच्‍चन की फिल्‍मों में हीरोइनें तो रहती थीं,लेकिन उनकी भूमिका सिमट गई थी। उनकी सेक्‍स अपील पर निर्देशक अधिक भरोया करते थे। हिंसा और एक्‍शन के साथ नायिकाओं के देह दर्शन पर जोर दिया जाने लगा। ऐसी फिल्‍मों में प्रेम और रोमांस के लिए कम जगह रहती थी। हालांकि अमिताभ बच्‍चन ने कुछ उम्‍दा रोमांटिक फिल्‍मों में काम किया,लेकिन उनकी छवि नाराज युवक की ही रही।
बॉबी और कयामत से कयामत तक ने प्रेम का नर्द दिशा दी। न मिल पाने और साथ जीने की मुश्किलों को देखते हुए नायक-नायिका साथ मरने लगे। यह निराशाजनक विद्रोह था। अच्‍छा हुआ कि यह ट्रेंड मजबूती से नहीं चला। नहीं तो देश के युवक आत्‍महंता से आत्‍महत्‍या की तरफ बढ़ते। फिर एक दौर ऐसा भी आया,जब परिवार और समाज की नामंजूरी पर विद्रोह करने के बजाए उन्‍हें मनाने और राजी करने पर जोर दिया जाने लगा। इसे पारिवारिक मूल्‍यों में विश्‍वास और परंपरा के वहन के तौर पर पेश किया गया। दर्शक ज्‍यादा समय तक झांसे में नहीं रहे। उन्‍होंने ऐसी फिल्‍मों से नजरें फेर लीं। पारिवारिक मूल्‍यों के निर्वाह का आडंबर जल्‍दी ही टूट गया। करण जौहर अपनी फिल्‍म में प्‍यार और दोस्‍ती के द्वंद्व को लेकर आए। ऐ दिल है मुश्किल तक में उनका नायक यही संवाद दोहरा रहा है कि लड़का व लड़की दोस्‍त नहीं हो सकते
पिछले हफ्ते रिलीज हुई उनकी ऐ दिल है मुश्किल को मैच्‍योर लव स्‍टोरी के तौर पर पेश किया जा रहा है। क्रिटिक और फिल्‍म पत्रकारों की सीमा है कि उन्‍हें निर्माता-निर्देशक या अभिनेता जो समझा या बता देते हैं,वे उसी को लिखते और बताते रहते हैं। कोई सवाल नहीं करता। ऐ दिल है मुश्किल मैच्‍योर लव स्‍टोरी तो कतई नहीं है। सिर्फ उम्र में एक्‍टरों के बड़े होने से कोई लव स्‍टोरी मैच्‍योर हो जातीद हो तो अलग बात है। विदेश की धरती पर सुविधा-संपन्‍न अरधनिक व्‍यक्तियों के प्रेम और दोस्‍ती की समझ हिंदी फिल्‍मों के दायरे से बाहर नहीं निकल पाती। हिंदी फिल्‍मों ने एक वायवीय समाज रचा है। करण जौहर और उनके किरदार इसी दुनिया में विचरते हैं। अपने समय और समाज से उनका कोई रिश्‍ता नहीं होता। करण जौहर ने अपनी रोमांटिक फिल्‍म में निराश किया।
हमें हिंदी में सहस्‍त्राब्दि(मिलेनियल) पीड़ी के यूथ की प्रेमकहानी चाहिए। गांवों,कस्‍बों,शहरों और महानगरों के ये यूथ अपनी पिछली पीढि़यों से अलग और आगे हैं। रिश्‍तों के बारे में उनकी सोच खुली हुई हैं। अब वे बिछ़ुड़ने पर आहें नहीं भरते। वे नए तरीके से जीवन और प्रेम को अपनाते हैं। जल्‍दी से अमीर और कामयाब होने के दबाव में आज के यूथ प्रेम के बारे में क्‍या सोचते हैं और कैसे जीते हैं...हिंदी फिल्‍मों में इसकी झलक आनी चाहिए। इम्तियाज अली अपनी फिल्‍मों में आज के यूथ के रोमांस के पहलुओं को ले आते हैं। हमें उनके जैसे और फिल्‍मकारों की जरूरत है,जो लब आज कल दिखा सके।
 

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