हिंदी टाकीज 2(9) :हम सब का हीरो बन गया भीखू म्हात्रे -डॉ. नवीन रमण
हिंदी टाकीज2 का सिलसिला थम सा गया था। लंबे समय के बाद एक संस्मरण मिला तो लगा कि इसे हिंदी टाकीत सीरिज में पोस्ट किया जा सकता है। डाॅ. नवीन रमण ने सत्या और मल्टीप्लेक्स की पहली फिल्म की यादें यहां लिखी हैं।
डॉ नवीन रमण समालखा, हरियाणा के मूल निवासी हैं। हिन्दी सिनेमा में
पीएच.डी. का शोध कार्य किया है । हरियाणवी लोक साहित्य और पॉपुलर गीतों पर
अध्ययन और स्वतंत्र लेखन करते हैं । सोशल मीडिया पर राजनीतिक एवं
सांस्कृतिक आंदोलन-कर्ता के तौर पर निरंतर सक्रियता रहती है । दिल्ली
विश्वविद्यालय में अस्थायी अध्यापन में कार्यरत रहे हैं । वर्तमान समय में
जनसंदेश वेब पत्रिका की संपादकीय टीम के सदस्य है।
-डॉ. नवीन रमण
साल 1998। हिंदी सिनेमा
में यह साल जिस तरह एक खास अहमियत रखता है। कारण है रामगोपाल वर्मा की सत्या फिल्म,
जिसने हिंदी सिनेमा को एक नया आयाम दिया। ठीक उसी तरह यह साल मेरी जिंदगी
में भी अहमियत रखता है। यह वह साल था जब मैंने गिर-पड़ कर बारहवीं की परीक्षा पास
की थी और दिल्ली में एडमिशन लेने के लिए समालखा(हरियाणा) से विदआउट टिकट ट्रेन में
आ गया था। इधर-उधर धक्के खाने के बाद किसी ने सलाह दी कि साकेत के पास मालवीय नगर
में अरविंदो क़ॉलेज में एडमिशन हो सकता है। बस फिर क्या था,डीटीसी और ब्लू लाइन
में लटकते-झटकते मालवीय नगर पहुंच गए। सुबह वाले कॉलेज में एडमिशन संभव नहीं हुआ।
शाम वाले में संभावना थी और उसके खुलने में भी समय था। मेरे साथ आए दोस्त ने कहा
कि चलो तब तक पीवीआर में फिल्म देख आते हैं। हम चार जने सीधे पीवीआर पहुंचे।
मुश्किल से 10 मिनट का रस्ता कॉलेज से था।
पहली बार एक ऐसा सिनेमाहाल
देखा,जिसमें एक साथ कई फिल्में लगी हुई थी और टिकट शायद 100रु से कुछ ऊपर थी। और
जिन सुंदर लड़कियों को फैशनेबल कपड़ों में फिल्मों में देखते थे। वो वहां फिल्म
देखने आई हुई थी। इस मल्टीप्लेक्स के सामने हमारे समालखा और पानीपत-सोनीपत के
सिनेमाघर एकदम खटारा लग रहे थे। पॉपकोर्न की उड़ती महक ने हमारी भूख बढ़ा दी थी।
उससे बीस कदम की दूरी पर खड़े छोले-कुलछे वाले से हमने चार प्लेट लगाने का कहा और
बैग में से अपनी लस्सी की बोतल व रोटियां निकाल लीं। पेट भर जाने के बाद हमने
सिनेमाघर के चारों ओर टहलना शुरू कर दिया। क्योंकि इतनी महंगी टिकट पर हम फिल्म
नहीं देख सकते थे। सो हमने उसके आस-पास देखने का मन बनाया और टाइम पास करने लगे।
यह मुठभेड़ पहली बार थी
किसी मल्टीप्लेक्स से। आगे से जितना आलीशान था पीछे से उतना ही हमारे अपने
सिनेमाघरों जैसा। उधर टहलते हुए पता चला कि ठीक पीछे जो ये एक खिड़की है इस पर कुछ
टिकट मिलती हैं। वो भी सात रु की। पर उसके लिए पहले से ही लाइन में लगना पड़ता है।
7रु की टिकट हमारे औकात में थी। पर लाइन में लगना हमने कभी सीखा नहीं था। वो भी
जवानी की उस दहलीज पर खड़े होकर कौन सीख पाता है। वो हमारे भीखू महात्रे टाइप दिन
थे। टिकट खिड़की के ठीक सामने एक फुटी दिवार बनी हुई थी। हम चारों दोस्त उस पर
बैठकर खिड़की के खुलने का इंतजार करने लगे। खिड़की के लेफ्ट में लड़कों की लाइन
लगी थी और राइट में लड़कियों की।
पीवीआर साकेत में चार
पर्दे थे। यानी चार सिनेमाघर एक साथ।सबसे बड़ा चार नंबर वाला ही था। ज्यादातर
हिंदी फिल्में उसी में लगती थी। सत्या फिल्म भी उसी में लगी थी। मेरा एक दोस्त
फिल्मों को डायरेक्टर के हिसाब से देखता था। उसे रामगोपाल वर्मा पसंद था। उसने
कहा फिल्म बढ़िया होनी चाहिए। हमारा सवाल पहला यही था कि हीरो-हीरोइन कौन है?
उसके पास इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं
था। पर पोस्टर देखकर लग रहा था कि फिल्म बढ़िया होनी चाहिए। आखिर हमारे अंदर का
डॉन उसमें दिख रहा था। तब हम लड़ने के लिए तैयार रहते थे और मौका बनाने का कोई
मौका नहीं छोड़ते थे। शरीर में ताकत नई-नई बननी शुरू हुई थी और सुबह-शाम की कसरत
और दौड़ मांसपेशियों में कसावट के साथ-साथ शरीर को उकसाती रहती थी। हमने मिलकर
निर्णय किया कि फिल्म देखते हैं। एडमिशन तो कल आकर पूछ लेंगे। सलाह हुई कि पहले की
तरह दो जने लाइन में लगे हुए लड़कों को पीछे धकेलेंगे और बाकी के दो टिकट लेंगे।
जहां तक हो सके मारपीट नहीं करेंगे,क्योंकि दिल्ली में पुलिस तुरंत आ जाती है। सो
ठीक वैसा ही हुआ। एकाध लड़का विरोध करने ही लगा था कि वह हमारी हरियाणवी बोली की
कड़क सुनकर शांत हो गया और हमने चार टिकट ले ली। टिकट लेकर जब मेन गेट से अंदर
घुसे तो इस घुसने में काफी कुछ बदल गया था। जब पोस्टर देखने घुसे थे तो थोड़ा डर
और झिझक दोनों थी। पर इस बार आत्मविश्वास बढ़ा हुआ था। लड़कियों के परफ्यूम की
खुशबू उनकी देह की खुशबू जान पड़ रही थी। आंखें उन पर से हटने का नाम नहीं ले रही
थी। इतनी गोरी टांगे पहली बार देखी थी। इससे पहले ब्लू फिल्मों में ही देखी थी। पर
यहां इन टांगों को देखने का अलग ही अहसास था। मन तो कर रहा था कि उन गोरी टांगों
पर हाथ फेरने का। सुनते थे कि एकदम से संगमरमर जैसा अहसास होता है पर हमने तो कभी
ताजमहल के संगमरमर पर भी हाथ नहीं फेरा था। हां उस नकली के मिलने वाले ताजमहल पर
जरूर फेरा था। हाथ फिसलता था उस पर। इन कल्पनाओं के साथ-साथ नाक में से एक खुशबू
जबरदस्ती प्रवेश कर रही थी।वह थी पॉपकोर्न की महक। पॉपकार्न की महक में ही मजा आ
रहा था। रेट पता किया तो सुलग कर रह गई। इतना तो घर वाले महीने का खर्च नहीं देते
थे। खैर खुशबू से ही काम चला लिया। जैसे लड़कियों को देखने भर से काम चला लिया था।
चार नंबर वाले थियेटर
में जब हम घुसे तो उसके अंदर भी वही महक थी जो बाहर खड़ी लड़कियों में से आ रही
थी। यहां हमारे सिनेमाहाल की तरह पेशाब की बदबू नहीं आ रही थी बल्कि महक ही महक
उठी हुई थी। टिकट चैक करने वाले ने बताया ये अगली लाइन की टिकट है। तब समझ आया कि
ये सात रु वाली अगली तीन लाइन की टिकट हैं। पीछे की सीटों पर बैठे अमीर लोग फैमिली
के साथ आए हुए थे और 7रु वाले दोस्तों के साथ या अकेले। हम चारों पर सीट पर जैसे
ही बैठे। एकदम गद्देदार सीट और वो आगे की तरफ सरकी तो हम डर गए कि ये क्या टूट गई।
फिर ध्यान से देखा कि ये ऐसी ही है। समालखा के हाल में तो लकड़ी की ही सीट थी
पानीपत-सोनीपत वालों में उन लकड़ी वाली सीटों पर फोम लगाकर टिकट महंगी कर रखी थी।
पर ये तो वाकई मजेदार सीट थी। फिल्म शुरू हुई और जैसे ही फिल्म में पहली गोली चली।
तब लगा साऊंड सिस्टम का कमाल। एकदम ऐसा लगा जैसे हमारे पास ही किसी ने गोली चला दी
हो। हम सब का हीरो बन गया भीखू म्हात्रे। और हम सब उसके फैन।
2008 से लेकर 2016 में
मनोज बाजपेयी की भीखू म्हात्रे वाली छवि हमारे अंदर आज भी यूं ही बसी हुई है। आज
भी लगता है मनोज वाजपेयी इससे दमदार अभिनय शायद कभी कर नहीं पाएगे। एक अभिनेता के
लिए यह अच्छी बात नहीं है पर क्या किया जा सकता है। एक फिल्म से हमारे फिल्मी जीवन
के सारे हीरो-विलेन को बाहर फेंकने वाले मनोज बाजपेयी को देखते ही भीखू म्हात्रे
अपने आप जीवित हो उठता है। कुछ तो भंयकर था उस किरदार में जो हमें अपनी गिरफ्त से
आजाद नहीं होने देता। फिल्म देखते हुए लगता ही नहीं कि हम मुबंई पर केंद्रित फिल्म
देख रहे हैं। ऐसा लगता है मानो हम मुबंई के अंडरवर्ल्ड की दुनिया के साथ जी-मर रहे
हैं। रील रियल लगे। यही फिल्म की सबसे बड़ी कसौटी होती है। जिस पर फिल्म एकदम खरी
उतरती है। अपराध जगत से आप घृणा करने के बजाय उसकी ओर आकर्षित हो और प्यार करने
लगे। यह आसान नहीं है। दरअसल पॉवर की भूख हम सबमें होती है और फिल्म उसे ही सहजता
से परोस देती है।एकदम सहज हम जैसे किरदार। हम जैसा जीवन,
शैली और नौटंकियां। सब कुछ।
फिल्म देखने के बाद
एकदम से मन हुआ कि हम सब दोस्त भी भीखू की तरह गैंग बना लेते हैं। दिमाग कुछ ओर
सोचने को तैयार ही नहीं था। मुबंई का डॉन भीखू म्हात्रे। यह वह डायलॉग था जो हमें
कई दिन तक सुनाई देता था और हम जिसे बहुत दिन तक बोलते रहते थे। एक डायलॉग से हम
डॉन होने का अहसास पा लेते थे।
गोली मार भेजे में-यह
महज गाना भर नहीं था। इस गाने पर हम कितनी बार शादियों में और न जाने कहां-कहां
नाचे हैं। यह गाना नाचने के लिहाज से नहीं था पर उस आक्रामकता को अभिव्यक्ति देता
था जो हम सब दोस्तों में उबाले मारती रहती थी। यह गाना हमारे जेहन में अटक गया
था-गोली मार भेजे में। कल्लू मामा और भीखू म्हात्रे दोनों हमें अपनी आगोश में लिए
उड़ रहे थे। मुझे याद है कि हम साकेत से लेकर समालखा तक पूरे रस्ते फिल्म पर ही
बात करते रहे थे। उस दिन हमारा किसी से पंगा हो जाता तो फिल्म का पूरा जोश उस पर
पक्का निकल जाता। तब हम भीखू म्हात्रे बने हुए थे।हम सब हम सब नहीं थे।
दरअसल दिल्ली के पीवीआर
साकेत में मैंने यह पहली फिल्म देखी थी। यह मेरी मल्टीप्लेक्स में भी पहली फिल्म
थी और दिल्ली में देखी जाने वाली पहली फिल्म भी। मात्र 7रु में। ये वो दिन थे जब हम भी अपराध की दुनिया से
मोहित थे। और फिल्म तो कमाल की थी ही। मल्टीप्लेक्स और फिल्म दोनों ने हमें अलग ही
दुनिया में ले जाकर छोड़ दिया था। उसके बाद दूसरे सिनेमाघरों में फिल्म देखने में
वो मजा नहीं आता था। यह मल्टीप्लेक्स में सस्ती दर पर फिल्म देखने का सिलसिला तब
तक चलता रहा जब तक वो सात रु वाली 10रु के बाद बंद नहीं हो गई। साकेत पीवीआर के
पीछे मिलने वाली वो टिकट खिड़की और वहां हुए लड़ाई-झगड़े हम कभी नहीं भूल पाएंगे।
हमारे देखते-देखते वहां भी कितना कुछ बदल गया था। देखते-देखते हम उस खिड़की के डॉन
बन गए थे। हमें वहां झगड़ना नहीं पड़ता था। सब जान गए थे हमें। तब हमसे लड़के आकर
कहने लगे थे भइया हमें भी टिकट दिलवा दीजिए। इस सबकी हमने कीमत भी चुकाई थी और
कीमत पाई भी थी। कितनी बार हमने अपनी आर्थिक हालत ठीक करने के लिए यह सात और दस
वाली टिकट आगे जाकर 80 से लेकर 100 तक में बेची थी। आज सोचता हूं तो अजीब-सा लगता
है कि हम टिकट भी ब्लैक किया करते थे। तब वो हमारे लिए बहुत ही सामान्य-सी बात थी।
एक बार तो झगड़े में मैंने वहां एक का सिर ही फोड़ दिया था और वहां पुलिस से
भागम-दौड़ में एक दोस्त मे अपने और मेरे सारे ऑरिजनल सर्टिफिकेट खो दिए थे।
जिन्हें हम एडमिशन लेने के लिए लाए हुए थे। मेरा दोस्त हार मान कर घर बैठ गया पर
मैंने हार नहीं मानी और अरविंदो सांध्य कॉलेज में एडमिशन ले कर माना। बहुत धक्के खाए।
जुगाड़ भिड़ाए पर हार नहीं मानी। आखिर सत्या से यही तो सीखा था कि हासिल करने का
जज्बा होना चाहिए। इसी जज्बे की देन है कि पढ़ने का यह सिलसिला पीएचडी करने तक के
मुकाम को हासिल कर पाया। अगर हार मान गया होता था अपने दोस्त की तरह बारहवीं पास
ही रह जाता। और यह क्या महज संयोग ही रहा होगा कि मैंने अपना पीएचडी का शोध भी
फिल्मों पर ही किया। शोध भले ही बहुत गुणवत्ता भरा काम न हो पर फिल्मों ने मेरे
जीवन को बहुत बदला तो है ही,दिया भी बहुत कुछ है। मुझे जिंदगी ने इतना नहीं रुलाया
जितना मैं फिल्में देखते हुए रोया हूं और आज भी रोता हूं। गांव में हम जब छोटे थे
तो मैं फिल्म वाला खेल ही ज्यादा खेलता था। जिसका डायरेक्टर और पटकथा लेखक भी मैं
ही होता था। शायद यह छुपा हुआ सपना भी कभी पूरा हो सके। भविष्य का किसे पता है?
पर उसके अंकुर तो झलक मारते ही रहते हैं।
देखते है क्या होता है?
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