फिल्म समीक्षा : एम एस धौनी-द अनटोल्ड स्टोरी
छोटे पलों के बड़े फैसले
-अजय ब्रह्मात्मज
सक्रिय और सफल क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी के जीवन
पर बनी यह बॉयोपिक 2011 के वर्ल्ड कप तक आकर समाप्त हो जाती है। रांची में पान
सिंह धौनी के परिवार में एक लड़का पैदा होता है। बचपन से उसका मन खेल में लगता है।
वह पुरानी कहावत को पलट कर बहन को सुनाता है...पढ़ोगे-लिखोगे तो होगे
खराब,खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे नवाब। हम देखते हैं कि वह पूरी रुचि से फुटबॉल खेलता
है,लेकिन स्पोर्ट्स टीचर को लगता है कि वह अच्छा विकेट कीपर बन सकता है। वे उसे
राजी कर लेते हैं। यहां से धौनी का सफर आरंभ होता है। इसकी पृष्ठभूमि में टिपिकल
मिडिल क्लास परिवार की चिंताएं हैं,जहां करिअर की सुरक्षा सरकारी नौकरियों में
मानी जाती है।
नीरज पांडेय के लिए चुनौती रही होगी कि वे धौनी के
जीवन के किन हिस्सों को फिल्म का हिस्सा बनाएं और क्या छोड़ दें। यह फिल्म
क्रिकेटर धौनी से ज्यादा छोटे शहर के युवक धौनी की कहानी है। इसमें क्रिकेट खेलने
के दौरान लिए गए सही-गलत या विवादित फैसलों में लेखक-निर्देशक नहीं उलझे हैं। ऐसा
लग सकता है कि यह फिल्म उनके व्यक्तित्व के उजले पक्षों से उनके चमकदार व्यक्तित्व
को और निखारती है। यही फिल्म की खूबी है। कुछ प्रसंग विस्तृत नहीं होने की वजह
से अनुत्तरित रह जाते हैं,लेकिन उनसे फिल्म के आनंद में फर्क नहीं पड़ता। यह
फिल्म उन्हें भी अच्छी लगेगी,जो क्रिकेट के शौकीन नहीं हैं और एम एस धौनी की
उपलब्धियों से अपरिचित हैं। उन्हें धौनी के रूप में छोटे शहर का युवा नायक
दिखाएगा,जो अपनी जिद और लगन से सपनों को हासिल करता है। क्रिकेटप्रेमियों का यह
फिल्म अच्छी लगेगी,क्योंकि इसमें धौनी के सभी प्रमुख मैचों की झलकियां हैं। उन्हें
घटते हुए उन्होंने देखा होगा। फिल्म देखते समय तो उन यादगार लमहों के साथ पार्श्व
संगीत भी है। प्रभाव और लगाव गहरा हो जाता है। रेगुलर शो में इसे देखते हुए आसपास
के जवान दर्शकों की टिप्पणियों और सहमति से स्पष्ट हो रहा था कि फिल्म उन्हें
पसंद आ रही है।
‘एम एस धौनी’ छोटे पलों के असमंजस और फैसलों की बड़ी फिल्म है। मुश्किल
घडि़यों और चौराहों पर लिए गए फैसलों से ही हम सभी की जिंदगी तय होती है। हमारा
वर्तमान और भविष्य अपने अतीत में लिए गए फैसलों का ही नतीजा होता है। इस फिल्म
में हम किशोर और युवा आक्रामक और आत्मविश्वास के धनी धौनी को देखते हैं। उसकी
सफलता हमें खुश करती है। उसके खेलों से रोमांच होता है। फिल्म का अच्छा-खासा
हिस्सा धौनी के प्रदर्शन और प्रशंसा से भरा गया है। उनके निजी और पारिवारिक भावुक
क्षण हैं। एक पिता की बेबसी और चिंताएं हैं। एक बेटे के संघर्ष और सपने हैं। फिल्म
अपने उद्देश्य में सफल रहती है।
अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने एम एस धौनी के बॉडी
लैंग्वेज,खेलने की शैली और एटीट्यूड को सही मात्रा में आत्मसात किया है। फिल्म
देखते समय यह एहसास मिट जाता है कि हम धौनी के किरदार में सुशांत को देख रहे हैं।
उन्होंने इस किरदार को निभाने में जो संयम और समय दिया है,वह प्रशंसनीय है। उन्होंने
धौनी के रूप में खुद को ढाला है और वही बने रहे हैं। हो सकता है भावुक,खुशी और
नाराजगी के मौकों पर धौनी के एक्सप्रेशन अलग होते हों,लेकिन यह फिल्म देखते हुए
हमें उनकी परवाह नहीं रहती। लंबे समय के बाद अनुपम खेर अपनी संवेदना और ईमानदारी
से धौनी के पिता के रूप में प्रभावित करते हैं। धौनी के जीवन में आए दोस्त,परिजन,कोच
और मार्गदर्शकों की भूमिका निभा रहे किरदारों के लिए उचित कलाकारों का चुनाव किया
गया है। किशोरावस्था के क्रिकेटर दोस्त संतोष की भूमिका में क्रांति प्रकाश झा
अच्छे लगते हैं। बाकी कलाकारों का योगदान भी उल्लेखनीय है। प्रेमिका और पत्नी
की भूमिकाओं में आई अभिनेत्रियों ने धौनी के रोमांटिक पहलू को उभारने में मदद की
है। नीरज पांडेय ने प्रेम के खूबसूरत पलों को जज्बाती बना दिया है।
अंत में इस फिल्म की भाषा और परिवेश की तारीफ लाजिमी
है। इसमें बिहार और अब झारखंड में बोली जा रही भाषा को उसके मुहावरों से भावपूर्ण
और स्थानीय लहजा दिया गया है।‘दुरगति’,’काहे एतना’,’कपार पर मत चढ़ने देना’,’दुबरा गए हो’ जैसे दर्जनों शब्द और पद गिनाए जा सकते हैं। इनके इस्तेमाल
से फिल्म को स्थानीयता मिली है।
’एम एस धौनी’ छोटे शहर से निकलकर इंटरनेशनल खिलाड़ी के तौर पर छाए युवक के
अदम्य संघर्ष की अनकही रोचक और प्रेरक कहानी है। फिल्म में वीएफएक्स से पुराने
पलों को रीक्रिएट किया गया। साथ ही गानों के लिए जगह निकाली गई है।
अवधि- 190 मिनट
चार स्टार
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