सेंसर और फिल्म सर्टिफिकेशन
-अजय ब्रह्मात्मज
आजादी के पहले सभी फिल्मों को ब्रिटिश हुकूमत सेसर
करती थी। मकसद यह रहता था कि अंगेजी राज के खिलाफ दर्शकों को भड़काने या लामबंद
करने वाली फिल्मों और फिल्मों के हिस्सों को काट दिया जाए। सेंसर सुनते ही
हमारे दिमाग में कैंची की छवि उभरती है। कैंची का काम काटना और कतरना है। आजादी के
बाद भी सेंसर का यही मतलब बना रहा है। 1952 के सिनेमैटोग्राफ एक्ट के लागू होने
के बाद उसे सीबीएफसी(सेंसर बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) नाम दिया गया,जिसे हिंदी
में केंद्रीय फिल्म प्रमाण बोर्ड लिख जाता है। इस बदलाव के बावजूद व्यवहार में सेंसर
और सेंसर बोर्ड शब्द ही प्रचलित रहे। यहां तक फिल्म बिरादरी भी फिल्म प्रमाणन
के लिए भेजे जा रहे प्रिंट और कॉपी पर सेंसर कॉपी ही लिखती है। हाल ही में ‘उड़ता प्रजाब’ को लकर हुए विवाद में ज्यादातर
खबरों में सेंसर ही सुनाई और दिखाई देता रहा। आम दर्शक और फिल्म बिरादरी के सदस्य
भी यही मानते हैं कि सेंसर का मतलब फिल्मों में कांट-छांट होना है। ठीक जैसे कि
फिल्म क्रिटिसिज्म का मतलब लोग फिल्म की कमियां खोजना मानते हैं।
सीबीएफसी का काम फिल्मों का सटिफिकेशन करना है। रिलीज से
पहले निर्माता अपनी फिल्में सेंसर स्क्रिप्ट के साथ सीबीएफसी में जमा करते हैं।
सीबीएफसी की कमिटी उसे देखती है और फिल्म के कटेंट के लिहाज से उसे यू,यूए या ए
सर्टिफिकेट देती है। अगर फिल्में में एडल्ट कटेंट है तो उसे एक सफिकेट दिया जाता
है। यूए सर्टिफिकेट उन फिल्मों को दिया जाता है,जिनमें एडल्ट कटेंट या हिंसा की
मात्रा ज्यादा नहीं रहती। यूए का तात्पर्य है कि अभिभावकों के साथ बच्चे ऐसी
फिल्में देख सकते हैं। कंटेंट की वजह से कभी-कभर कोईलि फिल्म प्रतिबंधित की जाती
है। यू और यूए सटिर्फिकेट मिलने पर किसी निर्माता को दिक्कत नहीं होती। ए सर्टिफिकेट
मिलने पर माना जाता है कि ऐसी फिल्मों के थिएटर दर्शक कम हो जाते हैं। ऐसी फिल्मों
के सैटेलाइट प्राइस भी कम हाते हैं,क्योंकि उन्हें प्राइम टाइम पर टेलीकास्ट
नहीं किया जा सकता। निर्माता चाहते हैं कि उनकी फिल्मों को ए सर्टिफिकेट न मिले।
एउल्ट कंटेंट हाने पर भी उनकी कोशिश यूए सर्टिफिकेट लेने की रहती है। इस कोशिश
में कदाचार की गुजाइश बनती है। सीबीएफसी के सदस्य सुझाव देते हैं कि अगर फलां दृश्य
या संवाद हटा या बदल दिए जाएं तो उन्हें यूए सर्टिफिकेट दिया जा सकता है। ऐसी
खबरें आती रही हैं कि सीबीएफसी के सदस्यों में से किसी ने निर्माता का फेवर किया
और उसके एवज में कुछ पैसे बना लिए। पिछले एक सीबीएफसी अधिकारी का मामला कोर्ट में
है।
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अनुसार....
केंद्रीय
फिल्म प्रमाणन बोर्ड सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत एक संस्था है। यह संस्था चलचित्र अधिनियम 1952 के तहत जारी किये गए प्रावधानों के अनुसरण करते हुए फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन का नियंत्रण करता है।
केन्द्रीय
फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा फिल्मों को प्रमाणित करने के बाद ही भारत में उसका
सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकते है।
बोर्ड में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष एवं गैर-सरकारी
सदस्यों को शामिल किया गया है। बोर्ड का मुख्यालय मुंबई में स्थित है और इसके नौ क्षेत्रीय कार्यालय है जो
मुंबई,
कोलकाता, चेन्नई, बैंगलूर, तिरुवनंतपुरम, हैदराबाद, नई दिल्ली, कटक और गुवहाटी में स्तिथ है।
क्षेत्रीय कार्यालयों में सलाहकार पैनलों की सहायता से फिल्मों का परीक्षण करते है। केंद्र सरकार द्वारा समाज के विविध स्तर के व्यक्तियों को समावेश करते हुए दो वर्ष की कालावधि के लिए इन पैनल सदस्यों का नामांकन करते है।
चलचित्र अधिनियम, 1952, चलचित्र (प्रमाणन) नियम,1983 तथा 5(ख) के तहत केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए मार्गदर्शिका के अनुसरण करते हुए प्रमाणन की कार्यवाही की जाती है।
फिल्मों को चार वर्गों के अन्तर्गत प्रमाणित करते है
यू- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन
ए - वयस्क दर्शकों के लिए निर्बन्धित
यूए- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए किन्तु 12 वर्ष से
कम आयु के बालक/बालिका को माता-पिता के मार्गदर्शन के साथ फिल्म देखने की चेतावनी के साथ
क्षेत्रीय कार्यालयों में सलाहकार पैनलों की सहायता से फिल्मों का परीक्षण करते है। केंद्र सरकार द्वारा समाज के विविध स्तर के व्यक्तियों को समावेश करते हुए दो वर्ष की कालावधि के लिए इन पैनल सदस्यों का नामांकन करते है।
चलचित्र अधिनियम, 1952, चलचित्र (प्रमाणन) नियम,1983 तथा 5(ख) के तहत केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए मार्गदर्शिका के अनुसरण करते हुए प्रमाणन की कार्यवाही की जाती है।
फिल्मों को चार वर्गों के अन्तर्गत प्रमाणित करते है
यू- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन
ए - वयस्क दर्शकों के लिए निर्बन्धित
यूए- अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए किन्तु 12 वर्ष से
कम आयु के बालक/बालिका को माता-पिता के मार्गदर्शन के साथ फिल्म देखने की चेतावनी के साथ
सीबीएफसी की कार्यप्रणाली जो भी हो,व्यावहारिक स्तर
पर सीबीएफसी अपने वर्तमान अध्यक्ष पहलाज निहलानी के नेतृत्व में निरंतर बचकाने
निर्देशों से अपनी अयोग्यता जाहिर कर रहा है। पिछले कुछ महीनों में सीबीएफसी के
सुझाव और फैसले हास्यास्पद रहे हैं।अभिषेक चौबे की ‘उड़ता पंजाब’ में टायटल और संवादों से
पंजाब शब्द हटाने का निर्देश दिया गया। फिल्म के निर्माताओं में से एक अनुराग
कश्यप ने सीबीएफसी के खिलाफ मुहिम छेड़ी। फिल्म इंडस्ट्री और आम दर्शकों से
सपार्ट लिया। आखिरकार उन्हें कोर्ट ने राहत दी। वर्तमान अध्यक्ष अतिरिक्त
सक्रियता दिखा रहे हैं। भारतीय संवेदना और संस्कारों के स्वघोषित पैरोकार बन गए
हैं। अचानक वे शुद्धिकरण अभियान में लग गए हैं। उन्होंने स्वयं अश्लील और
फूहड़ फिल्में बनायीं,लेकिन अभी वे भारतीय संस्कृति की संरक्षा के नाम पर ऊलजलूल
फैसले सुना रहे हैं। तभी तो वार्नर ब्रदर्स ने विल फेरेल और केविन हार्ट की फिल्म
‘गेट हार्ड’ को भारत में रिलीज नहीं
करने का फैसला किया। लीना यादव की फिल्म ‘पार्च्ड’ फांस समेत अनेक देशों में सराहना बटोर रही है। भारत में अभी
तक उसका सर्टिफिकेशन नहीं हो सका है। आखिर हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं ? ‘जंगल बुक’ को इसलिए यूए दिया गया कि 3डी इफेक्ट के कारण यह फिल्म बच्चों
को डरावनी लग सकती है। सच तो यह है कि बचपन से ही 3डी जैसी नई तकनीकों से वाकिफ
दुनिया भर के बच्चे ऐसी फिल्मों का लुत्फ उठा रहे हैं। ‘तमाशा’ और ‘स्पेक्टर’ जैसी देशी-विदेशी फिल्मों
के चुंबन और अंतरंग दृश्य काट दिए जाते हैं,जबकि ‘ग्रेट
ग्रैंड मस्ती’ जैसी फूहड़ और अश्लील फिल्में
आसानी से प्रदर्शित हो जाती हैं।
सीबीएफसी का गठन स्वायत्त संस्था के तौर पर किया
गया था,जो भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्य करेगा। सरकार
ने इसे अधीनस्थ संस्था मान लिया और हमेशा अध्यक्ष से लेकर सदस्यों तक की
नियुक्ति में पसंद के व्यक्तियों को जिम्मेदार पदों पर बिठाती रही। नतीजा यह हुआ
कि जिस स्वायत्त संथा को स्वतंत्र रूप से कार्य करना था,वह निरंतर सत्ता के
प्रभाव में रही। पहले अध्यक्ष के पद पर योग्य व्यक्तियों का चुनाव होता रहा,जो
कम से कम स्वविवेक से सिनेमैटोग्राफ एक्ट 1952 का पालन करते हुए भी फिल्मकारों
के प्रयोग को प्रदर्शन के योग्य मानते थे। पहलाज निहलानी की नियुक्ति के पहले
सीबीएफसी ने अनेक साहसी फैसले लिए और फिल्मकारों की अभिव्यक्ति के लिए अड़चन
नहीं बने। अभी स्थिति यह है फिल्मकार स्क्रिप्ट के स्तर पर ही कटाई-छंटाई करने
लगते हैं।
सीबीएफसी में पारदर्शिता कम हो गई है। आए दिन फिल्मकारों
और सीबीएफसी के बीच विवाद चल रहा है। वर्तमान अध्यक्ष की मनमानी से फिल्मकारों
की परेशानी बढ़ गई है। इसके लिए फिल्मकार और फिल्म बिरादरी भी जिम्मेदार है।
उन्होंने कभी सरकार पर दबाव नहीं डाला कि सीबीएफसी में पारदर्शी व्यवस्था लागू
हो।
पिछले दिनों श्याम बेनेगल के नेतृत्व में सीबीएफसी
की कार्यप्रणाली में आवश्यक सुधारों के लिए एक समिति गठित की गई थी। इस समिति ने
अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। ऐसा माना जा रहा है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय
शीघ्र ही इसे लागू करेगा। इसके बाद फिल्मकारों की फिल्म प्रमाणन संबंधी
परेशानियां कम हो सकती हैं। असल सवाल निमों-अधिनियमों से अधिक उस सोच का है,जिसके
अंतर्गत क्रिएटिव क्षेत्र में संभावनाओं की ऊंची उड़ान संभव होती है। अगर पंख
कतरने की मंशा रहेगी तो किसी उदात्त और उदार नियम में भी छेद किए जा सकते हैं।
फिल्मकारों और सामाजिक चिंतकों का एक तबका मानता है कि किसी प्रकार की सेंसरशिप
होनी ही नहीं चाहिए। भारत जैसे अर्द्धशिक्षित देश में अभी ऐसी आजादी देने पर
अराजकता फैल सकती है। बेहतर है कि श्याम बेनेगल की समिति के सुझावों को जल्दी से
जल्दी अमल में लाया जाए। उन्होंने फिल्म प्रमाणन की अतिरिक्त श्रेणियों के भी
सुझाव दिए हैं।
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