फिल्म समीक्षा : पिंक
’ना’ सिर्फ एक शब्द नहीं है
-अजय ब्रह्मात्मज
शुजीत सरकार ‘पिंक’ के क्रिएटिव प्रोड्यूसर हैं। इस फिल्म के साथ उनका नाम इतने
मुखर रूप से सामने रखा गया है कि निर्देशक गौण हो गए हैं। मार्केटिंग के लिहाज से
यह सही रणनीति रही। शुजीत सरकार अलग ढंग के मनोरंजक सिनमा के पर्याय के रूप में
उभर रहे हैं। ‘विकी डोनर’ से ‘पीकू’ तक में हम उनकी निर्देशकीय क्रिएटिविटी देख चुके हैं। यह
फिलम उनकी निगरानी में बनी है,लेकिन यह अनिरूद्ध राय चौधरी की पहली हिंदी फिल्म
है। अनिरूद्ध ने बांग्ला में ‘अनुरणन’ और ‘अंतहीन’ जैसी फिल्में निर्देशित की हैं,जिन्हें राष्ट्रीय पुरस्कारों
से सम्मनित किया जा चुका है। इस पृष्ठभूमि का हवाला इसलिए कि राष्ट्रीय पुरस्कारों
से सम्मानित फिल्मकारों की फिल्में भी आम दर्शकों का मनोरंजन कर सकती हैं। मनोरंजन
के साथ सामाजिक संदेश से वे उद्वेलित भी कर सकती हैं। इसे रितेश शाह ने लिखा है।
हम ‘कहानी’,‘एयरलिफ्ट’,’तीन’ और ‘मदारी’ में उनका कौशल देख चुके
हें।
‘पिंक’ तीन लड़कियों के साथ उन चार लड़कों की भी कहानी है,जो फिल्म
की केंद्रीय घटना में शामिल हैं। हालांकि उनके चरित्र के विस्तार में लेखक नहीं
जाते,मगर उनके बहाने पुरुष प्रधान समाज की सामंती सोच सामने आती है। दिल्ली के
पॉश इलाके में तीन कामकाजी लड़किया एक फ्लैट किराए पर लेकर रहती हैं। मीनल दिल्ली
के करोलबाग की है। फलक लखनऊ की है और एंड्रिया मेघालय से है...जिसे सभी नार्थ ईस्ट
की लड़की कहते हैं। जैसे कभी सारे दक्षिण भारतीयों को मद्रासी कहा जाता था और
मुंबई में आज भी सारे उत्तर भारतीयों को भैया समझा जाता है। बहरहाल,एक रात रॉक शो
के बाद रिसॉर्ट में मीनल और राजवीर के बीच झड़प होती है,जिसमें मीनल खुद के बचाव
के लिए राजवीर के सिर पर बोतल दे मारती है।
आरंभिक दृश्यों की इन घटनाओं के बाद असली ड्रामा आरंभ
होता है। तीन सामान्य कामकाजी लड़कियां और सामंती सोच के ‘वेल कनेक्टेड’ लड़के... कहानी कुछ-कुछ ‘नो वन किल्ड जेसिका’ और थोड़े बदले संदर्भ में ‘दामिनी’ जैसी लगती है। मूल मानसिकता
वही है,लेकिन दीपक सहगल कोर्ट में अपनी बहस से उसे तार-तार कर देते हैं। वे बताते
हैं कि किस तरह हम ने लड़कियों पर पाबंदियां लगा रखी हैं। अगर वे पुरुषों की सोच
के दायरे से निकलती हैं तो उन्हें बदचलन कहा और समझा जा सकता है। जींस-टीशर्ट
पहनना,हंस कर और छूकर बातें करना,शराब पीना,पार्टियों में जाना...अगर लड़कियां यह
सब करती हैं तो बेचारे लड़के एज्यूम कर लेते हैं कि वो उनके साथ सो भी सकती हैं।
वे उत्तेजित हो जाते हैं और बगैर अपनी गलती के ही गलती कर बैठते हैं। दीपक सहगल
अपनी बहस में लड़कियों के लिए चार सेफ्टी रूल भी बताते हैं,जिनमें बताया जाता है
कि किसी लड़की को किसी लड़के के साथ क्या-क्या नहीं करना चाहिए। दीपक सहगल तंजिया
अंदाज में समाज में मौजूद लड़के-लड़कियों के प्रति चल रही भिन्न मान्यताओं की
विसंगति भी जाहिर करते हैं।
‘पिंक’ लड़के-लड़कियों के प्रति समाज में प्रचलित धारणाओं और मान्यताओं
की असमानता और पाखंड को उजागर करती है। फिल्म के दृश्यों और संवादों से एहसास
होता है कि समाज जिसे सामान्य और उचित मानता है,दरअसल वह आदत में समायी पिछड़ी और
पाखंडी सोच है। ‘पिंक’ की
कथाभूमि दिल्ली की है,लेकिन ऐसी इंडेपेंडेट लड़कियां इन दिनों किसी भी शहर में
मिल सकती है,जो बेहतर भविष्य और करिअर के लिए अपने कथित सुरक्षित घरों से निकलकर
शहरी बनैले पुरुषों के बीच रहती हैं। अगर थोड़ी देर के लिए भी इस फिल्म के पुरुष
दर्शक मीनल,फलक और एंड्रिया के नजरिए से देखें तो पूरा पर्सपेक्टिव बदल जाएगा। उन्हें
खुद से घिन आएगी। उन्हें पता चलेगा कि वे किस मानसिकता में जी रहे हैं।
इस फिल्म का सारा द्वंद्व एक ‘ना’ पर है। दीपक सहगल के शब्दों
में कहें तो ‘ना सिर्फ एक शब्द नहीं है,एक पूरा
वाक्य है अपने आप में...इसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है। नो मतलब
नो...परिचित,फ्रेंड,गर्लफ्रेंड,सेक्स वर्कर या आपकी अपनी बीवी ही क्यों न
हो...नो मीन्स नो।‘ इसी ‘ना’ को आधार बना कर दीपक सहगल अपने तर्क गढ़ते हैं और सरकारी
वकील के सारे आरोपों को निरस्त करते हैं। हिंदी फिल्मों में कोर्ट रूम ड्रामा का
खस आकर्षण वकीलों की बहसबाजी होती है। दर्शक यातना और आरोप की शिकार के साथ हो
जाते हैं और उसकी जीत चाहते हैं। लेखक और निर्देशक ने ‘पिंक’ में अंत-अंत तक रहस्य बनाए
रखा है।
हिंदी
फिल्मों में यह सहज अनुमान भी चलता है कि लड़कियों के पक्ष में अमिताभ बच्चन हैं
तो उनकी जीत सुनिश्चित है। इससे रहस्य का रोमांच थोड़ा कम होता है।
अमिताभ बच्चन को वकील के नए अंदाज में देख कर हम उनके
अभिनय के नए पहलू से परिचित होते हैं। अमिताभ बच्चन प्रयोगों के लिए तैयार हैं।
वे नई चुनौतियों के लिए नई रणनीति और शैली अपनाते हैं। उन्होंने अपने चरित्र के
विकास पर ध्यान दिया है और उसी क्रम में आवाज बदलते गए हैं। अंतिम बहस में उनके
तर्क आधिकारिक और दमदार हो जाते हैं। इस फिल्म में पियूष मिश्रा संयत भाव से अपने
किरदार में हैं। निर्देशक ने उन्हें किरदार से छिटकने नहीं दिया है। तीनों
लड़कियों में मीनल मुख्य है,इसलिए तापसी पन्नू के पास हुनर दिखाने के बेहतरीन
अवसर थे। उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। वह असरदार हैं। इसी प्रकार कीर्ति कुल्हारी
और एंड्रिया भी अपने किरदारों का मजबूती से पेश करती हैं। राजवीर की भूमिका में
अंगद बेदी उसकी ऐंठ को सही ढंग से पेश करते हें। अन्य छोटी और सहयोगी भूमिकाओं
में कास्टिंग डायरेक्टर जोगी ने कलाकारों का सटीक चुनाव किया है।
‘पिंक’ का पार्श्व संगीत शांतनु मोइत्रा ने तैयार किया है। उन्होंने
द्रुत,धकमी और मद्धिम ध्वनियों के साथ दश्यों को प्रभावशाली बना दिया है। फिल्म
का अवसाद और तनाव पार्श्व संगीत के प्रभाव से बहुत खूबसूरती से निर्मित होता है।
फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन की आवाज में प्रस्तुत
’पिंक पोएम’ में फिल्म का सार और
संवेदना है। इसे सुन कर ही सिनेमाघरों से निकलें।
तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश है।
तू चल तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है।
अवधि-136 मिनट
स्टार- चार स्टार
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