दरअसल : पायरेसी,सिनेमा और दर्शक
-अजय ब्रह्मात्मज
पारेसी के खिलाफ जंग छिड़ी है। पिछले महीनों में कुछ
फिल्में ठीक रिलीज के पहले लीक हुईं। जाहिर है इससे उन फिल्मों का नुकसान हुआ।
सरकार भी पायरेसी के खिलाफ चौकस है। तमाम कोशिशों के बावजूद पायरेसी का काट नहीं
मिल पा रहा है। अभी नियम सख्त किए गए हैं। आर्थिक दंड की रकम और सजा की मियाद
बढ़ा दी गई,लेकिन पायरेसी बदस्तूर जारी है।
मुंबई की लोकल ट्रेनों में कुछ सालों पहले तक शाम के
अखबार होते थे। किसी जमाने में देश में शाम सबसे ज्यादा अखबार मुंबई में निकला
करते थे। अभी कुछ के प्रकाशन बंद हो गए। कुछ किसी प्रकार निकल रहे हैं। वे शाम के
बजाए सुबह के अखबार हो गए हैं। आप शाम में इन ट्रेनों में सफर करें तो पाएंगे कि
सभी अपने स्मार्ट फोन में लीन हैं। उनमें से अधिकांश फिल्में देख रहे होते हें।
ताजा फिल्में...और कई बार तो फिलमें रिलीज के पूर्व थिएटर से पहले स्मार्ट फोन
में पहुंच जा रही हैं। पहले अखबार बांट कर पढ़ते थे। अब फिल्में बांट कर देखते
हैं। अपरिचितों को भी फिल्म फाइल ट्रांसफर करने में किसी को गुरेज नहीं होता।
सिर्फ मुंबई में ही नहीं,देश के हर छोटे-बड़े शहर में यही हो रहा है। फिल्मों के
निर्माता रो रहे हैं। उनकी कमाई छीजती जा रही हैं।
सभी जानते हैं कि भारत में फिल्में खूब देखी जाती
हैं। देश की प्रमुख भाषाओं में फिल्में बन रही हैं और उन्हें हम सब देख रहे हैं।
एक आंकड़े के मुताबिक फिल्मों से लगभग 130 अरब रुपयों की कमाई होती है। यह रकम ज्यादा
लग रही होगी,लेकिन क्या आप को पता है कि पायरेसी के जरिए नामालूम और अनजान लोग
इससे 35 प्रतिशत अधिक की कमाई कर रहे हैं। वे लगभग 175 अरब रुयए पायरेसी से कमा
रहे हैं। निर्माताओं के साथ सरकार के राजस्व का नुकसान हो रहा है। हजारों लोगों
के रोजगार छीन रहे हैं। पायरेसी रोकने की बातें होती रहती हैं। अभी तक कोई ऐसा
कारगर और ठोस उपाय नहीं हो सका है कि इस पर रोक लग सके।उल्टा पायरेसी से कमाई की
रकम बढ़ती जा रही है। भयावह और खतरनाक स्थिति है। इसके बावजूद फिल्म इंडस्ट्री
और सरकार के प्रभावशाली कदम नहीं उठ रहे हैं। सेमिनार,रिपोर्ट और बहसों में आंकड़े
गिना दिए जाते हैं।
पायरेसी के कारणों पर विचार करने की जरूरत है। सबसे
पहले तो दर्शकों की नैतिकता की बात आती है। दर्शक पायरेटेड डीवीडी देखने से परहेज
नहीं करते। अब तो डीवीडी की भी जरूरत नहीं है। पेन ड्राइव और स्मार्ट फोन पायरेटेड
मूवी के स्टोर हाउस और करिअर हो गए हैं। दर्शकों के नजरिए से देखें तो अधिकांश
दर्शक वैधानिक तरीके से फिल्म देखने की सुविधाओं से वंचित हैं। मैट्रो शहरों
में मल्टीप्लेक्स आ गए हैं। यहां के निम्न आय समूह के दर्शक मल्टीप्लेक्स
में जाकर फिल्म देखने की जुर्रत नहीं कर पाते। सारे सिंगल स्क्रीन की कब्रों पर
मल्टीप्लेक्स की दूब लहलहा रही है। वे शहर की भीतरी गलियों में चल रहे अवैध
वीडियो पार्लर का सहारा लेते हैं। वे मोबाइल फोन के 2-4 इंच के स्क्रीन पर फिल्में
देख रहे होते हैं। छोटे शहरों और कस्बों में नई फिल्में चंद रुपए लेकर मोबाइल
में लोड कर दी जाती हैं। सरकार चाहे तो इस पर रोक लगा सकती है,लेकिन उसके लिए
पर्याप्त इच्छा शक्ति होनी चाहिए। स्पष्ट नीति होनी चाहिए। कुछ देशों में
बेचने वालों के समान इस्तेमाल करने वालों की भी धड़-पकड़ होती है। भारत में भी
ऐसा किया जा सकता है।
उसके पहले हमें सभी दर्शकों के लिए नई फिल्में उपलब्ध
करानी होंगी। हमें ऐसे उपाय और प्लेटफार्म तैयार करने होंगे,जिनके जरिए फिल्में
रिलीज होने के साथ जल्दी से जल्दी सभी तबकों के दर्शकों के बीच पहुंच सके। देश
में कुल 13,000 सिनेमाघर हैं। देखा जाए तो प्रति 96,000 दर्शकों पर एक सिनेमाघर
है। ऐसे में सारे दर्शक सिनमाघरों में जाकर फिल्में नहीं देख सकते। ठीक है कि देश
की पूरी आबादी फिल्में नहीं देखती,फिर भी सभी दर्शकों की पहुंच में फिल्में नहीं
हैं। सारे अवैध तरीकों को वैध बना कर उन पर शुल्क लगाने की जरूरत है। फिल्म
निर्माताओं को भी बाक्स आफिस यानी सिनेमाघरों की कमाई की ग्रंथि से बाहर निकलना
होगा। शुरू में ऐसा लग सकता कि एक साथ सभी प्लेटफार्म पर आने से कमाई कम हो जाएगी
और बूंद-बूंद से समुद्र बनने में तो लंबा वक्त लगेगा। दरअसल,नए प्लेटफार्म से
हाने वाली कुल कमाई बाक्स आफिस से कई गुना ज्यादा होगी। अगर फिल्में थिएटर में
रिलीज करने के बाद वीकएंड बीतते ही अगले सोमवार को सभी प्लेटफार्म पर आ जाएं तो
दर्शक और निर्माता दोनों लाभ में रहेंगे।
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