फिल्म समीक्षा : बुधिया : बॉर्न टू रन
कथा और व्यथा
-अजय ब्रह्मात्मज
मयूर पटेल और मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘बुधिया : बॉर्न टू रन’ उड़ीसा के बुधिया और बिरंची
की कहानी है। फिल्म का शीर्षक बुधिया है। वह शिशु नायक है। बुधिया के साथ-साथ
बिरंची की भी कहानी चलती है। दो व्यक्तियों के परस्पर विश्वास और संघर्ष की यह
कहानी रोमांचक,प्रेरक और मनोरंजक है। सोमेंद्र पाढ़ी ने इसे बड़ यत्न से गूंथा
है। बॉयोपिक फिल्मों के इस दौर में ‘बुधिया...’ बेहतरीन उदाहरण है। फिल्म में ढलने के बावजूद बुधिया और
बिरंची का चरित्र नैसर्गिक और आर्गेनिक रहता है। हालांकि ‘बुधिया...’ को सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म
का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है,लेकिन यह फिल्म सभी उम्र के दर्शकों के लिए है।
इस फिल्म का गहन दर्द है कि बुधिया के दौड़ने पर आज भी पाबंदी है। वह 2016 के
ओलिंपिक में नहीं जा सका। अगर दबाव बढ़े और आवाज उठे तो इस होनहार धावक की प्रतिभा
से विश्व परिचित हो और देश का भी गौरव बढ़े।
‘बुधिया...’ उड़ीसा के पांच साल के बच्चे की कहानी है। वह जन्मजात धावक
है। बचपन में जूडो कोच बिरंची की पारखी नजर उसे भांप लेती है। बिरंची उसे
प्रशिक्षित करते हैं और मैराथन दौड़ने में उसे प्रोत्साहित करते हैं। छोटी
दूरियों से आरंभ उसकी दौड़ पुरी से भुवनेश्वर के बीच के 65 किलोमीटर की दूरी
नापने के साथ उत्कर्ष पर पहुंचती है। उड़ीसा की राज्य सरकार और चाइल्ड वेलफेयर
कमिटी के लोग बिरंची के प्रयास के खिलाफ हैं। बिरंची का प्रदेश के विपक्ष के नेता
के साथ खड़ा होना ही स्थितियों को जटिल बना देता है। कहीं न कहीं सत्ता पक्ष को
लगता है कि इसके पीछे कोई राजनीतिक महात्वाकांक्षा होगी। राजनीति के इस दुष्चक्र
में बुधिया की नैसर्गिक प्रतिभा कुचली जाती है और उसके कोच बिरंची की हत्या तक हो
जाती है।
सोमेंन्द्र पाढ़ी ने बहुत खूबसूरती से बुधिया और
बिरंची के चरित्र को प्रस्तुत किया है। वे बुधिया को चमत्कार से अधिक प्रशिक्षण
और अभ्यास के परिणाम के रूप में पेश करते हैं। उन्होंने सावधानी से बिरंची को
गढ़ा है। बिरंची ने उतनी ही सावधानी से बुधिया को निखारा है। दोनों एक-दूसरे से
जोश हासिल करते हैं और लगातार कामयाब होते हैं। बिरंची का सपना था कि बुधिया 2016
के ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करे। उनका वह सपना आज भी अधूरा है,क्योंकि
राजनीतिक छल-प्रपंच में बुधिया के पांवों पर पाबंदी है। वह भाग पहीं सकता। वह दौड़
नहीं सकता। देश के लिए वह अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का उपयोग नहीं कर सकता। उसे सीमित
कर दिया गया है।
सोमेन्द्र पाढ़ी को धन्यवाद देना होगा कि उन्होंने
बुधिया और बिरंची की भूमिका के लिए दो याग्य कलाकारों का चुना। बुधिया के रूप में
मयूर पटेल पांच साल की उम्र के बच्चे की भोली,नटखट और नैचुरल भंगिमाओं के साथ
मौजूद है। लगता है कि बुधिया ऐसा ही रहा होगा। बिरंची के रूप में मनोज बाजपेयी फिर
से अपनी प्रतिभा के नए पहलू से परिचित कराते हैं। मनोज बाजपेयी के बारे में यह
लिखना कि वे उम्दा कलाकार हैं भी घिसी-पिटी बात लगती है। हिंदी सिनेमा की इस
अनोखी प्रतिभा की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वे अपने किरदार में ढल जाते हैं।
संबंधित किरदार में किसी और की कल्पना नहीं की जा सकती। यह अहसास भी नहीं आता कि
मनोज बाजपेयी की जगह फलां कलाकार होता तो और बेहतर करता। मनोज बाजपेयी ने बिरंची
की व्यथा को प्रभावशाली तरीके से पेश किया है। फिल्म के निर्माता गजराज राव स्वयं
समर्थ अभिनेता है। उन्होंने इपने भावों से फिल्म का प्रभाव बढ़ाया है। सहयोगी
भूमिकाओं में आए सभी कलाकारों ने उत्तम योगदान किया है।
‘बुधिया:बॉर्न टू रन’ 2016 की उल्लेखनीय फिल्म है। जरूरी है कि यह देश के
दर्शकों तक पहुंचे और बुधिया और उस जैसी प्रतिभाओं के प्रति जागरूक करे।
अवधि- 112 मिनट
स्टार – चार स्टार ं
Comments
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मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'