समकालीन सिनेमा(4) : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी
कमर्शियल सिनेमा रहा है। शुरू से रहा है। दादा साहेब फालके की पहली
फिल्म राजा हरिश्चन्द्र अपने समय की
व्यावसायिक फिल्म थी। आज हम उसे कला से जोड़ देते हैं। कलात्मकता से जोड़ देते हैं। मैं निश्चित तौर से कह
सकता हूं कि आज कोई राजा हरिश्चन्द्र बनाना चाहे तो उसे समर्थन और निवेश नहीं मिलेगा। अभी तो अतीत के प्रति सम्मान है और न उस प्रकार
के विषय के लिए सम्मान है। उल्टा वह टैबू है। उसे दकियानूसी कहा जाएगा। कहा जाएगा
कि यह क्या विषय हुआ? बात बिल्कुल तय है कि कमर्शियलाइजेशन बढ़ता जा रहा
है और कमर्शियलाइजेशन में सबसे पहली चिंतन और कला की हत्या होती है। मैं फिर से
कह सकता हूं कि सब कुछ होगा,आकर्षण के सारे सेक्टर मौजूद होंगे, लेकिन उसमें
हिंदुस्तान की आत्मा नहीं होगी। मैं कतई गलत नहीं मानता कि आप विदेशों में जाकर क्यों
शूट कर रहे हैं सिनेमा। पर देखिए कि धीरे-धीरे फिल्में न केवल अभारतीय हो रही हैं
बल्कि वे धीरे-धीरे भारत की जमीन से हट कर भी शूट हो रही है। यह गलत है, मैं ऐसा नहीं मानता। मैं जिस वजह से बाहर जाते
रहता हूं और शूट करते रहता हूं उसके ठोस कारण हैं।
मोहल्ला अस्सी को काशी में शूट करने की इच्छा थी। उसका कारण यह
था कि जिस बनारस को मैं आज देख रहा हूं, जिस अस्सी
को आज देख रहा हूं,मैं यकीनन कह सकता हूं कि दस साल बाद मैं उस बनारस और अस्सी को
नहीं देखूंगा। जिस तेजी से परिवर्तन हो रहा है, उसमें हमारी
जितनी सांस्कृतिक धरोहर है,
सांस्कृतिक अवधारणाएं हैं, सभी चीजें तेजी
से बदलेगी। जिन-जिन वस्तुओं पर गौरव होता था,वह चाहे हमारी भाषा हो, चाहे वह संस्कृति हो, चाहे वह स्थान हो, चाहे
वह इतिहास हो,वह सब जिस रफ्तार के साथ ऑडियो विजुअल में बदलेगा कि मूल के लिए कोई
जगह नहीं होगी। अस्सी घाट जो आज आप देख रहे हैं या दशाश्वमेध जो आज देखते हैं, राजा घाट जो आज देखते हैं...वह सब...मुझे कोई
आश्चर्य नहीं होगा कि सब के सब किसी मोबाइल फोन के, किसी
फूड कॉर्नर,रेस्तरां और पित्जा के अड्डे होंगे। वे आज हमारे लिए सांस्कृतिक
क्षेत्र हैं,कल वे हमारे लिए किसी मॉल में परिवर्तित हो जाएंगे। इसीलिए जैसे ही
मुझे मौका मिला मैंने कहा कि मैं अस्सी पर शूटिंग करंगा।
मोहल्ला अस्सी
की शूटिंग से तीन वर्ष पहले मैं बनारस गया था तो बनारस में किसी नाव पर किसी मोबाइल
फोन का नाम नहीं था। अब मैं काशी के फोटोग्राफी करने गया था तो मैं देखा कि अब
सारे नौकाओं पर मोबाइल फोन के साइनेज पेंट किए जा चुके हैं। अब आपको गंगा नदी में
नौकाएं नहीं दिखती हैं। अब आपको गंगा नदी में चलते-फिरते एडवर्टाइजमेंट दिखाई देते
हैं। जहां पर पुरुष-स्त्रियां कपड़े बदलते हैं, जहां पर
सिर्फ चारदीवारी हुआ करती थी,अब वहां पर किसी टेलीफोन, मोबाइल कंपनी का एडवर्टाइजमेंट लगा है। जहां भी
आंखें जा सकती हैं, जहां भी हम देख सकते हैं, वे जितने सुंदर स्थान हों, तीर्थ स्थल हों, सांस्कृतिक
स्थल हो... वे सब थोड़े दिनों में किसी एक कॉमोडिटी के,किसी एक वस्तु के प्रचार के केंद्र हो जाएंगे।
क्या हम इसको रोक पाएंगे?
उत्तर है नहीं। पर जिसके पहले ये बदलाव इन
सारी चीजों को निगल जाएं मैं एक फिल्मकार के नाते उन्हें सुरक्षित रख सकता हूं,इसलिए
मैं उन्हें सेल्यूलायड में रख लेना चाहता हूं। मैं भी सोचने लग गया हूं कि
इंग्लैंड में शूटिंग करना ज्यादा आसान है। यदि मुझे मौका मिलता है तो जाऊंगा। वहां बेहतर सुविधाएं हैं, वहां जिंदगी की रेलमपेल नहीं है। जिस तरह से हमारा
संसार सिमट गया है, उसमें अब दर्शक को कोई अंतर नहीं पड़ता है कि ये भारत का सिनेमा
है कि नहीं है? क्योंकि वह लगातार इंटरनेशनल सिनेमा देख रहा है।
एक ही चैनल पर एक साथ भारतीय और विदेशी सिनेमा
देख रहा है। धीरे-धीरे सीमाएं मिट रही हैं।
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