ओलंपिक से मिला आइडिया - अली अब्‍बास जफर




अजय ब्रह्मात्मज
अली अब्बास जफर वक्त के साथ और परिपक्व हुए हैं। यशराज बैनर के संग उनका नाता पुराना है। ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’, ‘गुंडे’ के बाद अब वे ‘सुल्तान’ लेकर आए हैं। यहां वे इंडस्ट्री के सबसे बड़े सितारे के संग काम कर रहे हैं।
अली बताते हैं, ‘ मैं वक्त के साथ कितना प्रबुद्ध हुआ हूं, यह तो ‘सुल्तान’ व भविष्‍य की फिल्में तय करेंगी। मैं जहां तक अपने सफर को समझ पाया हूं तो मेरे काम में अतिरिक्त ठहराव आया है। मैंने पहली फिल्म ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’ महज 27-28 में बना ली थी। उसकी कहानी तो मैंने 26 साल में ही लिख ली थी। तब मैं बुलबुले की भांति था। उस बुलबुले में काफी ऊर्जा थी। उस वक्त मैं अपना सब कुछ देकर फटने को आतुर था। उस फिल्म के चलने की वजह भी यही थी कि मैंने वह फिल्म जिस ऑडिएंस के लिए व जिन कलाकारों के संग बनाई थी, वह जुड़ाव स्‍थापित करने में सफल रही थी। उसमें ऐसे मुद्दे थे, जो तत्कालीन समाज के हालात थे। ‘गुंडे’ के वक्त चुनौतियां थीं। मैंने जिस दौर की कहानी के साथ डील किया था, उस वक्त तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था। ऐसी कहानी कह रहा था, जिसमें विभाजन व माइग्रेशन का दर्द था। वहां मैंने पुराने दौर को रीक्रिएट करना सीखा। यह सीखा कि अलग-अलग किरदारों की इतर दिशाओं में चल रही कहानियों को कैसे पिरोया जाए।
‘गुंडे’ के किरदार विक्रम और बाला बतौर मेटाफर मौजूद थे। ‘सुल्तान’ में किरदार ही फिल्म का टाइटिल है। लिहाजा यहां लार्जर दैन लाइफ रोल कैसे गढ़ा जाए, वह सीखा। सितारा, खुद एवं निर्माता को कनविंस करना भी सीखा। वह भी तब, जब स्‍टार आप से हर मामले में बड़ा हो। दिलचस्प चीज यह रही कि बड़े सितारे के साथ काम करना अरेंज मैरेज जैसा है। आप दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते, पर काम साथ करना है। सौभाग्य से सलमान खान को मेरा लिखा हुआ पसंद आया। तभी वे मेरे कनविक्शन के साथ चलते चले गए। कभी डिसकसन हुआ भी तो छोटी-छोटी बातों के लिए। मिसाल के तौर पर भावुक पलों में सुल्तान अगर अश्रुपुरित आंखों की जगह ड्राई खड़ा रहे तो कैसा होगा आदि-इत्यादि। ऐसे में अपार धीरज व संयम रखते हुए ही एक फिल्मकार का विकास मुमकिन है।
    इंडस्‍ट्री एक सेट ढर्रे पर काम करती रही है। वह दुनियावी चीजों को पॉपुलर नजरिए से पेश करती है। एक आदर्श स्थिति पेश करने की कोशिश करती है। अब अली जैसे आउटसाइडर निजी परिवेश व सोच-समझ लेकर एंट्री करते हैं। तो शुरूआती दिनों में इंडस्ट्री के ढर्रे से किस किस्म के टकराव हुए। यह पूछे जाने पर अली कहते हैं, ‘ हिंदुस्‍तान के अंदर भी ढेर सारे हिंदुस्‍तान हैं। सिनेमा इसे भली-भांति समझता है। वह हम जैसों के हिंदुस्‍तान से विभेद नहीं करता। जैसे ‘सु्ल्तान’ का गाना ‘जग घुम्यो’। उसमें एक सीन है, जहां अनुष्‍का अंगीठी ला रजाई ओढे सलमान के हाथ सेंकती है। यह चीज मुंबई के लोगों को पोएट्री किस्म की लग सकती है। कई देहरादून, बिहार, भोपाल के दोस्तों ने कहा भी कि यह क्या है। सलमान सुपरमैन सरीखे हैं। उन्हें ठंड नहीं लग सकती। उन्हें रजाई में क्यों लपेटा। गाने में ही एक और सीन है, जहां अनुष्‍का गोबर के उपले बना रही है। अब एक हार्डकोर मेनस्‍ट्रीम सिनेमा से आई अभिनेत्री अनुष्‍का शर्मा ऐसा करती हुई यकीनी लगे, वह करना चुनौतीपूर्ण रहा। मगर उस प्रॉसेस में काफी कुछ सीखने को मिला। जिन लोगों ने गांव की जिंदगी नहीं देखी है, उनके लिए सलमान-अनुष्‍का का यह अवतार लार्जर दैन लाइफ लगेगा। जो जानते हैं, वे उस चीज से जुड़ाव महसूस करेंगे। यही हमारे सिनेमा की ताकत भी है। हर प्रभावित करने वाली चीज को लोग ब्रह्मा की लकीर सरीखी मान लेते हैं।
    उदाहरणस्‍वरूप ‘रंग दे बसंती’ का कैंडल मार्च तो देश में आंदोलनों का रूपक विद्रोह बन गया। मैं उस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था। तब एक चलती वैन में लड़की बलात्कार का शिकार हो गई थी। उसको लेकर पूरा मूवमेंट खड़ा हो गया था। लोग इंडिया गेट पर ‘रंग दे बसंती’ वाले फॉर्म में कैंडल मार्च करने लगे। लोग हैरत में थे। अचानक युवाओं को क्या हो गया। उनके भीतर विद्रोह का लावा कैसे दहकने लगा। तो हमारे सिनेमा में यह ताकत है, जो जन आंदोलन खड़ा कर सकता है।
    ‘सुल्तान’ के निर्माण के पीछे भी यही थॉट प्रॉसेस था। एक ऐसे खेल को फिर से लोकप्रियता की बुलंदियों पर लाया जाए, जो सदियों से हमारी जड़ों में है, मगर वह हाशिए पर है। हम अगर कोलकाता से दिल्ली तक ट्रैवल करें तो बनारस, हरियाणा व अन्य इलाकों में अखाड़ा अनिवार्य रूप से मिलेगा। वह भी जहां गांव की पंचायत लगती है। हमारी मायथोलौजी में मल्ल युद्ध के अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं। यूनानियों ने जब हम पर आक्रमण किया तो इंडो-ग्रीक का सम्मलित रूप निकला, जो अलग था। इन बातों से आज की युवा पीढी अनभिज्ञ है। उन्हें इस खेल से अवगत करने के लिए एक बड़े स्‍टार की दरकार थी, जो सिल्वर स्‍क्रीन पर मल्ल युद्ध करे तो युवाओं को लगे कि कुश्‍ती भी कूल स्‍पोर्ट्स है।
       रेसलिंग यहां रूपक है। उसके जरिए यह जाहिर होता है कि परिस्थितियों के समक्ष अपने हथियार मत डालो। उठो, चलो और तब तक चलते रहो, जब तक मंजिल न मिल जाए। ‘सुल्तान’ का ख्‍याल लंदन ओलंपिक में सुशील कुमार के सफर से आया। वे फाइनल में गए थे। हालांकि रजत पदक जीत पाए थे। उसके बाद उनका इंटरव्यू आया था दूरदर्शन पर। उसमें जिन ईमानदारी से उन्होंने अपनी बात रखी। उसमें सिल्वर जीतने से ज्यादा देश के लिए गोल्ड न जीत पाने का गम था। तब मैंने दस पेज की कहानी लिखी। आदित्य चोपड़ा को सुनाई । शुरूआती हिचक के बाद वे मान गए।  उनके बाद सलमान भी इसे करने को एग्री कर गए। यह बातें ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’ और ‘गुंडे’ के बीच की हैं। सलमान ने हमारी मुलाकात में कहा कि वे फिलहाल तो ‘प्रेम रतन...’ कर रहे हैं। लिहाजा वे चाहते हैं कि वे जब 50 के हो जाएंगे, तब ‘सुल्तान’ लोगों के बीच आए। इत्तफाकन वे 50 वें साल में हैं और उनकी सिर्फ एक रिलीज आ रही है।
हम लोगों के लिए फख्र की बात यह रही कि उन्होंने इस फिल्म के लिए जितना एफर्ट किया है, उतना किसी फिल्म के लिए नहीं किया। एक टिपिकल पहलवान के लिए जैसा शरीर होना चाहिए, उन्होंने उसे एक्वायर किया। उसके लिए वेट ट्रेनिंग, दांव-पेंच सीखते थे। वह भी सुबह-शाम ढाई-ढाई घंटे। मिट्टी पर भी कुश्ती सीखी और मैट पर भी। उन्होंने पंचिंग-किकिंग और मार्शल आर्ट्स भी सीखे। खुद उन्होंने कहा कि यह उनकी सबसे मुश्किल फिल्म थी। उनके प्रशंसक जब इसे देखेंगे तो यकीनन उनकी सराहना करेंगे।

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