दरअसल : मिलते हैं जब फिल्म स्टार
-अजय ब्रह्मात्मज
जागरण फिल्म फेस्टिवल जारी है। हिंदी प्रदेशों के
शहरों में जाने के अवसर मिल रहे हैं। इन शहरों में फिलमें दिखाने के साथ ही जागरण
फिल्म फेस्टिवल मुंबई से कुछ फिल्म स्टारों को भी आमंत्रित करता है। इन फिल्म
स्टारों से दोटूक बातचीत होती है। कुछ श्रोताओं को भी सवाल पूछने के मौके मिलते
हैं। हर फेस्टिवल की तरह यहां भी फिल्मप्रेमी,रंगकर्मी,साहित्यप्रेमी और युवा
दर्शक होते हैं। उनकी भागीदारी अचंभित करती है। वे पूरे जोश के साथ फेस्टिवल में
शामिल होते हैं। अपनी जिज्ञासाएं रखते हैं। अपनी धारणाएं भी जाहिर करते हैं।
मैंने गौर किया है कि फिल्म स्टारों के साथ इन
मुलाकातों में दर्शकों में सबसे ज्यादा रुचि सेल्फी निकालने में होती है। वे
दाएं-बाएं हाथें में मोबाइल लिए और बांहें फैलाए सेलिब्रिटी के रास्ते में खड़ हो
जाते हैं। हर व्यक्ति चााहता है कि सेलिब्रिटी उनके कैमरे की तरफ देखे और मुस्कराए।
चूंकि सेल्फी मोड में अपनी छवि दिख रही होती है,इसलिए नजरें नहीं फेरी जा सकती
हैं। मजबूरन हर सेलिब्रिटी को मुस्कराना पड़ता है। आ खुद ही जोड़ लें कि एक सेल्फी
में कितना समय ल्रता है। पहले सिर्फ ऑटोग्राफ से काम चल जाता था। अग बहुत कम
ऑटोग्राफ मांगे जाते हैं।हां,पहले की तरह आज भी कुछ लोग मोबाइल नंबर और मेल आईडी
चाहते हैं। वे संपर्क करना चाहते हैं। कुछ होटल में मिलने चले आते हैं।
लखनऊ में एक पत्रकारनुमा उत्साही व महात्वाकांक्षी
फिल्मकार दिख्खई गई फिल्म के निर्देशक से मिलने होटल पहुंच गए। उन्होंने बगैर
पूछे ही खाने-पीने की चीजों की फरमाइशें कीं। उनके पास न तो कायदे के सवाल थे और न
वे स्वयं स्पष्ट थे कि वे क्या पूछने आए हैं। उक्त निर्देशक ने बताया कि उनके
पास बातचीत लिखने या रिकार्ड करने के साधन भी नहीं थे। उन्होंने होटल के कमरे से
पैड और पेंसिल उठाई और थोड़ा-बहुत लिख लिया। लिखने का आशय यह है कि उन्होंने एक
बड़ा मौका गंवा दिया। यह भी हो सकता है कि उनके पास कोई गंभीर जिज्ञासा ही नहीं
हो,लेकिन उन्होंने उक्त निर्देशक को सावधान कर दिया कि वह भविष्य में किसी और
को ऐसा अवसर न दे। हम औचक मोके मिलने पर भौंचक रह जाते हैं। होना यह चाहिए कि हम
पूरी तैयारी के साथ बातचीत में शामिल हों। अपने सवाल पूछें और सेलिब्रिटी को चकित
कर दें। एक और ट्रेंड देखने को मिलता है कि सभी जानी हुई बातों को ही सेलिब्रिटी
के मुंह से वापिस सुनना चाहते हैं। सवाल मौलिक नहीं होते। दरअसल,मौलिकता की यह
समस्या फिल्म् पत्रकारों के साथ भी है। यही वजह है कि सारे इंटरव्यू एक जैसे
सुनाई-दिखाई पड़ते हैं।
लखनऊ में यह भी दिखा कि कुछ लोग फिल्म एक्टर बनने और
फिल्मों में घुसने के तरीके के बारे में पूछ रहे थे। सूचना प्रसार और इंटरनेट के
इस युग में ऐसे बेसिक सवालों का कोई औचित्य नहीं रह जाता। गूगल पर एक सर्च मारते
हैं अनेक लिंक मिल जाते हैं। हां,यह बात पूछी जा सकती है कि उनमें से कौन से संस्थान
उपयागी और भरोसेमंद हें। फिल्में आकर्षित करती हैं। हम जुड़ना भी चाहते हैं। सही
निर्देशन के अभाव में ज्यादातर युवक भटकते रहते हैं। वे बेसिक ट्रेनिंग भी नहीं
कर पाते। रोजाना सैकड़ों महात्वाकांक्षी मुंबई पहुंचते हैं और सपनों के जंगल में
खो जाते हैं। स्वार्थी उनका लाभ उठाते हैं। नपछले दिनों नसीरूद्दीन शाह ने बिल्कुल
सही कहा था कि अभी तो एक्टिंग की वीकएंड ट्रेनिंग दी जा रही है। यह बताने के पीछे
उनका सवाल था कि क्या ऐसा संभव है?
फिल्म स्टारों से मिलने और बातचीत करते समय आम
दर्शकों को पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ी औार चैनलों पर सुनी-देखी बातों को ही पूछने से
बचना चाहिए। उनकी सहज जिज्ञासा ज्यादा प्रभावी होती है और वह कहीं ना कहीं
सेलिब्रिटी को भी सोचने पर मजबूर करती है।
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